मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

सोशल मीडिया -- एक नया मंच

सोशल मीडिया पर लोगों को लिखने का एक नया मंच मिला है. लेकिन इस मंच पर बहुत अधिक सक्रिय होने के नुकसान भी है. आप को क्या लगता हैहम लाभ अधिक ले रहे हैं, या बस नुकसान झेल रहे हैं? ...................... अनूषा जैन.

सोशल मीडिया पर नफा या नुकसान... मूलतः यही सवाल है.

पहले यह समझें सोशल मीडिया किसे कहा जा रहा है.

यदि इंटरनेट संबंधी सभी कुछ इसके दायरे में हैं तो उत्तर एक होगा किंतु यदि फेसबुक, ट्विटर, मेसेंजर, और अन्य जैसे वाट्स-अप, स्काईप जैसे पटलों को ही कहा जा रहा है तो अलग उत्तर हो सकता है.

पहले केवल नेट की बात कर लेते हैं. यहाँ अथाह सूचनाएँ हैं जैसे बुजुर्ग कहा करता थे –

जानकारी कभी खराब नही होती वह तो ज्ञान है . हाँ उनका प्रयोग सही या गलत आँका जा सकता है. जैसे व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं होता.. उसके गुणो का प्रयोग होता है अच्छा या बुरा.

किसी भी विषय पर कुछ भी खोज लीजिए अक्सर नेट पर मिल ही जाता है और बहुतेरी जानकारी सही ही होती है. इससे बड़ा सर्टिफिकेट क्या दिया जा सकता है.

नेट में पढ़ने वालों के लिए जिस विषय में चाहें, इतनी सामग्री है कि जीवन भर चौबीसों घंटे पढ़ते रहने से भी पूरा नहीं हो पाएगा. आपको अपनी समझ से निर्णय लेकर पढ़ना पढ़ेगा... क्या पढ़ें क्या नहीं.

पुरानी व ज्ञान के तौर पर बहुमूल्य पुस्तकें भी नेट पर मिलती हैं. कई तो बाजार से परे हो गई हैं

कुछ बातें जो हम किसी भी कारण से चाहे गुप्त रखने के लिए या शर्म से किसी से पूछ नहीं पाते उनके लिए सबसे सुंदर भरोसेमंद जवाब है इंटरनेट.

बस आप निर्णय कीजिए करना क्या है... जरिया है इंटनेट.

आपकी मानसिकता सही है तो यह वरदान है अन्यथा यही अभिशाह साबित होने का माद्दा भी रखती है.

अब आते हें सोशल मीडिया पर...यानी फेसबुक, ट्विटर, मेसेंजर, और अन्य जैसे वाट्स-अप, स्काईप जैसे पटलों पर.

आज कल सोशल मीडिया में जिसे जो चाहे लिख रहा है. जिस तहजीब का वह चाहे, प्रदर्शन कर रहा है. इस लिए अक्सर लोगों को भाषा और तहजीब की शिकायत होती है. यदि आपके साथियों में से एक को भी ऐसे वक्तव्यों को लिखने या साझा करने की आदत है तो आप निश्चित ही इसके शिकार होंगे. यदि दिन में हरेक साथी एक वक्तव्य ही साझा करे तो माहौल बरबाद करने के लिए बहुत है. आप चाहें तो उस संपर्क को ब्लॉक कर सकते हैं लेकिन एक वकतव्य के लिए संपर्क को ब्लॉक करना भी भारी पड़ सकता है. अब आप मजबूर हैं निर्णय लेने के लिए.

लोग वक्तव्यों को सारे जहान के लिए साझा करते हैं, चाहे आप उनके संपर्क में हों या नहीं. आप अपने वक्तव्यों पर नियंत्रण रख सकते हैं कि कहाँ जाए या कहा नहीं किंतु अन्यों के वक्तव्य आने पर ही आप उन पर रोक लगाने की सोच सकते हैं. ऐसा प्रावधान नहीं बना कि इनके अलावा किसी के वक्तव्य मेरे पास न आएँ.

आप के पास वक्तव्यों पर टिप्पणी करने, पसंद करने व अन्य तरीकों से अपनी राय देने की सुविधा है. लोगों के बद-मिजाजी वक्तव्यों का आप जवाब तो दे सकते हैं किंतु उनकी भाषा के सामने आप टिक नहीं सकते. इसलिए कईयों ने तो इन मीड़िया से परहेज ही कर लिया है.

लोग ब्लॉग लिखते हैं. कईयों की मानसिकता देखने को मिलती है. कई अच्छे ब्लॉग भी पढ़ने में आते हैं. पर दूसरे तरह के भी बहुत हैं. क्योंकि सभी लिख सकते हैं मर्जी के मालिक हैं. हाँ इससे लोगों की संप्रेषण क्षमता बढ़ी है. सही उपयोग से यह कमाल कर सकती है. सूचनाएँ बिजली की गति से यहाँ से वहाँ पहुँचती हैं. खबरों का खुलासा फटाफट होने लगा है. अब संपादकीय पढ़ने वाले ही अक्सर अखबारों का इंतजार करते हैं.

एक बात और इस संप्रेषण के कारण लोग अपनी भाषा में लिखने लगे हैं. कुछ हद तक साक्षरता बढ़ी है. नए जमाने के मोबाईल में इन पटलों का प्रयोग करने के लिए कईयों ने लिखना तो नहीं पर टाईप करना तो जरूर सीख लिया है. हिंदी के क्षेत्र में अच्छी खासी प्रगति हुई है. कईयों के विचार उपलब्ध हो रहे हैं. ज्ञान का आदान प्रदान हो रहा है. यह अलग बात है कि सब बातें ही करते हैं पर जहाँ क्रियान्वयन की बात आती है तो सब नदारद हो जाते हैं. यह तो मानसिकता की कमी है. नेट इसमें कुछ नहीं कर सकता.

हमारे डिजिटल इंडिया ने अब सभी को सोशल मीडिया का सदस्य बना दिया है और इसके आड़ में अपनी खुशामदी सेना स्थपित कर रखी है जो उनके विपरीत कहने लिखने वाले की नृशंस चित्र-हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. उनकी भाषा व तहजीब समझ से परे है और कोई भी शिक्षित उनसे बहस करना नहीं चाहेगा. इसी में उनकी जीत है क्योंकि इस तरह सोशल मीड़िया पर उनकी ही बात रहती है और जन साधारण आसानी से बेवकूफ बनकर उनकी तरफ झुक जाती है. खासकर अगले चुनाव बताएँगे कि जनता ने इसे किस प्रकार समझा.

खबरें बहुत जल्दी मिलने लगीं हैं. इसका बहुत ज्यादा फायदा उठाया जा सकता था लेकिन खबरों की गुणवत्ता तो रसातल तक पहुँचा दी गई है, इस डिजिटल सेना द्वारा. वरना इसका फायदा तो बेमिसाल था. किसी की तारीफ करना हो, किसी को बदनाम करना हो तो ये लोग इसी मीडिया का सहारा लेते हैं. झूठी खबरों की दीवार खड़ी कर दी है, इस डिजिटल सेना ने.

इसी आशय पर कभी मैंने ही कहा था...

बरसों से चरितार्थ हो रही ,
जिसकी लाठी उसकी भैंस,
हाथ मेरे तलवार आ गई ,
और रह गया अब क्या शेष.

अपने परिजन की लाशों पर,
मैं भी महल बनाऊंगा,
जल क्यों, अब मैं खून पिऊंगा,
माँस भून कर खाऊंगा.

वीरों सा मैं मूर्ख नहीं,
ललकारूँ सीने वार करूँ,
घात लगा कर मात करूँ मैं,
पीठ के पीछे वार करूँ.

कीचड़ में मैं सना हुआ हूँ,
पंकज से मैं क्याकम हूँ,
ब्रह्मा विष्णु महेश समझ ना,
मैं तो बस देहरा यम हूँ.

सोशल मीडिया से नफा तो हो सकता था यदि इसका सही उपयोग किया जाता लेकिन जिस तरह प्रयोग हो रहा है उसमें गलत तत्वों की ही फायदा हो रहा है और बाकी जन साधारण को धोखे में रखने का एक सुगम जरिया बन गया है यह. हाँ अँतर्राष्ट्रीय खबरों के लिए यह आज भी उत्तम है. विभिन्न तरह की जानकारियों के लिए भी यह उत्तम है, बनिस्पत आप राजनीतिक पार्टियों की उत्सुकता वाली जानकारी न खोज रहे हों. यही मीड़िया राहुल  व केजरीवाल को बदनाम करने का प्रमुख साधन बन गया है. नेहरू व उनसे संबंधित सब कुछ को बदनाम करने को तुले हैं कुछ लोग. जिन्हें शायद काँग्रेस बिना भारत देखना है.

इसमें सत्यता की ओर कोई नहीं झाँकता. हम किसी की बुराईयों को कोसें, यह अधिकार तो है हमें. लेकिन उनकी अच्छाईयों को सराहना भी तो हमारा कर्तव्य है. उनकी क्या कहें जो इसी मीडिया में कह चले हैं कि गाँधीजी ने स्वतंत्रता को लिए कुछ नहीं किया .अब गोडसे का मंदिर बनाना है. यदि गाँधी को नहीं मारा होता तो... उनसे क्या बहस करें? और भाषा की क्या कहें... किसी को अपशब्द सीखना हो तो इनकी भाषा का सहारा ले सकता है.

लोग अनाप-शनाप बातें लिख रहे हैं और राजनीतिक फायदे के लिए राजनेता उनका प्रचार भी कर / करवा रहे हैं. विपक्ष को बदनाम करने का भी यह सर्वोत्तम जरिया बन गया है. राजनेता इस माध्यम पर कब्जा किए बैठे है. ज्यादातर चेनल तो बिके से लगते हैं. सच्चाई तो भगवान ही जाने.

अंततः कहा जा सकता है कि विज्ञान की तरह यह सूचना संचार क्राँति भी वरदान भी हो सकती है और अभिशाप भी ... सब निर्भर करता है कि हमारी मानसिकता पर जो हमें बाध्य करती है इनका तरह - तरह से उपयोग करने को.

अयंगर.

सोमवार, 7 नवंबर 2016

वे दिन

ववूबबबबब,
बगहजदज 
जदगहबीबहगट
वे दिन

बहुत याद आते हैं वे दिन,
नदिया के तीर
घाट की सीढ़ियों पर बैठे,
पांव से नीर को छलछलाते हुए,
हाथ, तुम्हारे बालों से खेलते हुए,
मीठी - मीठी तुकी बेतुकी बातें करते हुए,

दिन दोपहर और शामें बिताना,
वो दिन बहुत याद आते हैं.

तुम्हारी गर्दन पर मेरी उँगलियों का स्पर्श
तुम्हारी गालों पर ,
कभी मेरे हाथों का ,
तो कभी मेरे गालों का स्पर्श,
तुम्हारी लटें मेरे चेहरे पर, और
तुम्हारी उँगलियाँ मेरे बालों में खेलती,
घड़ियों के सुईयों की रफ्तार,
शताब्दि एक्सप्रेस को मात देती हुई,

रोकने की जी तोड़ कोशिशें,
नाकाम ही रहीं.

पता ही नहीं चला
कब बीत गए वो दिन,
ऐसे ही चलते चलते,
एक दिन हम पति-पत्नी बन गए,
तुम प्रियतमा से पत्नी बन गयी
और मैं बन गया पति,
जीवन के हमारे पात्र बदल गए,
हमारे जीवन के माय़ने बदल गए, ,
अब तुम और मैं खास नहीं रहे,
अब हमारे बच्चे ही खास हैं
वही हमारे भावी जीवन के आस हैं.







घाटगहमाचपूबबबबबबबसससवपर