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मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS
बुधवार, 21 दिसंबर 2011
हिंदी- राष्ट्रभाषा (national Language) or/या राजभाषा (Official language)
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एम.आर.अयंगर. 09425279174
Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
Can manage with Kannada, Tamil, assamese, Marathi .
Published Eight books in Hindi containing Poetry, Short stories, Currect topics, Essays, analysis etc. All are available on www.Amazon.in/books with names Rangraj Iyengar & रंगराज अयंगर
रविवार, 6 नवंबर 2011
बचपन की सीख
बचपन की सीख
वे दिन भी कितने सुहाने होते हैं, जब
जिम्मेदारी नाम की चिड़िया दूर दूर तक भी नजर नहीं आती. सुबह उठो, नहओ धोओ, नाश्ता
करो, होम वर्क करो. फिर स्कूल जाओ, क्लास
में पढाई और फुरसत में शरारतें करो. किसी भी बात की न कोई चिंता होती, न कोई
फिक्र. किसी भी चीज की जरूरत हो तो
मम्मी पापा जिंदाबाद.
ऐसे ही उम्र में किए जाने वाली एक
शरारत ने मेरे दोस्त की जिंदगी पर गहरा असर किया.
रोज शाम मुहल्ले के एक बुजुर्ग
अध्यापक टहलने निकलते थे. रिटायर तो हो ही चुके थे. उम्र भी कोई 65 – 70 की हो रही
होगी. वे बच्चों को बहुत चाहते थे. रास्ते में रुक रुक कर वे बच्चों से बातों
करते, उनको हंसाते रहते थे. लेकिन बच्चे तो बच्चे. शैतानी तो करते ही थे.
रोज शाम जब गुरुजी उस तरफ आते, तो
सारे बच्चे अपनी अपनी जगह से चीख कर कहते –
नमस्ते गुरुजी. गुरुजी भी पलट कर
अभिवादन का जवाब देते. बच्चे तब तक दूसरी ही तैयारी में होते. गुरुजी के वापस
पलटने की देर होती और बच्चे एकजुट होकर चिल्लाते – हम नहीं समझते गुरुजी. पर
गुरुजी इसे नजरंदाज कर आगे बढ़ जाते.
बच्चों के लिए यह एक खेल हो गया. रोज
रोज का गुरुजी को कहना –
नमस्ते गुरुजी... हम नहीं समझते
गुरुजी.
और गुरुजी का पुनराभिवादन एवं
नजरंदाज करके बढ़ जाना.
मोहल्ले के बड़े लड़के भी इसे देखते
थे. कभी कभी उन्हें भी शरारत सूझती थी.
एक छुट्टी वाले दिन एक 12-13 साल के
बच्चे को न जाने क्या सूझी – उस दिन उसने बच्चों की तरह गुरुजी का अभिवादन किया.
गुरुजी ने भी पुनराभिवादन किया. तुरंत बहाव में उसने फिर कहा – हम नहीं समझते
गुरुजी.
गुरुजी को भी न जाने क्या सूझी. शायद
बच्चों के मुख से सुनने वाले शब्द बड़े बच्चे के मुख से सुनना शायद उन्हें अच्छा
नहीं लगा. उनके चेहरे पर गुस्सा नजर आ रहा था.
वे उस बड़े बच्चे के पास वापस आए.
बच्चा डर गया, कि गुरुजी पिटाई करेंगे. लेकिन नहीं. गुरुजी ने ऐसा नहीं किया. पास
आकर उन्होंने बच्चे से कहा-
क्या कहा? हम नहीं समझते
गुरुजी. अरे जिसने अपने माँ बाप को नहीं समझा वो हमको क्या समझेंगे?
कहकर गुरुजी तो अपनी राह चल दिए. पर
बच्चा बेचारा यह समझने की कोशिश में लगा रहा कि गुस्से में गुरुजी क्या कह गए?
उसका मन उद्वेलित हो गया और इस
पेशोपेश में उसका मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था.
देर रात जब मन शांत हुआ, तब उसे समझ
में आया कि गुरुजी ने क्या कह दिया.
उसे अपने आप पर घृणा होने लगी कि
मैंने ऐसा क्यों किया. शर्म के मारे पानी पानी हो गया.
लेकिन उसे जिंदगी की सीख मिल गई और
कभी उसने अपने बड़ों से मजाक न करने की ठान ली. यह उसके जीवन के लिए बचपन की सीख
थी.
........................................................................................................................
एम.आर.अयंगर.
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एम.आर. अयंगर
Location:
कोरबा, Chhattisgarh, भारत
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रविवार, 30 अक्टूबर 2011
आज के रावण
आज के रावण
रामचंद्र जी मार चुके हैं,
त्रेतायुग में रावण को,
आज रावणी मार रही है,
कल युग में भी जन जन को.
सीताहरण पर श्रीराम ने,
रावण को मार गिराया है,
खुशियाँ मनाने हर वर्ष ,
जनता ने रावण को जलाया है.
बचपन में लगता था यह तो,
हर्षोल्लास का प्रतीक है,
अब बोध होने लगा,
यह बस केवल लीक है.
शारीरिक रावण तो मर गया,
पर मन का रावण मरा नहीं,
रावण के जलने से ये,
बन धुआँ हवा में समा गईं.
परिणाम, अनेकों रूपों मे,
रावण, फिर-फिर पनप गए,
नाम अलग हैं,
काम अलग हैं,
सबमें कुछ कुछ.
रावणी बुद्धियाँ समा गईं.
और ये सब उभरते रावण,
हर बरस इकट्ठा होते हैं,
हर बरस हर्ष मनाते हैं,
एक रावण का पुतला खाक कर,
अनेकों रावण के पैदा होने का,
मिलकर जश्न मनाते हैं.
अच्छा होता,
रावण के साथ, हर बरस,
रावणी प्रवृत्तियां भी जल कर,
खाक हो जातीं,
तो आज भारत में,
रावण की नहीं,
राम की धाक हो जाती.
जो हो रहा है,
इससे यह पैगाम उभरता है,
रावण का पुतला ही जलता है,
पर रावण कभी न मरता है.
रावण दहन सालाना होता,
नहीं रावणी मरती है,
रावण अमर, नहीं मरता है,
यही दास्तां कहती है.
अब सैकड़ों रावण मिल कर,
जलाते हैं एक रावण को,
जानते हुए भी अनजान हैं कि,
एक जल गया तो कुछ नहीं,
कई और उभरेंगे,
सोचना-समझना नहीं चाहते कि,
अपने अंदर के रावण को कब जलाएँगे,
डरते भी नहीं हैं कि,
कहीं, हम रावण तो नहीं कहलाएँगे.
..............................................
अयंगर 27.10.2011.
कोरबा.
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एम.आर. अयंगर
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शनिवार, 29 अक्टूबर 2011
दशहरा
दशहरा
रावण
- लंकापति नरेश,
अब
क्या रह गया है शेष ?
त्रिलोकी
ब्राह्मण, त्रिकाल पंडित,
अतुलनीय
शिवोपासक,
क्या
सूझी तुझको ?
क्यों
लाया परनारी ?
कहलाया
अत्याचारी, व्यभिचारी.
रामचंद्र
जी के लंकाक्रमण हेतु,
सागर
पुल के शिवोपासना में,
प्रसंग
पाकर भी, ब्राह्मणत्व स्वीकारा,
अपना
सब कुछ वारा !!!
राजत्व
पर ब्राह्मणत्व ने विजय पाई,
यह
कितनी दुखदायी !!!
अपना
नाश विनाश जानकर भी,
तुम
बने धर्म के अनुयायी !!!
यह
धर्म तुम्हारा कहाँ गया?
जब
सीता जी का हरण किया.
शूर्पणखा
के नाक कान तो,
लक्ष्मण
ने काटे थे,
क्यों
नहीं लखन को ललकारा ?
क्या
यही था पुरुषार्थ तुम्हारा ?
शायद
तुमको ज्ञान प्राप्त था,
दूरदृष्टि
में मान प्राप्त था,
त्रिसंहार
विष्णु के हाथों,
श्राप
तुम्हारा तब समाप्त था.
कंस-शिशुपाल,
कृष्ण सें संहारे गए,
हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप,
नृसिंह से संहारे गए,
अब
रावण–कुंभकर्ण की बारी थी,
सो
राम से संहारे जाने की तैयारी थी,
वाह
जगत के ज्ञाता,
जनम
जनम के ज्ञाता,
अपना
भविष्य संवारने हेतु,
वर्तमान
दाँव पर लगा दिया ?
श्राप
मुक्त होकर तुम फिर,
देव
लोक पा जाओगे,
इस
धरती पर क्या बीते है,
इससे
क्यों पछताओगे.?
इसालिए
इस लोक पर अपना ,
छाप
राक्षसी छोड़ गए,
पर
भूल गए तुम भारतीय को,
कब
माफ करेगी यह तुमको?
स्मरण
करोगे इस कलंक को,
सहन
करोगे युग युग को.
अब
भी भारत की जनता के,
है
धिक्कार भरा मन में,
दसों
सिरों संग बना के पुतले,
करती
खाक दशहरा में.
.................................................
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एम.आर. अयंगर
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गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
ठोकर न मारें..
ठोकर न मारें
दिखाकर
रोशनी, दृष्टिहीनों को,
और
प्रदीप्यमान सूरज को,
रोशनी
का तो अपमान मत कीजिए !!!
और
न ही कीजिए अपमान,
सूरज
का और दृष्टिहीनों का.
इसलिए
डालिए रोशनी उनपर,
जिन्हें
कुछ दृष्टिगोचर हो,
ताकि
सम्मान हो रोशनी का,
और
देखने वालों का आदर.
एक
बुजुर्ग,
जिनकी
दृष्टि खो टुकी थी,
हाथ
में लालटेन लेकर,
गाँव
के अभ्यस्त पथ से जा रहे थे,
एक
नवागंतुक ने पूछा,
बाबा,
माफ करना,
दृष्टिविहीन
आपके लिए, इस
लालटेन
का क्या प्रयोजन है ?
बाबा
ने आवाज की तरफ,
मुंह
फेरा और बोले –
बेटा
तुम ठीक कहते हो.
मेरे
लिए यह लालटेन अनुपयोगी है,
फिर
भी यह मेरे लिए जरूरी है.
ताकि
राह चलते लोग,
कम
से कम इस लालटोन की,
रोशनी
में देखकर,
मुझ
जैसे बुजुर्ग को—
ठोकर
न मारें.
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एम.आर. अयंगर
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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011
आपके जाने के बाद ! ! !
आपके जाने के बाद ! ! !
शायद बदल खुद ही गया हूँ,
बदले हुए हालात में,
बदली लगी दुनियाँ मुझे,
आपके जाने के बाद.
बहारों से भरी बगिया,
फिजाँ को प्यारी हो गई,
अब नहीं खिलती हैं कलियाँ,
आपके जाने के बाद.
मस्त यारों में रमे थे,
भूले गम आबे - हयात,
बच गई केवल तन्हाई,
आपके जाने के बाद.
...... भी राजी नहीं है,
और सब भी जी नहीं हैं,
संग यादें रह गई हैं,
आपके जाने के बाद.
चार दिन की चाँदनी है,
फिर अँधेरी रात,
चाँदनी भी छिप गई है,
आपके जाने के बाद.
अंत सोचा भी नहीं था,
बस जी रहे थे शान से,
अब तो चक्का जाम है,
आपके जाने के बाद.
जो खून देने में नहीं हिचका,
कभी था आज तक,
अब जुबाँ देना न चाहे ,
आप के जाने के बाद.
००००००००००००००००००००००००००
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एम.आर. अयंगर
Location:
कोरबा, छत्तीसगढ़, भारत
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सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
पूछो जी पूछो...
पूछो
जी पूछो …………. ???
नयनों
के कोरों से,
पवन
के झकोरों से,
पूछो
जी पूछो ...............???
ये
बात कहाँ से उड़कर ?,
पहुंची
है तुम तक.
कविता
से छंद से,
फूल
की सुगंध से,
पूछो
जी पूछो ............. ???
ये
साथ अपने लेकर क्या ?
पहंची
है तुम तक.
मँझधारों
किनारों से,
धारों
पतवारों से,
माँझी
के इशारों से,
चंदा
से तारों से,
पूछो
जी पूछो ………………… ???
ये
राज कहाँ से पाकर ?
पहुंची
है तुम तक.
बलखाती
राहों से,
लहराती
बाहों से,
अनमोल
अदाओं से,
रंगीन
फिजाओं से,
पूछो
जी पूछो …………………….. ???
ये बात कहाँ से उड़कर ?
पहुंची है तुम तक.
एम.आर.अयंगर.
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एम.आर. अयंगर
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रविवार, 9 अक्टूबर 2011
लाल बहादुर शास्त्री जी.
03102011
लाल
( बहादुर शास्त्री )
गीता
को अपनाना, फिरसे
जिसको
तुमने सिखलाया,
किसानों
औ जवानों का,
जहाँ
किया था जयकारा,
इक
आवाज के दम पर तेरे,
सारे
देसवासियों ने, हफ्ते
तेरह
भोजन स्वीकारा,
एक
कम किया अन्न बचाने,
भूखा
रहकर बेचारा.
“जय जवान – जय किसान”
नारा, आज भी दिल को छूले,
उसी
जगह हम आज तुम्हारा,
जनम
दिवस भी भूले.
ताशकंद
में अगर न होती,
हावी
तुम पर काल,
आज
न होता भारत का ,
जैसा
अब है हाल.
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2 अक्तूबर को इनका भी जन्म दिन था।।।
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एम.आर.अयंगर.
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सोमवार, 26 सितंबर 2011
रंग बिरंगी
रंगबिरंगी सृष्टि
ब्रह्मा
ने बीज सृष्टिके लाए थे छाँटकर,
पर
मिल गए अंजाने में वे सारे एक संग,
बो
तो दिए थे बीज सारे सोच-सोच कर,
देखें
ये चमत्कार भी होगा किस तरह ?
कारण
यही के चल पड़े हैं सुख-दुख भी संग-संग,
काँटे
औ’ फूल लग गए हैं एक डाल पर,
छाया,
बिना उजाला होती कभी नहीं,
अच्छे
बुरे को देखते हैं संग-संग सभी.
नारी
पुरुष हैं जान में सभी के, जान तू,
यह
जिंदगी अजीब है इसको सँभाल तू,
सृष्टा
के इस प्रयोग का तू ना विनाश कर,
भोग
जिंदगी को हरेक श्वास पर.
विज्ञान
है विनाश तो वरदान भी यही,
इंसान
है शैतान तो भगवान भी यही,
है
श्वास हवा से तो आँधी से तबाही,
लौ
से है रोशनी तो लौ से ही राख भी.
जीवन
मरण है चक्र इस अविरत जहान का,
जीने
के बाद क्या पता नाम औ’ निशान का,
जो
जी रहा है उसका कोई खैरियत नहीं,
कौन
जाने अंत शब्द इस जुबान का.
भूख
पेट के लिए सब कुछ है बिक रहा,
मिल
जाएगी हर चीज जरा ढ़ूंढ़ लो मंडी,
इंसानियत
कहीं तो कहीं ईमान की मंडी,
ये
सृष्टि बन पडी है कितनी रंगबिरंगी.
ठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठठ
एम.आर.अयंगर.
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शनिवार, 17 सितंबर 2011
हिंदी --- दशा और दिशा
हिंदी : दशा और दिशा
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है. कांग्रेस के एक अधिवेशन में हिंदी को
राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है. भारत में जगह जगह पर राष्ट्रभाषा प्रचार
समितियों का गठन किया गया है. जिननें (केवल) हिंदी के प्रचार के लिए प्रबोध,
प्रवीण एवं प्राज्ञ जैसी परीक्षाओं का आयोजन माध्यम बनाकर लोगों को, खासकर अहिंदी
भाषियों को हिंदी में काबिल बनाने का यत्न किया. लेकिन यह समितियां भारत की अन्य
भाषाओं की ओर अन्यमनस्क एवं सुप्त थीं। भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा शब्द का
प्रयोग हुआ ही नहीं है. वहां राजभाषा व अष्टम अनुच्छेद की भाषाएं ही नजर आती हैं.
संविधान सभा की राजभाषा समिति में अंततः हिंदी व तामिल के बीच चुनाव हुआ, जिसमें
समान मत मिलने की वजह से अध्यक्ष श्री जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्षीयमत (कास्टिंग वोट) का प्रयोग करना पड़ा.
फलस्वरूप हिंदी राष्ट्रभाषा बनी. शायद इसी
द्वंद के कारण तामिल भाषी आज भी हिंदी को अपना नहीं सके . कई लोंगों ने भी इसका
भरपूर फायदा उटाया और दक्षिण भारतीयों को हिंदी से तोड़कर रखने में काफी मेहनत भी
की. आज यह प्रक्रिया सशक्त राजनीति का हिस्सा बन गई है.
सन् 1963 में (हिंदी) राजभाषा अधिनियम जारी हुआ लेकिन ताज्जुब इस बात का
होता है कि 1973 में जब मैंने हिंदी भाषी राज्य से हिंदी साहित्य विषय के साथ उच्चतर
माध्यमिक शिक्षा पूरी की, तब भी शालाओं मे राजभाषा के बारे कोई पढ़ाई या चर्चा
नहीं होती थी.
सन 1983 - 84 के दौरान जब एक सरकारी दफ्तर में जाने का अवसर मिला तब वहां
के प्रशिक्षण केंद्र में देखा –
“हिदी हमारी राष्ट्रभाषा ही
नहीं अपितु हमारे संघ की राजभाषा भी है”.
वहां का कोई कर्मचारी मुझे इसका अर्थ नहीं समझा पाया. बाद - बाद में
किताबों से जानकारी मिली कि राजभाषा क्या है और यह राष्ट्रभाषा से किस तरह भिन्न
है. क्या हम अपनी राजभाषा को परदे में सँजो कर रखना चाहते हैं?
यदि हिंदी का प्रयोग बढाना है और हिंदी को सही
मायने में अपनाना है तो इसे खुली छूट देनी होगी. हिंदी के सारे नियम कानून जगजाहिर
करने होंगे. सारे उच्चस्तरीय अधिकारियों को जन समुदाय को प्रोत्साहित करने के लिए,
मजबूरन ही सही अपने बच्चों को हिंदी
माध्यम स्कूलों में पढाना होगा. अधिकारी इससे कतराते क्यों हैं इसका राज , राज ही
है.... या उनकी समझ में भी अंग्रेजी ही शिखर की सीढी है.
50-55 साल के किसी बूढ़े को एक सप्ताह का
प्रशिक्षण दे देने से, वह हिंदी में पंडित नहीं हो जाता. इसके लिए आवश्यक है कि वह
व्यक्ति इस भाषा से लगातार संपर्क में रहे. यह संभव तब ही हो सकता है जब भारत के
सभी शालाओं में हिंदी अनिवार्य हो और इसमें 50 प्रतिशत अंक पाने पर ही उसे उत्तीर्ण घोषित किया जाए.
लेकिन इस तरह के निर्णय ले कौन ?
हमारे देश में मुद्दे तो इसी तरह के हैं. जातियों, धर्मों व भाषाओं को भी नहीं बख्शा गया. कहीं अहिंदी की मुद्दा
है तो कहीं हिंदी का . लेकिन सभी का मकसद है जोड – तोड। इन सबके रहते देश हिंदी
में प्रगति करे, तो करे भी कैसे।
क्या हमारा हिंदी प्रचार का कार्यक्रम ऐसा ही है.
यदि हम हिंदी की इतनी ही सेवा करना चाहते हैं, हिंदी के प्रति हमारा रुख – बर्ताव
ऐसा ही होना था, तो जो नतीजे आ रहे हैं उनसे दुखी होने का कोई कारण ही नहीं है.
नतीजे ऐसे ही आने थे सो आए. नतीजे प्रयत्न के फलस्वरूप ही हैं.बोया पेड़ बबूल का
आम कहाँ से होय्र !!!
यदि सही मायने में हम हिंदी के उपासक हैं और
हिंदी को पनपता देखना चाहते हैं तो
सभी सार्वजनिक व सरकारी प्रतिष्ठानों में प्रवेश
के लिए हिंदी अनिवार्य क्यों नहीं की जाती। ऐसा तो कोई कानून नहीं है कि हिंदी
जानने वाला अंग्रेजी नहीं जान सकता. यदि किसी को ऐसा लगता है कि प्रगति के लिए
अंग्रेजी जरूरी है तो वह अंग्रेजी सीखे और क्योंकि देश में हिंदी जरूरी है इसलिए
हिंदी पढे. सवाल केवल इसी बात का है कि सरकार में ऐसे कदम उठाने की हिम्म्त हो.
स्वतंत्रता की साठवीं वर्षगाँठ के बाद ( चौंसठवीं
) भी हमें अपनी भाषा के बारे में यह सोचना पड़ रहा है, क्या यह दयनीय नहीं, शर्मनाक
है.पर क्या हम शर्मिंदा हो रहे हैं. या हम बेशर्म हो गए हैं. इनका जवाब ढूंढिए,
कहीं न कहीं हमारी अपनी कमियाँ आँखें फाड़ कर हमारी तरफ ताकती मिलेंगी. जब हम उन
गलतियों को सुधारकर खुद सुधरेंगे, तब कहीं देश या देश की भाषा को सुधारने की
काबीलियत हममें आएगी. क्या हम इस सुधार के लिए तैयार हैं. वरना न रहेगा बाँस – न
बजेगी बाँसुरी.
सरकारी संस्थानों (स्कूल, कॉलेज, लाईब्रेरी,
कार्यालय इत्यादि) में अपने विभिन्न दावे (चाहे पैसों के ही क्यों न हों), आवेदन चाहे
छुट्टी का हो या अनुदान का या फिर किसी सुविधा संबंधी अर्जी ही क्यों न हो,- हिंदी
में देने के लिए क्यों नहीं कहा जा सकता. शायद कुछ सोच-विचार , चर्चा – परिचर्चा
के बाद कम से कम हिंदी क्षेत्र में हिंदी में भरे फार्मों को प्राथमिकता दी जा
सकती है.
उसी तरह हिंदी की रचनाओं को प्रोत्साहन हेतु –
हिंदी के लेख, निबंध, कविता,चुटकुले शायरी इत्यादि रचनाओं के लिए, कुछ ज्यादा
पारिश्रमिक दिया जा सकता है. कम से कम राष्ट्रीय पर्वों – 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2
अक्तूबर - पर व्याख्यान हिंदी में देने के लिए जरूर कहा जा सकता है.
इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हम अंग्रेजी की
अवहेलना कर हिंदी को आगे बढाएं. जहाँ अंग्रेजी हिंदी का स्थान नहीं ले सकती वहाँ
निश्चित रूप से हिंदी भी अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकती.
हिंदी की प्रगति के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी
है कि हिंदी के नाम पर क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग न हो. 1963 का राजभाषा अधिनियम भी
रोजमर्रा की, बोलचाल व संप्रेषण की संपर्क हिंदी को ही राजभाषा का दर्जा देता है.
भाषा में जितना प्रवाह होगा, वह लोगों की जुबान पर उतनी जल्दी चढेगी भी. रोजमर्रा के जितनी करीब होगी – लोगों का उसकी ओर आकर्षण उतना ही ज्यादा होगा और वह उतनी ही
जल्दी अपनाई जाएगी.
हाल ही में जी टी वी ने हिंग्लिश शुरु की. जो
हिंदी व अंग्रेजी के सम्मिश्रण के अलावा कुछ नहीं थी. पर इसके लिए पूरी तरह न
हिंदी जाननें की जरूरत थी और न ही अंग्रेजी जाननें की. इसलिए आधे अधूरे भाषायी
जानकारों को अच्छा मौका मिला और हिंग्लिश देखते ही देखते युवाओं के लिए वरदान साबित
हुई और जवान पीढ़ी ने इसे देखते ही अपना लिया. आज हिंग्लिश युवा पीढ़ी की भाषा है.
आज की युवा पीढ़ी किसी एक से बँध कर नहीं रह सकती
चाहे वह भाषा ही क्यों न हो. हर क्षेत्र की तरह, वह भाषा के क्षेत्र में भी
लचीलापन (फ्लेक्सिबिलिटी) चाहती है, जिसकी कसौटी पर हिंग्लिस खरी उतरती है. हिंदी
व अंग्रेजी कब कहाँ कैसे मिल जाएं, इसका उन्हें शायद आभास भी नहीं हो पाता.
जिस तरह से हमारे देश में हिंदी के प्रयोग पर या अपनाने पर जोर जबरदस्ती की जाती है उस पर मुझे
कड़ी आपत्ती है. कहा जाता है कि हस्ताक्षर हिंदी में करें. कोई इन्हें समझाए कि
क्या हस्ताक्षर की कोई भाषा होती है. यदि हाँ तो कल कोई मुझसे कहेगा – आप हिंदी
में क्यों नहीं हँस रहे है. या कोई कहे – आप तबला हिंदी में बजाया करे. ड्राईंग
हिंदी में बनाएँ – इत्यादि-इत्यादि. मुझे यह पागलपन के अलावा कुछ नहीं लगता.
हमारे यहाँ सरकार बच्चों को हिंदी पढ़ाने में
विश्वास नहीं रखती. बल्कि बूढ़ों को सप्ताह
भर में हिंदी में पारंगत कर देना चाहती है. शायद इसलिए कि यही बच्चे कल के
नागरिक होंगे और यदि वे हिंदी में पारंगत हो गए तो हिंदी की हालत सुधर जाएगी - तो भाषा की रजनीति कैसे चलेगी.
अनाप शनाप अनावश्यक व बेमतलब के ये तौर-तरीके
हिंदी के प्रचार प्रसार में सहयोगी नहीं बाधक हो रहे है. कोई इनकी तरफ ध्यान दे व
लोगों का सही मार्गदर्शन करे तो भी बात सुधर सकती है.
लोगों से जबरदस्ती मत कीजिए. यह मानव स्वभाव है कि यदि आप जबरदस्ती करेंगे
तो वह आपके विरुद्ध करने को उत्सुक होगा. आपका जितना जोर होगा उसकी उतनी ही तगडी
प्रतिक्रिया होगी. साधारण उदाहरण ही लीजिए - कोई पिक्चर “A” सर्टीफिकेट पा गई हो तो बड़े देखें न देखें, पर
बच्चे इसे जरूर देखेंगे कि इसमें ऐसा है क्य़ा ? शायद आतुरता और उत्सुकता उन्हें वहाँ खीच लाती है.
ऐसा भी नहीं है कि दक्षिण भारतीय हिंदी समझते
नहीं हैं. यदि ऐसा होता तो हिंदी फिल्में दक्षिण भारत में चल नहीं पातीं – लेकिन
माजरा यहाँ उल्टा ही है- दक्षिण भारत में हिंदी फिल्मों का क्रेज है.
इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हम अंग्रेजी की
अवहेलना कर हिंदी को आगे बढाएं. जहाँ अंग्रेजी हिंदी का स्थान नहीं ले सकती वहाँ
निश्चित रूप से हिंदी भी अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकती.
हम आए दिन हिंदी को तहे दिल से रोजमर्रा में
अपनाने का प्रण लेते रहते हैं लेकिन इन्हें राजभाषा दिवस – पखवाड़े या महीने तक ही
सीमित रखना हमारी आदत बन गई है. राजभाषा तक सीमित हिंदी को अब असीमित करना होगा.
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Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
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Published Eight books in Hindi containing Poetry, Short stories, Currect topics, Essays, analysis etc. All are available on www.Amazon.in/books with names Rangraj Iyengar & रंगराज अयंगर
बुधवार, 14 सितंबर 2011
कंधे
कंधे
कंधे रगड़कर नहीं,
कंधे मिला कर चलो,
प्रगति तेरी मेरी
नहीं हमारी समझकर चलो,
व्यक्ति नहीं, समाज
देश की सोचो,
बराबरी पर टकराओ
नहीं, साथ ले-दे कर चलो.
किसी ने तुमको रौंदा
है, उसे तुम रौंदना चाहो,
जो तुमने झेल रक्खा
है, उसे भी झेल जाने दो,
सही है,लौह ही तो
लौह को काटे, न्यायसंगत है,
कुत्ता काट ले तो,
मैं उसे भी काट लेता हूँ.
फिर यदि मैं आदमी
हूँ, तो वह कुत्ता क्यों?
कंधों का सहारा तो,
फिर भी मिल ही जाएगा,
भले डोली में बैठी हो
या हो जनाजे पर,
न हो पांवों मे ताकत
तो बैसाखी चलेंगी,
लिए सहारा इन्हीं
कंधों का,
सँभालो इन सहारों को,
रगड़कर नाश मत कर दो,
पा लेने दो खुद को
अंतिम सवारी,
इन्हीं कंधों की.
एम.आर. अयंगर.
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मंगलवार, 13 सितंबर 2011
शहंशाह
शहंशाह
हर
शाह को,
शहंशाह
बनने की,
तमन्ना
तो होती है.
समय
को चीर होती है,
मगर
ढाढस नहीं होता,
इसी
से पीर होती है.
समय
मौसम देश पढ़-पढ़ कर,
मौका
एक तलाशा जाए, कि
तरकश
से निकलकर तीर,
लक्ष्य
को भेदे बिना,
वापस
न आए.
निशाना
साधकर, गर समझकर,
तीर, कमान से छोड़ा जाए, तो
क्या
मजाल कि लक्ष्य
धराशायी
न हो जाए.
जोश,
यह हर जवानी की अमानत है,
मदहोश,
यह किस तरह की जियारत है?
इन
हालातों में अक्ल पर नकाब चढ़ जाए,
फिर
जमाने की हालातों को, वे
न
पढ पाएं.
वक्त
के आगे हर इंसान बौना नजर आए,
वक्त
के बिन साथ कोई कुछ न कर पाए.
एम.आर.अयंगर.
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शनिवार, 2 जुलाई 2011
अस्तित्व का सवाल
अदृश्य के अस्तित्व का सवाल
मुझे पूजा पाठ की आदत नहीं है, न ही मैं मंदिर जाने का आदी हूँ. यह कहना गलत नहीं होगा कि मैं पूजा के लिए मंदिर जाना पसंद नहीं करता. इसलिए नहीं कि मुझे उसमें आस्था नहीं है बल्कि इसलिए कि यह तरीका मुझे पसंद नहीं है. मूर्ति पूजा करने से शायद अच्छा है कि उसी रकम से या उसी समय में किसी गरीब की सेवा की जाए - ऐसी मेरी मान्यता है.
अब तक न जानें कितनी बार कितने लोगों ने जानना चाहा कि मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक ? समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दूँ और यह भी जान नहीं पाया कि लोग मुझसे क्या जानना चाहते हैं ? कभी-कभी लोगों के तर्क सुनकर ऐसा लगा कि उन्हें सही मायने में आस्तिक और नास्तिक की सही परिभाषा ही पता नहीं है.
जहाँ तक मेरी समझ जाती है, आस्तिक वह है जिसकी ईश्वर, परमेश्वर, भगवान रब, खुदा, वाहेगुरु एवं समतुल्यों पर श्रद्धा है. जिसे यह श्रद्धा नहीं है वह नास्तिक है. नास्तिक भगवान के अस्तित्व को ही नकारता है. श्रद्धा का मतलब यह नहीं कि प्रतिदिन मंदिर में फेरे लगाता फिरे. श्रद्धा के कई तरीके होते है. सबके अपने अपने तरीके होंगे – तरीकों का कोई महत्व नहीं – श्रद्धा होनी चाहिए.
अब बात आती है कि जिन सब के प्रति श्रद्धा की बात की जा रही हैं – क्या हैं ? कोई रूप है, कोई ताकत है उसकी परिभाषा क्या है.
समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं.
घर में हम बच्चों को सिखाते हैं – “चोरी मत करना”. किसी की चीज बिना बताए लेना पाप है. पहले पूछ लो फिर लो, चाहे थोड़ी देर के लिए ही क्यों न हो. ऐसा क्यों ? शायद इसलिए कि अंतरात्मा समझती है कि यह वस्तु किसी दूसरे के उपार्जन की है और उस पर उसी का अधिकार होना न्यायसंगत है. यदि उस वस्तु को आप अपना बना लो तो, मूल अधिकार वाले व्यक्ति को आपकी वजह से दुख होता है. वह आपको कोसेगा. शायद इसका कहीं न कहीं आभास है (या कहिए दिल में चोर छुपा है) कि उसके कोसने से हमें / आपको तकलीफ होगी, अन्यथा उसके कोसने से हम (या बद्-दुआ से) क्यों डरें ?
जवाब अक्सर मिलता था – “पापा उसे पता ही नहीं है कि यह मेरे पास है / मैंने लिया है”. हमारे पास जवाब तैयार है - ठीक है – इस तरह उसे तो इसका पता नहीं चलेगा कि किसकी वजह से दुख हो रहा है, पर दुख तो होगा ही और वह दुखी करने वाले को तो कोसेगा.
अब सवाल यह कि बच्चे को कैसे समझाया जाए – जवाब में एक नुस्खा अपनाया जाता है – बेटा, उसने तो नहीं देखा पर वह ऊपर वाला है ना, वह सबको देखता है और सब कुछ देखता है. उसे पता है कि चीज तुमने उठाई है और इसीलिए उसकी बद्-दुआ तुमको ही लगेगी.
शायद इसी तरह उस अद्भुत शक्ति का अभ्युदय हुआ. धीरे धीरे इसके साथ अन्य बुराईयों एवं कुरीतियों को जोड़ दिया गया कि समाज में वे घर न कर सकें.
आदमी ने अपने सह-आदमियों को नियंत्रित रखने के लिए और बुरी आदतों से दूर रख सदाचारी बनाने की खातिर, इस भगवान रूपी ताकत को ईजाद कर लिया. सबको डर पैदा हो गया कि ऐसे गलत काम करने से नरक मिलेगा और वहां यातनाएं मिलेंगी. अपना अगला जन्म खुशी से बिताने की लालच में वह इस जन्म में अच्छे कर्म करने की सोचता. अगला जन्म भी कोई चीज है, इसकी पक्की खबर तो आज भी किसी को नहीं है. इस पर भी खी तरह के वाद-विवाद संभव हैं.
अपनी जिम्मेदारियाँ एवं अधिकार “उस” को सौंपकर चैन की जिंदगी जीने के लिए ही शायद इंसान ने भगवान की कल्पना की. इससे सुख और दुख दोनों ही स्तिथियाँ उसी की देन कह - समझकर, भाग्य में बदा कहकर अपना लिया जाता है. उस शक्ति के आगे समर्पण यह भाव उत्पन्न करता है कि जो हुआ वही होना था. ‘लाख कोशिशों के बाद भी इसे बदलना’ संभव नहीं था. ऐसे समझने से दुख कम हो जाता है क्योंकि अपनी हार या ना-काबीलियत को आसानी से छुपाया जा सकता है. इस तरह आदमी अपनी जीत की खुशी और हार का गम “उसके” सुपुर्द कर देता है.
इसी तरह के नियंत्रण तंत्र को लोगों ने धर्म का नाम दे डाला. इससे कई लोग धर्म के रास्ते चलने लगे. रामराज्य में इनके बिना भी जिंदगी ऐशो-आराम से चल सकती थी, चली - क्योंकि उस समय समाज संपन्न था. इसीलिए कुरीतियों मे फँसे लोग शायद कम थे, जो थे आदतन थे. उनको भौतिक सजा मिल जाती थी.
विज्ञान ने इसे ललकारा और कहा कि - आदमी खुद अपना भाग्य विधाता है. कर्म करो और फल पाओ. भाग्य की स्लेट कोरी लेकर पैदा होता है और उसके कर्म की लेख उस पर खुद लिखता है. उसने एक हद तक गीता सार को भी ललकारा. गीता में कहा गया है कि कर्म करो, तो फल मिलेगा लेकिन इसकी अपेक्षा मत करना.
कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन,
माकर्मफलहेतुर्भू, मासंगोस्तु विकर्मणि.
गीता प्रेस गोरखपुर के पुस्तक “श्रीकृष्ण विज्ञान” गीता के हिंदी पद्यानुवाद में इसका हिंदी रूपांतरण नीचे दिया गया है.
कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान,
जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान.
विद्युत विभाग में यूनिवर्सल अर्थ की फिलॉसफी है जिसके अनुरूप अर्थ (धरती) को यूनिवर्सल सोर्स और सिंक ( Universal Source and Sink) दोंनों रूप में जाना जाता है. इसकी तुलना सागर से की जा सकती है. पानी के लिए उसे यूनिवर्सल सोर्स और सिंक माना जा सकता है. वैसे ही थर्मल अभियांत्रिकी में ब्लॆक बॉड़ी (Black body) को विकिरण (रेडिएशन) के लिए ऐसा ही पदार्थ माना गया है. इसी तरह इंसान की जिंदगी में “लक – भाग्य – तकदीर” को यूनिवर्सल सा करार दिया गया है, जिसका सीधा कंट्रोल उस “अदृश्य-ताकत” को दिया गया है. जब भी किसी सवाल का हल न मिले यानि कारण का पता न चले तो आप बे-झिझक कह दीजिए कि यह तो केवल लक है. इस लक का ही दूसरा नाम तकदीर है जो वही “ऊपरवाला” (भगवान) लिखता है
मानव के व्यवहार पर इसी तरह के कई नियंत्रणों का समावेश कर मानव धर्म का रूप दे दिया गया. और वे धीरे धीरे मानव चरित्र या मानव मूल्य कहलाने लगे. धर्म या मजहब इन्हीं नियंत्रण प्रणालियों के नाम हैं या यों कहिए कि सारे मजहब उस महाशक्ति के किसी न किसी रूप के इर्द गिर्द घूमते है. सारे मजहब उस महाशक्ति को किसी न किसी रूप में स्वीकारते हैं. कोई धर्म महाशक्ति के अस्तित्व को नहीं नकारता. पहले निराकार भगवान की प्रतिष्ठा की गई होगी और धर्म के पुजारियों ने आपस की होड़ में इसे अलग अलग रूप देने शुरु कर दिए होंगे. धर्म के पुजारियों के जीवन यापन के लिए भी भगवान पर मानव का विश्वास जरूरी था. धीरे धीरे अलगाव वादी ताकतों नें आस्थाओं में फर्क डालकर अलग अलग धर्म बना लिए. विभिन्न धर्म बनाए गए होंगे और अपना-अपना धंधा बढ़ाने के लिए उनने आपस में विभिन्न धर्मानुयायियों के बीच तकरार भी पैदा की होगी. अंतत: यह अंतर्धार्मिक प्रतियोगिता का कारण बना.
धीरे धीरे सामयिक हालातों ने जाने अन्जाने मनुष्य को इनसे परे हटने के,लिए मजबूर किया. जो मानव मूल्यों के ह्रास के शुरुआत के रूप में लिया जा सकता है.
जब मजबूरियाँ बढ़ने लगीं और मानव मूल्यों का पूर्ण पालन असंभव सा हो गया तो एक नई प्रणाली आई – प्रबंधन (Management). इस विधा में काम का तरीका कोई मायने नहीं रखता, केवल काम निकालना मायने रखता है और इसी की अहमियत है. इस नई प्रणाली ने मानव मूल्यों को ताक पर रखने का नया रास्ता सुझा दिया. जिसे जो भाया – किया.
अब समय बदला है, सम्पन्नता खत्म ही हो गई है. लोग मजबूरी में, जीवन यापन के लिए कुरीतियों को बाध्य हो रहे है. अब बच्चा अपने दोस्त की पेन्सिल उठा लाता है. मैं उसे नई पेन्सिल देने के काबिल नहीं हूँ , इस लिए चुप रह जाता हूँ.
मैं उसे चोरी करने को तो नहीं कहता, पर चोरी नहीं करने के लिए भी कह नहीं पाता, क्योंकि बिना पेन्सिल के बच्चा पढ़ नहीं पाएगा. परोक्ष ही सही (अनजाने नहीं – जान-बूझकर), मैंने बच्चे के कुरीती को प्रोत्साहित किया है. कई अभिभावक ऐसे मिलेंगे जो मजबूरी में कार्यालय से लेखन सामग्री घर लाते हैं. अच्छे ओहदे वाले भी ऐसा करते मिलेंगे. इसलिए नहीं कि इन्हें खरीदने की काबीलियत उनमें नहीं है, बल्कि इसलिए कि इससे जो पैसे बचेंगे उसे कहीं और लगा कर जीवन का स्तर बढाया जा सकता है. कुछ लोग बिना वजह आदतन ऐसा करते हैं, उनके इरादे या नीयत, गलत नहीं होते, पर आदत होती है.
बच्चे कहते हैं मैने पूरी पढ़ाई की थी, पेपर भी अच्छे किए थे, पर फिर भी फेल हो गया. लक साथ नहीं दे रहा. क्या करें? हमारा तो “बेड-लक” था. कोई सामंजस्य नजर नहीं आता. पेपर अच्छे किए थे तो फेल कैसे हो गए? मतलब यह कि जाँचकर्ता ने गड़बड़ किया है. क्या यह आरोप नहीं है? चलिए, फिर भी रि-टोटलिंग या रि-वेल्युएशन तो हो ही सकता है. करा लीजिए. शायद बच्चा सही कह रहा हो यदि हाँ, तो पास हो जाएगा लेकिन उस पर भी कोई फर्क न पड़े तो ?
फिर कहेंगे यार अपना “बेड लक” खराब है. मतलब यह कि बेड-लक, तकदीर, भाग्य, चाँस यह सब उस मर्ज की दवा है जिसे इंसान या विज्ञान अपने बल पर खोज नहीं पाता. हर मर्ज की दवा- हर दर्द का दवा- बेड लक. ऐसा ही नहीं कि हमेशा बेड-लक ही होता है, कभी कभार गुडलक भी हो जाता है - पर इसकी संख्या काफी कम होती है.
मानव मूल्य या कहिए मानव धर्म और प्रबंधन आपस में टकराने लगे. समझौता होने लगा. लेकिन हद किसी ने न जानी कि कहाँ तक समझौता करना उचित है. उधर समाज के हालातों से लोग मजबूर होने लगे. फलस्वरूप प्रबंधन मानव मूल्यों पर हावी होता गया. इन हालातों की वजह से भी प्रबंधन को बढ़ावा मिला.
जो इस तरह के परिवर्तन को मान्यता दे नहीं सके वे उसूलों के जाल में फंस कर प्रबंधन को गले नहीं लगा सके और अंतत: समाज के प्रासंगिक होड़ में वे पिछड़ते गए.
आज प्रबंधन प्रणाली का पुरजोर है और वही सम-सामयिक भी है. इसी परिप्रेक्ष्य में जब समाज की मजबूरियाँ सिर चढ़ कर बोलने लगीं तो लोग प्रबंधन के तरीकों को अपनाकर, मानव मूल्यों से समझौता करते हुए, उस “अदृश्य-शक्ति” को धीरे धीरे भूलने लगे.
जब बात काफी बढ़ गई तो लोग अब तर्क करते हैं और तर्क देते हैं – “भगवान है या नहीं”. अब जब उस भगवान के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए गए तो अब किसी के आस्तिक या नास्तिक होने की चर्चा का क्या अस्तित्व है?
इस सवाल के सही अर्थ तो मैं यह समझता हूँ कि लोग जानना चाहते हैं –
“क्या अब मानव मूल्य शेष रह गए है?”
इतनी चर्चा के बाद मुझे लगता है इस सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं रह गई है. वैसे अब आप सक्षम हैं अपनी राय खुद तय करें...
एम.आर.अयंगर.
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