मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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रविवार, 6 नवंबर 2011

बचपन की सीख


बचपन की सीख

वे दिन भी कितने सुहाने होते हैं, जब जिम्मेदारी नाम की चिड़िया दूर दूर तक भी नजर नहीं आती. सुबह उठो, नहओ धोओ, नाश्ता करो, होम वर्क करो. फिर स्कूल जाओ, क्लास में पढाई और फुरसत में शरारतें करो. किसी भी बात की न कोई चिंता होती, न कोई फिक्र. किसी भी चीज की जरूरत हो तो मम्मी पापा जिंदाबाद.

ऐसे ही उम्र में किए जाने वाली एक शरारत ने मेरे दोस्त की जिंदगी पर गहरा असर किया.

रोज शाम मुहल्ले के एक बुजुर्ग अध्यापक टहलने निकलते थे. रिटायर तो हो ही चुके थे. उम्र भी कोई 65 – 70  की हो रही होगी. वे बच्चों को बहुत चाहते थे. रास्ते में रुक रुक कर वे बच्चों से बातों करते, उनको हंसाते रहते थे. लेकिन बच्चे तो बच्चे. शैतानी तो करते ही थे.

रोज शाम जब गुरुजी उस तरफ आते, तो सारे बच्चे अपनी अपनी जगह से चीख कर कहते –
नमस्ते गुरुजी. गुरुजी भी पलट कर अभिवादन का जवाब देते. बच्चे तब तक दूसरी ही तैयारी में होते. गुरुजी के वापस पलटने की देर होती और बच्चे एकजुट होकर चिल्लाते – हम नहीं समझते गुरुजी. पर गुरुजी इसे नजरंदाज कर आगे बढ़ जाते.

बच्चों के लिए यह एक खेल हो गया. रोज रोज का गुरुजी को कहना –

नमस्ते गुरुजी... हम नहीं समझते गुरुजी.

और गुरुजी का पुनराभिवादन एवं नजरंदाज करके बढ़ जाना.

मोहल्ले के बड़े लड़के भी इसे देखते थे. कभी कभी उन्हें भी शरारत सूझती थी.
एक छुट्टी वाले दिन एक 12-13 साल के बच्चे को न जाने क्या सूझी – उस दिन उसने बच्चों की तरह गुरुजी का अभिवादन किया. गुरुजी ने भी पुनराभिवादन किया. तुरंत बहाव में उसने फिर कहा – हम नहीं समझते गुरुजी.

गुरुजी को भी न जाने क्या सूझी. शायद बच्चों के मुख से सुनने वाले शब्द बड़े बच्चे के मुख से सुनना शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा. उनके चेहरे पर गुस्सा नजर आ रहा था.

वे उस बड़े बच्चे के पास वापस आए. बच्चा डर गया, कि गुरुजी पिटाई करेंगे. लेकिन नहीं. गुरुजी ने ऐसा नहीं किया. पास आकर उन्होंने बच्चे से कहा-

क्या कहा?  हम नहीं समझते गुरुजी. अरे जिसने अपने माँ बाप को नहीं समझा वो हमको क्या समझेंगे?

कहकर गुरुजी तो अपनी राह चल दिए. पर बच्चा बेचारा यह समझने की कोशिश में लगा रहा कि गुस्से में गुरुजी क्या कह गए?

उसका मन उद्वेलित हो गया और इस पेशोपेश में उसका मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था.

देर रात जब मन शांत हुआ, तब उसे समझ में आया कि गुरुजी ने क्या कह दिया.

उसे अपने आप पर घृणा होने लगी कि मैंने ऐसा क्यों किया. शर्म के मारे पानी पानी हो गया.

लेकिन उसे जिंदगी की सीख मिल गई और कभी उसने अपने बड़ों से मजाक न करने की ठान ली. यह उसके जीवन के लिए बचपन की सीख थी.

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एम.आर.अयंगर.