मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

मेरा आठवाँ प्रकाशन  / MY Seventh PUBLICATIONS
मेरे प्रकाशन / MY PUBLICATIONS. दाईं तरफ के चित्रों पर क्लिक करके पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैंं।

रविवार, 10 मार्च 2024

सफेद सदाबहार

 

 

सफेद सदाबहार


इस बार जब मैं प्रवास पर गया तब छत्तीसगढ़ के एक गाँव कोरबी में मेरे एक दोस्त के घर मुझे सफेद फूल वाला सदाबहार का पौधा दिखा।

मैं बहुत समय से सफेद सदाबहार के पौधे की तलाश में था। मेरे पास जामुनी सदाबहार फूल का पौधा बहुत समय से है।

ऐसा सुना है कि इन पौधों की पांच पत्तियाँ या फूल चबाकर रोज सुबह खाली पेट खाने से डायबिटीज की बीमारी समूल नष्ट हो जाती है और मरीज को उस बीमारी से सर्वदा के लिए मुक्ति मिल जाती है। मैं भी डायाबेटिक हूँ, पर यह बात और है कि मैंने एक दिन भी इसे नहीं खाया। मैंने एक दो बार सफेद फूल के सदाबहार का पौधा लगाया पर बचा नहीं पाया। 



सफेद सदाबहार के पौधे को देखते ही मुझे लगा कि इसे ले जा सकूँ तो अच्छा रहेगा। मैंने नजर दौड़ाया कि उस बगीचे में ऐसा दूसरा पौधा है या नहीं। दूर एक कोने में इससे बड़ा एक पौधा नजर आया।

मैंने अपने दोस्त से उसे ले जाने की इच्छा जाहिर की। उसने कहा ले जाइए , ऐसे और भी पौधे हैं।

गाँव से लौटते समय पहला फरवरी को मैंने दोस्त से कहकर उस पौधे को मिट्टी सहित निकलवा कर एक पोलीथीन की थैली में नमी सहित ले लिया।

वहाँ से मैं सड़क मार्ग पर बिलासपुर आया और दो दिन रुका। इस बीच पौधे को बाहर हवा में रखा और नमी पर ध्यान देता रहा। साथ की मिट्टी पीली मिट्टी थी, इसलिए नमी कम पड़ते ही पौधे की जड़ से अलग हो जाती थी।

दो दिन बाद मैं वहां से ट्रेन की ए सी बोगी में नागपुर आ गया। पौधे की मिट्टी को नमी देने का पूरा-पूरा ख्याल रखा गया। पर पौधा कमजोर होता दिखा।

नागपुर पहुँचते ही मैंने पौधे को पोलीथीन से निकाल कर मिट्टी सहित वहाँ के एक गमले में रख दिया, रोपा नहीं। वहाँ मैं करीब आठ दिन रुका। हर दिन पौधे को पानी देता रहा, पर पौधे में जान आती नहीं दिखी, कम ही हो रही थी। अब मुझे डर सा लगने लगा कि क्या पौधा मेरे बगीचे तक सही सलामत जा पाएगा या बीच में ही दम तोड़ देगा?

डरते-डरते, पर पूरा ख्याल रखते हुए मैं फिर ट्रेन की ए सी बोगी में पौधे को हैदराबाद ले आया। अब तक पौधे की जान सूखती सी लगी। अब लगने लगा कि पौधे को बचाना मुझसे नहीं हो पाएगा। फिर भी मैंने बिना समय गँवाए पहुँचते ही पौधे को पोलीथीन से निकालकर, खाद डालकर तैयार रखे एक नए गमले में उसकी अपनी मिट्टी के साथ लगा दिया। अब उसको पानी देना एक नित्य कर्तव्य बन गया। हर दिन सुबह शाम देखा करता कि उसमें जान लौट रही है या नहीं। किंतु उम्मीदों पर पानी फिरता नजर आने लगा। मैं हिम्मत रखकर उसे बराबर पानी देता रहा और रोज देखता रहा। मेरी नजर कहने लगी कि अब पौधे में कमजोरी आनी कम हो गई है। फिर लगा कमजोरी रुक गई है। अब करीब 20 दिन बाद लगने लगा है कि पौधे में जान आ रही है। पता नहीं पौधे को सामान्य होने में और कितना समय लगेगा। आज 10 मार्च  को करीब  40 दिन बाद पौधे में पूरी जान आई और पहला फूल खिला। हालांकि पूल छोटा है पर है तन्दुरुस्त। 

इस पूरी दास्तान को अनुभव से मेरे मन में बात आई कि एक पौधा अपनी जमीन से अलग होकर पूरी शिद्दत से ख्याल करने पर भी सँभलने में इतना समय ले सकता है और इतनी तकलीफ झेलता है तो हाड़ माँस की बनी ईश्वर द्वारा दिलो दिमाग सहित बनाई बहू को बिदाई के बाद ससुराल मैं खुद को सँभालकर सामान्य होने में क्या क्या और कितना झेलना पड़ता होगा।

ससुराल में आने पर उनका विशेष ख्याल भी तो नहीं हो पाता।।


-----