हड़ताल – मेरी सीख
और सोच.
नौकरी की तनख्वाह
तो मिलती है और क्या मांगते हैं ? ... हड़ताल मतलब, खाओ – खेलो मौज
मनाओ. …...... भलाई करनी
थी, तो कम से कम मतदान के परिणामों के बाद तो एक साथ काम कर सकते थे... साफगोई है
कि मकसद छात्रों की भलाई का नहीं अपनी भलाई का है....... इरादे नेक हों तो कोशिश
करने पर सब कुछ संभव है. सदस्यों की संख्या के अनुपात में दलगत एजेंड़ा को भी
स्थान दें. यह एक तरीका हो सकता है. सदस्य
आपस में बैठकर विचार करें तो शायद और भी बेहतर विकल्प उभरें.
सरकार मजदूर युनियन या
और संगठनों के आगे बौना क्यों बन जाती है. ……संगठनों को राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा
संरक्षण…. सरकारी या संस्थागत
संपत्ति का नुकसान होना हड़ताली से चर्चा करने के लिए पहली शर्त सी बन गई है..
.... जनता को तंग करने का अधिकार किसी संस्था विशेष के कर्मियों को कैसे मिल जाता
है. कभी बस तो कभी रेल रोको आंदोलन कर दिया. आंध्र प्रदेश में हड़तालियों ने तो
बिजली उत्पादन संयंत्र बंद कर दिए. ट्रेनों की बिजली बंद कर दी. न रेल्वे ने चूँ
किया और न ही सरकार ने, क्या सरकारी संरक्षण के बिना ऐसा हो सकता था.
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बचपन याद आता है.
हड़ताल होती थी तो बड़ा मजा आता था. हड़ताल का मतलब था स्कूल की छुट्टी. हड़ताल
कहीं भी हो, कोई भी करे, हम
बहुत खुश होते थे कि हमारे स्कूल की तो छुट्टी होगी ही. यदि किसी कारण से हड़ताल में हमारे
स्कूल की छुट्टी नहीं हुई, तो उस हड़ताल को
हम फेल मानते थे. हड़ताल की खबर सुनते ही प्रोग्राम बनने लगते थे. कभी कोई फुटबॉल
या क्रिकेट मैच रख लिया तो कभी पिकनिक का खाका बना लिया. हड़ताल के दिनों में दिन
भर खेलने की छूट होती थी. कभी कभी सिनेमा देखने की छूट भी मिल जाती थी. टिकट के
पैसे भी घर से मिल जाते थे. कुल मिलाकर हड़ताल यानि - मजा ही मजा. हड़ताल कहीं भी
हो, कोई भी करे – हमारी तो चाँदी ही चाँदी. इतनी अकल तो थी नहीं कि सोचें कौन –
किस लिए हड़ताल कर रहा है . हमारा सरोकार केवल छुट्टी तक सीमित होता था. हड़ताल
मतलब, खाओ – खेलो मौज मनाओ. कभी कभी हम भी हड़ताल देखने जाते थे जैसे यह कोई सर्कस
हो.
थोड़े बड़े हुए तो देखा
कालेजों में, बैंकों में, सरकारी कार्यालय में स्ट्राइक होती थी. तब पता चला कि
हड़ताल को अंग्रेजी में स्ट्राइक कहते हैं. फिर अखबार पढ़कर जाना कि ये हड़ताल या
स्ट्राइक कुछ माँगों के लिए होते है. जब स्कूल, कालेज, बैंक या सरकार लोगों की
मांग को नहीं मानते थे तो कर्मचारी ऐसा कदम उठाते थे.
बात आई कि ये मांग
क्या होते हैं ? लोग क्यों मांगते
हैं ? नौकरी की तनख्वाह
तो मिलती है और क्या मांगते हैं ? अखबार पढ़ पढ़ कर जाना कि लोग, जो मिलता है उसके बाद भी, और ज्यादा पाना
चाहते हैं. कहते हैं तनख्वाह कम है... मंहगाई बढ़ रही है. खर्चे पूरे नहीं हो
पाते. इत्यादि इत्यादि. अब हम भी अपने दोस्तों के साथ बैठकर बातें करते कि फलाँ
माँग जायज है तो फलाँ नाजायज.
जब कालेज में गया तो पता लगा चुनाव होनें वाले
हैं. हमें तो पता ही नहीं था कि ये चुनाव
क्यों होते हैं ? , किसलिए होते हैं ? और इनका मकसद क्या
होता है ? खैर साथ हो लिए
अपने बचपन के एक मित्र के, कि जानें यह बला है क्या. पता लगा दोस्त खुद चुनाव लड़
रहा है, लगा बुरे फंसे भाई. अलग तो हो गए पर उसकी हरकतों पर ध्यान देने लगे कि
इसमें करते क्या हैं ? देखा कि उनने पहले
तो एक गुट बनाया जिसमें सारे ही अपने दोस्त थे. फिर मीटिंगें की सबको बताने लगे कि
फलां अध्यक्ष होगा तो फलां सचिव ऐसे ही और सब. फिर जगह जगह भाषणबाजी शुरु हुई.
किसी भी क्लास में घुस जाते – प्रोफेसर से विनती करते और क्लास में पढ़ाई के बदले
लेक्चरबाजी शुरु हो जाती. देखा, ऐसे ही दो तीन गुट और बन गए हैं. कभी कोई तो कभी
कोई आ जाता है किसी न किसी गुट से भाषण बाजी के लिए और पढ़ाई दिन भर में एकाध
पीरियड हो गया तो बहुत. कालेज जाने का मन भी नहीं करता था, पर इच्छा थी कि जानना
है कि ये चुनाव कौन सी बला हैं ? – केवल इस लिए कालेज जाकर दिन खराब करते थे. पढ़ने में अलग समय लगाना
पड़ता था.
लेक्चरों के बाद
दौर आया पोस्टर लगाने का. जगह जगह गुटों ने अपने - अपने गुट के लीडरों के नाम व पद
के पोस्टर चिपकाए और कालेज की करीब हर दीवार खराब कर दी. फिर दौर आया छात्रों से
मुलाकात का. सारे नेता अपनी अपनी सुविधानुसार छात्रों से मुलाकात कर उनके दल को
वोट देने और फलाँ दल के फलाँ व्यक्ति को फलाँ पद के लिए वोट देने के लिए कहते.
दलों के बीच भी जोड़ तोड़ होती थी. अंत में खास तौर पर उसे खुद को वोट देने की बात
कह जाते. अब समझ आया मतदान का फार्मूला. लगा कि एक कालेज में मतदान के लिए ऐसी
हलचल हो रही है तभी तो कांग्रेस और जनसंघ के चुनाव – जो देश के लिए हैं – में इतनी
गर्दिश होती है. जीतकर क्या होगा यह भी एक सवाल था.
सारे गुटवाले एक ही
बात करते थे खासकर कि हम जीतेंगे तो फीस कम कर देंगे... परीक्षा की डेट आगे करवा
देंगे. कालेज की बस चलवाएंगे. सब का आई कार्ड बनवाएँगे... लेब में फेसेलिटीज बढ़ा
देंगे... आदि, इत्यादि. मुसीबत की बात यह थी कि जब सभी दल छात्रों के लिए ही भला
करने की सोच में हैं तो मिलकर काम क्यों नहीं कर लेते. यह गुट बाजी किस लिए. औरों से
चर्चा करने पर पता चला कि कालेज के चुने हुए दल (यूनियनों) को छात्रों की भलाई के
लिए बहुत फंड मिलता है और उसी का इस्तेमाल करने का हक पाने के लिए ये गुटबाजी होती
है. उसके बाद फंड मिलने पर छात्रों का भला भूलकर उन पैसों से साधारणतया ये दल अपना
या अपनों का भला ज्यादा करते हैं और मन रखने के लिए थोड़ा बहुत छात्रों के लिए भी
होता है... जैसे एन्युअल स्पोर्ट्स या एन्युअल डे, पिकनिक, क्रिकेट मैच जैसे कुछ
कुछ. छात्राओं के लिए कुछ करने की जरूरत ही नहीं होती थी उन दिनों. जब लड़के ही
नहीं पूछपाते थे तो बेचारी (तब) लड़कियाँ क्या पूछेंगी. खराब की गई दीवारों पर
सफेदी, डिस्टेंपर ( रंग रोगन) भी कालेज प्रबंधन द्वारा कराया जाता था.
इस तरह धीरे धीरे
चुनावी दलगत राजनीति की पूरी खबर मिली. नतीजा यह हुआ कि मैं मतदान करने गया ही
नहीं. शाम को मेरा दोस्त, साथियों के साथ, मुझे खोजते - खोजते घर आ धमका और शुरु
कर दी गालियों की बौछार. इसलिए कि मैंने मतदान नहीं किया था, अंजाम यह हुआ कि दो
अध्यक्षों को बराबर बराबर के वोट मिले और यदि मेरा वोट पड़ गया होता, तो मेरा
दोस्त कालेज के यूनियन का अध्यक्ष बन गया होता. जब मतदान हुआ तब तो मेरा ख्याल
नहीं आया पर शाम को जब मत बराबर गिने गए तब खोजा गया, खबर ली गई कि किस किस ने मत
नहीं डाला. पता चला मैं अकेला ही शख्स था जिसने शहर में रहकर मतदान नहीं किया था.
कालेज में तो पुनर्मतदान होना तय हो चुका था. इसलिए अब मैं कालेज का एकमात्र खास
छात्र बन गया था. मतदान की अगली तारीख, यह जानकर कि मैं छुट्टियों पर नहीं जा रहा
हूं, तय की गई. मेरी तबीयत का विशेष ध्यान दिया जाने लगा कि कहीं बीमार न पड़
जाऊं. अंततः पुनर्मतदान में मैनें मतदान किया और मेरा दोस्त कालेज का अध्यक्ष बन
गया.
अब आई बारी अपनी
कहीं बातों के ध्यान में लाने की और छात्रों को सुविधा की तरफ ध्यान देने की.
लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं हुई. पूछा तो बोला वो तो होता रहेगा यार. साल बीतता
गया... स्ट्राईक हुई... कालेज में पढ़ाई नहीं हो पाई... इसलिए परीक्षा की तारीखें
आगे बढ़ाई गईं.. पर छात्रों के लिए कुछ नहीं किया गया ... समय इन सब बेकार की बातों
में बिता दिया गया. यूनियन को मिले फंड का क्या हुआ किसी को पता ही नहीं चला.
हड़ताल का विस्तृत
विवरण तब पता लगा जब सन् 1974-75 में रेल्वे की हड़ताल हुई थी. सरकार ने जाने किस
किस तरह से डराया था. हम बच्चे अपने मुहल्ले से बाहर जाने से डरते थे. पापा कहते
थे कि सीधे स्कूल जाओ और वहाँ से सीधे घर आओ. इधर उधर गए तो पुलिस पकड़ लेगी. बाप
रे बाप सब सहमे सहमे से थे. ... लेकिन हाँ सारी रेलगाड़ियाँ राईट टाईम चलती थीं.
आज की देखिए कब कौन सी गाड़ी कितने देर से आएगी - पता नहीं.बाद में भी बहुतों से
सुना, वह रेल्वे का स्वर्णिम युग था. इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागाँधी की
लोग काफी तारीफ करते थे.
बाद में 75-76 में
इसी इंदिरा ने आपातकाल घोषित कर दिया. उसका नाम सुनने से ही दिल दहल जाता है. दहशत
हो जाती है. कानून को जितना हो सके बदलावकर, जाने कितने नेताओं को गिरफ्तार किया.
मेरी नजर में यह मेरे जीवन की सबसे बडी हड़ताल है.
सब कहने लगे
कांग्रेस अब की बार हार जाएगी.. दूसरी बड़ी पार्टी थी जनसंघ. इसी बीच 1977 में एक
नई पार्टी बनी जनता पार्टी. सब तरफ नाम था – जयप्रकाश नारायण. पार्टी काचुनाव
चिह्न आज की ओ के साबुन (डिटर्जेंट) के चक्के की तरह था. इससे कांग्रेस हार
गई. इसी बार मैने
लोकसभा चनावों मे पहली
बार मतदान किया था.
नौकरी के बाद कार्यालय
चुनाव में मैंने भी निर्दलीय होकर नामांकन भरा. मुझे प्रचार - प्रसार मे न ही
दिलचस्पी है न ही यह मुझे पसंद है. मैंने कोई केनवासिंग नहीं करने की ठान ली. जब
अन्यों को पता लगा कि मैं चुनाव लड़ रहा हूँ – सब मुझसे पूछने लगे. यार तुम लोगों
से मिल क्यों नहीं रहे हो. साथियों ने कूब समझाया कि केनवासिंग जरूरी है - अन्यथा
लोग तुम्हें अभिमानी समझ लेंगे – स्वाभिमानी नहीं - और तुम्हें वोट नहीं देंगे. मैनें कहा मिलकर क्या
होगा. जिसने अपना वोट देना है वह देखेगा
मेरा नाम और पसंद होगा तो मत दे अन्यथा मत दे. सबने कहा ऐसे में तुम चुनाव हार जा ओगे.
इससे तो अच्छा होता – चुनाव लड़ते ही नहीं. कुछ ने तो कहा भी – जनाब हम बहुत बड़ी
बेच के हैं – इनमें से कोई तुम्हें वोट नहीं देगा . जीतना है तो वोट के लिए विनती
तो करनी पड़ेगी. मैंने फिर कहा जीतकर मुझे कुछ मिलने वाला नहीं है यदि आपको मेरे
काम करने का तरीका पसंद है और आंपको लगता है कि मेरे जीतने से लोगों का भला होगा
तो जिताईए वरना रहने दीजिए. मैं वोटों के लिए अपना चरित्र और अपने तौर तरीके बदलना
नहीं चाहता था. किसी से भीख मांगकर पाए मत
का मद को छोड़कर क्या औचित्य है. मैं नहीं चाहता था कि लोग बाद में कहें -
नेता बन गए हो तो यह सब तो करना पडेगा. वोट मांगने तो आए, अब काम करना पड़ रहा है
तो बहाने बना रहे हो , भाग रहे हो. मैं यह सब न सुनना चाहता था न ही मुझमे यह
सुनकर चुप रहने की काबीलियत है. इसलिए मैंने कह दिया कि साथियों से कह दो कि मुझे
वोट न दें. मैं बिना केनवासिंग के बैठा रहा और मतदान के दिन शाम को शोर हो गया कि
मेरे कुल मतों की संख्या के अनुसार मैं दूसरे नंबर पर था. बहुत खुशी हुई जानकर कि
लोग मुझपर भरोसा करते हैं. जीत के बाद अपने विचारों के अनुसार सबको एक सूत्र में
पिरोया और काम किया. लोग इतने खुश हुए कि सारे जीते हुए लोगों ने एक दल बनाकर फिर
चुनाव जीत लिया.
इस दौरान खबर लगी
कि चुने हुए प्रतिनधियों को कैसे चारा डाला जाता है, कैसे लोग चारा चरते हैं. किस
किस को किस किस तरह का चारा दिया जाता है. अक्सर देखा गया है कि चरते वक्त उन्हें
इस बात का एहसास नहीं होता पर जब एहसास दिलाया जाता है तब तक देर हो चुकी होती है.
एक बात जो आज भी
समझ में नहीं आती कि जब सब दलों का मकसद सदस्यों की भलाई ही है तो चुनाव जीतने के
बाद एक जुट क्यों नहीं हो पाते. जो मुझे समझ आता है – कि इसमें कहीं स्वार्थ छिपा
है. निहित स्वार्थ के कारण ही ऐसा नहीं हो पाता. और स्वार्थ होता है दलगत राजनीति
का. सभी दल चाहते हैं कि मेरे दल के विचार से काम हो. और अंजाम होता है खींचा - तानी. काम किसी का विचार नहीं होता और
अक्सर काम ही नहीं होता. थोड़ा कुछ हो पाता है तो उस दल के विचार का जिसके ज्यादा
सदस्य चुने जाते हैं.
अब जब जागरूकता बढ़
गई है और सारे लोग साक्षर हो गए हैं, कोशिश करने पर संभव
है कि चुने गए सदस्य आपस में विचार विमर्श कर एक एजेंड़ा तैयार करें और उस पर सब
मिलकर अमल करें. ऐसे में चयनित दल सदस्यों को सबसे ज्यादा फायदा दे पाएगा. इरादे
नेक हों तो सब कुछ संभव है. या फिर सदस्यों की संख्या के अनुपात में दलगत एजेंड़ा
को भी स्थान दें. यह एक तरीका हो सकता है.
सदस्य आपस में बैठकर विचार करें तो शायद और भी बेहतर विकल्प उभरें.
भारत में देखा गया है कि
निवेदन पर या विरोध प्रदर्शन पर कोई ध्यान नहीं देता. मौन – विरोध और शांति यात्रा
का तो कोई संज्ञान ही नहीं लेता. इसी लिए यहां हड़ताल का तात्पर्य ही हो गया है कि
शोर शराबा हो. दुकानें, स्कूल, अनुष्ठान बंद किए जाएं. जो बंद नहीं कर रहा है, तो उससे
जबरदस्ती की जाए. और इस जबरन की हरकतों में माहौल बिगड़ जाता है, मारपीट व दंगे
फसाद हो जाते हैं. कभी कभी सरकारी या संस्थान की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जाता
है. कारों, टेम्पो और बसों में आग लगा दिया जाता है..रेल रोक दी जाती है. नेशनल
हाईवे तक बंद कर दी जाती है... फिर जाकर संज्ञान लिया जाता है कि मामला हद से बढ़
रहा है कुछ करना होगा. तब जाकर कहीं हड़ताली पार्टियों - कर्मियों को चर्चा के लिए
बुलाया जाता है. उसका नतीजा क्या होगा बाद की बात है, पर चर्चां तभी होगी जब तोड़ -
फोड़ शुरु हो चुका होगा. सरकारी या संस्थागत संपत्ति का नुकसान होना हड़ताली से
चर्चा करने के लिए पहली शर्त सी बन गई है. जब लोग विनती करने आते हैं, तभी यदि चर्चा कर ली जाती
तो मामला यहां तक पहुँचता ही नहीं. लेकिन अफसरान अपने आपको इतने व्यस्त बताते हैं
कि तब संज्ञान लेना उनके व्यस्तता पर प्रश्न खड़े कर देता है.
हड़ताल कोई भी करे , किसी भी कारण करे...अंजाम
है कि संस्थान और सरकारी संपत्ति का नाश. हड़तालियों से वार्तालाप में जो भी
निर्णय हो, यह तो कभी तय नहीं होता कि नुकसान की गई संस्थागत और सरकारी संपत्ति
का मुआवजा कौन भरेगा. अंततः यही होता है कि या तो नुकसान की भरपाई होती ही
नहीं जो साधारण रवैया है और यदि हुआ तो संस्था
या सरकारी खजाने से. सरकार पर बोझ तो पड़ ही गया और काम नहीं हुआ तो जनता भी
भुगतेगी. लेकिन आज तक किसी समुदाय ने किसी कार्यालय में या अदालत में अर्जी नहीं
दी कि कुछ हड़तालियों की वजह से – सारा का सारा समाज क्यों मुश्किलें सहे.
हड़तालियों को दी गई सुविधा से इसकी भरपाई क्यों न कराई जावे. यदि ऐसा हो तो
हड़तालियों को सबक मिलेगा कि किए गए नुकसान की भरपाई की रकम उनसे काट ली जाएगी.
आवश्यक हो तो कानून में भी जरूरी संशोधन करने चाहिए.
सरकार मजदूर युनियन या और संगठनों के आगे बौना
क्यों बन जाती है. इसका एक संभव कारण है
संगठनों को राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा संरक्षण. इसे समाप्त कर देना
चाहिए. कॉलेज स्कूल, और औद्योगिक संस्थानों के संगठनों को राजनीतिक पार्टियों के
संरक्षण अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए. अफसरान को कड़ी हिदायत दी जाए कि किसी भी
संस्थान में हड़ताल चाहे मूक हो या शातिपूर्ण हो या फिर विनती के रूप में मांगों
की जानकारी दी गई हो तो संबंधित अधिकारी तुरंत निवेदकों से संपर्क करें और उनकी
मांगों की सही खबर संस्था के प्रमुख या मालिक को दें. और मालिकों से कहा जाए कि जल्द
से जल्द उनसे चर्चा कर निष्कर्ष से सरकारी अधिकारियों को अवगत कराएँ. सरकार तय करे
कि क्या सही है और क्या गलत. संज्ञान लिए बिना उन्हें अनसुना करना भी मांग कर्ताओं
को भड़काता है. जब जी में आया आटो बंद हो गए, बसें बंद कर दी. सामान्य जनता को तंग
करने का अधिकार किसी संस्था विशेष के कर्मियों को कैसे मिल जाता है. कभी रेल रोको
आंदोलन कर दिया. हाल में तो आंध्रप्रदेश केलंगाना संबंधी हड़तालियों ने तो प्रदेश
के बिजली उत्पादन संयंत्र बंद कर दिए. रेल्वे की बिजली बंद ही कर दी. उस वक्त जो
गाड़ियाँ डीजल एंजिन से चल सकीं, चली, बाकी बंद. पर किसी तरह से न रेल्वे ने हो
हल्ला मचाया और न ही सरकार ने हड़तालियों पर कोई कार्रवाई की ... ऐसा क्यों.. क्या
सरकारी संरक्षण के बिना ऐसा हो सकता था. अन्ना हजारे का अनशन शांतिपूर्ण था. समय
लगा, जब सरकार ने संज्ञान लिया तो निष्कर्ष निकला.
हम अन्य देशों से क्यों नहीं सीखते. जहां
प्रोडक्शन कंपनियों में मजदूर उत्पादन इतना बढ़ा देते हैं कि उनका उत्पाद बिक नहीं
पाता. उत्पादन बढ़ते साथ प्रबंधन चेत जाती है कि कहीं कोई गड़बड़ है और खबर लेने
लगती है. हालात बिगड़ने के पहले समाधान खोज लेती है. उस पर मजदूरों पर बोझ कम हो
जाता है चूँकि अधिक उत्पाद तो पहले ही तैयार कर लिया गया है. कुछ हद तक सच भी है
कि जनसंख्या और खपत के चलते यह तरीका हमारे देश में उतना कारगर न हो.
साथ ही साथ – असहमति या विरोध जताने के अन्य
तरीके भी अपनाए सकते हैं और कहीं कहीं
अपनाए भी जाते हैं जैसे - काला पट्टा, ,मौन अनशन, नारेबाजी, गेट मीटिंग, मेनेजमेंट
को तर्कसंगत पत्र और अंततः जनमत या जनसमर्थन हेतु अखबारों में प्रकाशन. लेकिन इन पर ध्यान न देने की वजह से यह
मात्र सांकेतिक रह जाते हैं और लोगों का इन विधाओं से विश्वास उठ गया है. गाँधी जी
देश में गाँधी गिरि से लोगों का विश्वास उठ गया है, अब केवल रजतपट तक सीमित रह गया
है. सब को पता है कि संस्था या सरकार तभी
संज्ञान लेगी, जब हड़ताली तोड़ फोड़ पर उतर आएँगे. यदि इन मुद्दों पर ध्यान दिया
जाए तो नुकसान काफी कम हो जाएगा और कई समस्याएँ विकराल रूप धारण करने से बचाई जा
सकेगी.
इधर तेलंगाना राज्य के लिए हड़तालियों ने तो
आंध्र प्रदेश में बिजली उत्पादन ठप कर दी और रेल्वे ट्रेनों तक की बिजली बंद कर दी
या करवा दी. सकरकार ने चऊँ तक नहीं किया. 1974 की रेल्वे की हड़ताल इस मामाले में
खास थी. जो लोग काम कर रहे थे उन्हें रोका भी नहीं गया. रेल संपत्ति को कोई नुकसान
नहीं पहुँचाया. सड़कों पर हंगामे करना, कार, बस, परिवहन साधनों को जलाना,
दुकानदारों को दुकान बंद करने की जबरदस्ती करना, वरना लूट लेना ऐसी हरकतें आज आम
हो गई हैं. स्कूलों की जबरदस्ती छुट्टी करवाना – ये सब ऐसे काम हैं जिनसे
हड़तालियों को कोई खास फायदा नहीं होता -
महज इसके कि प्रबंधन तो यह सब किया ही क्यों जाएगा.
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