स्व
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थे कई सपने सँजोए बालपन में,
आकार उम्मीदों का देखा आज मैंने,
कल का पत्थर आज मिट्टी हो चुका है,
दिन भी देखा रात जैसा आज मैंने।
इस स्वराज में किनका स्व है ?
इस स्वतंत्र में किनका स्व है ?
पुस्तकों में जो पढ़ा वह ज्ञान मेरा,
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र में,
तंत्र लोगों का ही होना चाहिए था,
समय ने मुझको दिया ना राज जीने,
राज कितना भिन्न है स्वराज से,
वे बताएँ, जिनने जिए हैं राज दोनों।
उस पार जिनकी कर रहे थे भर्त्सना,
आज खुद उनको ये कैसे जी रहे हैं।
सूर्य कितना तेज भी हो, और
हिम पिघलता जाए जिससे
गंगा में आए बाढ़, फिर भी
हिमालय घटता नहीं है
दम्भ था जिन बाजुओं पर,
आज कंधे बोझ से वे दब गए हैं,
जो अटल थे, वो मुलायम हो गए हैं,
वीतरागों से निकलती भावनाएँ,
आज किस-किस को समर्पित हो गई हैं।
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