सामाजिक पोर्टल
सेवा निवृत्त लोगों को यदि
चुनाव करने को कहा जाए तो शायद देश का सबसे लोक प्रिय नेता के नाम पर महात्मा
गाँधी या फिर सरदार वल्लभ भाई पटेल को चुना जाएगा. स्वतंत्रता के तुरंत बाद गाँधी
जी ने ही काँग्रेस के विलय की घोषणा के लिए कहा था किंतु उसी काँग्रेस ने गाँधी के
नाम पर बहुत वाह वाही लूटी. अब गाँधी के नाम से बाजार में बहुत से सिद्धांत आ गए
हैं. पता नहीं वे गाँधी जी के ही हैं या उनके नाम का बाजारीकरण हो गया है. यदि कुछ
बच गया है तो गाँधी मार्का अल्कोहलिक पेय – जो लगता है ऐसे माहौल में जल्द ही आने वाला
है.
आज के जनमानस का मनोभाव पुराने
नेताओं से हट गया है. पुराने नेता इन्हें गलत लगते हैं. खासतौर पर काँग्रेस से
जुड़े नेताओं की धज्जियाँ उड़ाना आज का फैशन हो गया है. चाहे वह गाँधी हो, नेहरू
या कोई और. खूबियाँ केवल उनकी गिनाई जाती हैं जो कभी आज के भाजपा या उनके पुरखों
से जुड़े रहे है. या फिर आज की सरकार के अंधभक्त हों. गाँधी और नेहरू उनके खास
निशाने पर हैं. और कोई है तो बस गाँधी परिवार.
गौर फरमाया जाए तो आज की सरकार
का यही चुनावी मुद्दा था. काँग्रेस रहित भारत. जैसे गरीबी हटाने के लिए गरीब को हटाने
की प्रक्रिया हुई, उसी तरह काँग्रेस को हटाने के लिए काँग्रेसियों को हटाने की
प्रक्रिया चल रही है. और स्वाभाविक है कि काँग्रेसियों के प्रमुख के रूप में गाँधी
और नेहरू के नाम आएँगे ही. वैसे खबर तो यह है कि गाँधी जी ने कभी भी किसी भी
राजनीतिक पार्टी की सदस्यता नहीं ली थी.
जहाँ गाँधी को विश्व, युग - पुरुष मानता है वहाँ आज का सामाजिक मीडिया तो गाँधी को नकारता है. पता नहीं कहाँ से ढूँढकर लाते हैं कि गाँधी ने इतने और ये - ये कुकर्म किए हैं. बेचारे गाँधी तो रहे नहीं कि सफाई देते रहें और तो और उनके जमाने के लोग कई तो चले गए और जो कुछ हैं तो वे कहने लायक ही नहीं रहे जिरह और बचाव क्या करेंगे.
इन नए जमाने की फसल के लिए
गोडसे ही अवतार पुरुष से हैं. उनकी करनी को ये सराहते हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि
यदि गाँधी को गोड़से ने नहीं मारा होता तो सारा देश पाकिस्तान में मिल गया होता.
यदि पहले मार दिया होता तो आज भी भारत अखंड होता... अखंड भारत के कल्पना वालों की
ये सोच अब जाहिर हो रही है. कहते हैं भगत सिंह की फाँसी को गाँधी रोक सकते थे
किंतु उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा. आज लोग तो यह भी कह चुके हैं कि
स्वतंत्रता के समय जब लोग खुशी मनाने लाल किले पर झंडा फहरा रहे थे तो गाँधी जी
कहीं नोआखली में छुप कर बैठ गए थे. लोग तो वीर सावरकर को भी देश द्रोही करार देने
की बात करते हैं. पता नहीं इनको ये विचार कहाँ से आते हैं और इनका मन इन पर कैसे
सहमति प्रदान करता है.
गाँधी जी हमेशा अहिंसा के
पक्षपाती थे. उनका तो मानना ही था कि अहिंसा के अस्त्र हिंसक मारकों से भी काफी
पैने होते हैं, असरदार होते हैं. उनका असर बहुत समय तक बरकरार रहता है. बस संयम की
आवश्यकता है फिर देखो आप अहिंसा के अस्त्रों का असर. उन्होंने अपने जीवन काल में
अहिंसा के कई प्रयोग किए. कईयों का मानना है कि इसी अहिंसा ने अंग्रेजों को
खदेड़ा. आज जैसे कहा जा रहा है कि इसके
विपरीत एक दल और था जो कहता और मानता था कि गाँधी जी के अहिंसा से कुछ होने वाला
नहीं है, इससे अंग्रेजों की मोटी चमड़ी पर कोई असर होने वाला नहीं है. उस पर
धारदार हथियार ही कामयाब होंगे. इस तरह दोनों दल अपनी - अपनी ढपली बजाते थे, अपना
- अपना राग अलापते थे. दोनों में एक दूसरे पर कोई भरोसा नहीं था.
किंतु आज के
सामाजिक मीड़िया पर फैलाया जा रहा है कि देश गाँधी की अहिंसा से नहीं बल्कि, सुभाष
और भगतसिंह के हिंसक मारकों से आजाद हुआ है. अंग्रेज गरम दल से भाग खड़े हुए. सच
तो यह है कि गाँधी की अहिंसा और भगतसिंह के गरम दल का खौफ दोनों ने मिलकर
अंग्रेजों को कहीं का नहीं रहने दिया. वे दोनों तरफ से घेरे गए.
गाँधी
जी का मानना था कि यदि कोई आपके एक गाल पर चपत लगाता है तो तुरंत उसके आगे दूसरा
गाल कर दो. वह शर्मसार हो जाएगा. तब की तो बात सही थी, किंतु अब ऐसा किया जाए तो
निश्चित ही दूसरे गाल पर चपत तो नहीं किंतु मुक्का जरूर लगेगा और सब उसे बेवकूफ
करार दे देंगे – वो अलग. गाँधी जी का काल और आज का काल बहुत भिन्न है. तब हमारे
यहाँ पूर्वी सभ्यता थी आज पश्चिमी सभ्यता हावी है. लोग बदले हैं, लोगों की सोच
बदली है. रहन सहन, खाने पीने हर चीज के तौर तरीके बदले हैं. तो इस बदले समाज में
गाँधी जी के समय के सिद्धांत किस तरह फिट होंगे ? यदि लोग
गाँधी जी के सिद्धांतों का मूल्यन आज के परिवेश व परिप्रेक्ष्य में करें तो नतीजा
शून्य के अलावा कुछ नहीं होगा.
दूसरा
असरदार चेहरा जिस पर आज देश हमला कर रहा है वह है जवाहर लाल नेहरू. कहा जा रहा है
कि नेहरू अंग्रेजों के पिट्टू थे. लेड़ी माउंट बेटन का प्रसंग बार बार आता है उनकी
सिगरेट सुलगाते हुए नेहरू जी की फोटो बहुत बार देखी है. लेकिन उनके द्वारा स्थापित
किए गए सार्वजनिक उपक्रम जो हमारे देश के औद्योगीकरण की नींव हैं को कोई नहीं
सराहता. देश में गरीबी और बेरोजगारी की समस्या से निपटने का प्रथम समाधान तो यही था.
उस समय यह कार्यप्रणाली काफी हद तक सफल भी हुई. जनसंख्या की बाढ़ के आगे इन
प्रणालियों ने घुटने टेक दिए और अंत में प्राणहीन हो गए. निरक्षरता के कारण
जनसंख्या पर नियंत्रण बे असर रहा. इसी बाढ़ ने बेरोजगारी को अत्यधिक उलझा दिया,
जिसके कारण गरीबी एक भयंकर अभिशाप का रूप धारण कर गई.
एक
समय आया जब पढ़े लिखे लोग, खासकर युवा, बेरोजगारी की मार से बचने के लिए पश्चिम देशों
में नौकरी की तलाश में भागने लगे. कौड़ियों के मोल उनने वहाँ नौकरियाँ की और देश
में अपने परिवार का पेट पाला. मौका मिलते ही वे अपने परिवार के साथ परदेशी बन गए. कितने
विद्वान् नागरिक इस तरह विदेशों मे जा बसे. एक तरफ गरीबी, बेरोजगारी और दूसरी तरफ
पढ़े लिखे लोगों का पलायन देश के आगे भयंकर समस्या थी. देश की गरीबी और बेरोजगारी
ने मिलकर पेट की आग से झुलसाया, जिससे लोगों का मान डोल गया. इसके कारण तरह तरह की
समस्याएं उत्पन्न हो गई. इसी भूख ने आजादी के बाद ही हिंसा को बढ़ावा दिया और गाँधी जी के अहिंसा
सूत्र धरे रह गए.
शायद
काँग्रेसी नेताओँ की सराहना करने पर बैन है क्योंकि देश को काँग्रेस मुक्त बनाना
है. दोनों नेताओं ने हो सकता है कुछ गलत काम भी किए होंगे या कुछ के नतीजे गलत आए
होंगे लेकिन ऐसा तो न हीं कि उन्होंने गलत काम ही किए हैं. यदि ऐसा था तो देश की
सारी जनता उनका गुणगान क्यों करती थी. सब के सब तो अँध भक्त नहीं हो सकते ना.
चलिए
जिरह के लिए मान लिया दोनों ही गलत थे. तो क्या काँग्रेस का कोई नेता अच्छा नहीं
रहा. राधाकृष्मन, राजेंद्रप्रसाद, नरसिंहाराव, मनमोहन सिंह, लाल बहादुर शास्त्री,
मदन मोहन मालवीय ऐसे और बहुत थे. लेकिन इस समाजिक पोर्टल वालों ने कभी किसी की
प्रशंसा नहीं की. शायद आज के या पुराने भाजपा से जुड़े हस्तियाँ ही देश के कर्णधार
थे. जिनकी ये प्रशंसा करते हैं. मेरा मानना है कि आपको किसी की बुराईयों पर तंज
कसने का अधिकार तभी मिलता है जब आप उनकी अच्छाईयों की प्रशंसा कर सको. आज गोड़से
को लोग भगवान मानने लगे हैं. उनकी मूर्तिस्थापना की बातें भी सामने आई हैं.
अब के
बदले हालात में देश के नागरिक पश्चिमी देशों में नौकरियाँ कर वहाँ से धऩ ला रहे
हैं साथ में वहाँ की सभ्यता भी लेकर आ रहे हैं. अपनी सभ्यता का तो किसी को खयाल ही
नहीं है. वहाँ गाँधी के सिद्धान्त क्या काम आएँगे. और आजके परिप्रेक्ष्य में
मूल्यन किया जाए तो उन सिद्धान्तों का क्या मूल्य बचेगा. इसका तात्पर्य यह कदापि
नहीं कि गाँधी के सिद्धान्त गलत हैं... हाँ वे बदले हुए सामाजिक परिस्थितियों में
उपयोगी नहीं हैं. जैसे जो पेंट मेरे दादाजी पहनते थे वह मैं आज साईज ठीक होने के
बाद भी पहन नहीं सकता जिसके और बहुत से कारण हैं..
यदि
किसी ने किसी परीक्षा में पचास बरस पहले 85 % अंक पाए हों तो उसी
परीक्षा में वह शायद आज 45 % अंक भी न पा सके. इसके मतलब
यह नहीं कि उसकी पढ़ाई बेकार थी. हाँ इस बदले हुए समय में उनकी पढ़ाई की तुलना आज
की पढ़ाई से नहीं की जा सकती.
आज
सामाजिक मीडिया में किसी ने गाँधी को नहीं सराहा जैसे उनने सारे काम ही गलत किए
हैं. उनके कर्मों की गलत व्याख्या न जाने कहाँ से ढ़ूँढा जा रहा है. या फिर जिसके
द्वारा लिख कर प्रसारित कर रहे हैं उन्हें शायद कोई ज्ञान नहीं है कि वह किसके
कहने पर क्याकर रहे हैं. यदि आज के सामाजिक मीड़िया की मान लें तो गाँधी जी का
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान नगण्य था.
ऐसा
आभास तो होता ही है कि प्रस्तुत सरकार का चुनावी मुद्दा “काँग्रेस रहित भारत“ ही इन सबकी जड़ है. शायद सी मुहिम की पूर्ति के लिए यब सब किया जा रहा
है. हाँ बाबरी मस्जिद गिराते वक्त मौन धारण किए मौनी बाबा की प्रशंसा कभी कभी दबी
जुबान कर दी जजाती है.
कभी
छोटी उम्र में एक जुमला सुनते थे.. ‘इंदिरा ईज इंडिया’ पर अब मोदी को भगवान से भी बड़ा कर दिया गया है. आज देश में जहाँ अमिताभ बच्चन, जयललिता, सचिन
तेंदुलकर, मायावती व अन्य महापुरुषों की मंदिर बनाकर पूजा की जाती है. वहां गाँधी
नेहरू और पटेल का क्या काम.
सामाजिक
पोर्टलों पर पुराने श्रद्धेयों के प्रति जिस असभ्य भाषा का प्रयोग होता है वह तो सोच से भी परे है. शर्म आती है कि हम
कितने कृतघ्न हैं.
किसकी सुने कितनी सुने. बस अपनी बदकिस्मती समझकर चुप हो जाते हैं.
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