मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 6 सितंबर 2014

प्राकृतिक छटा

प्राकृतिक छटा

सबको सबक सिखाने वाली
हरे रंग की मतवाली डाली,
फूलों से जो महकाती है,
फल से लद कर झुक जाती है.

अपनी तरह से स्वच्छ बनातीं,
नदियाँ भर-भर पानी लातीं,
खेतों में हरियाली लाती,
अन्न सभी का भूख मिटाती.

कितने पर्वत सागर-तट हैं,
प्रकृति की माया अटपट है,
चंदा-सूरज रौशन करते,
चलत-चलते कभी न थकते.

रंग-बिरंगी फूलों पर,
रंग भरी तितलियाँ निहारो,
भँवरों को आमंत्रित करती,
कलियाँ कहती यहाँ पधारो.

सब कुछ यहाँ समय से चलता,
कभी चक्र यह नहीं है थमता,
होड़ प्रकृति से जो करते,
अनायास दुःखों को सहते.

प्रकृति की है छटा निराली,
ज्यों "कठोर पर कोमल" नारी,
सबके मन को हर्षाती है,
श्रेय कभी ना वह पाती है.

प्राण वायु दे प्राणी को,
दूषित खुद अपने में रखती,
नियत रात दिन सबके सुख में,
अपना सब कुछ भरते रहती.

सब जीवों को भोजन देती,
साग फूल-फल चंदन देती,
राही को छाया देती है
मालिक की माया ऐसी है. 

एम.आर.अयंगर.
06092014