मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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रविवार, 14 जुलाई 2013

परिवर्तन

परिवर्तन...कैसे बदल जाते हैं...

बहारों से सजी बगिया,
पतझड़ में वीरान हो जाती है,

हिमरेखा के ऊपर के चट्टानों,
सौभाग्य लिखा कर लाए हो,
वर्षा की झंझट से मुक्त हुए तुम,
श्वेत पुष्प सम हिम वसन पहन
स्वप्निल स्वच्छ धवल आवरण,
मोहक, मन को कितना...

कल केवल सपने होते हैं,
मात्र कल्पना के क्षण,

कुछ भी खयाल नहीं रहता,
बरसों का अपना पन , पल भर में
टूटे बाँध का तरह बह जाता है,

कितने गाँव, 
कितने खेत तबाह करता हुआ
जान-माल को बहाता हुआ,
जैसे जल-महाप्लावन हो,

जल की अथाह चादर,
सारी हरियाली ढँक लेती है,
जैसे सारा बंजर रहा हो,

फिर यहाँ हरयाली होगी,
ऐसे आभास होने का 
वक्त ही नहीं रह जाता.

चट्टानों से भरी पहाड़ी,
बसा बसाया पर्वतीय पर्यटक स्थल,
शीत आते ही,
अलग थलग नजराता है,
लेकिन मात्र एक भूस्खलन से
वीरान तबाह हो जाता है.
भू-कंप की क्या कहें,

किंतु , फिर पहली बर्फ पड़ते ही
सारा नजरिया,
क्षितिज तक...
शस्य-श्यामल हो जाता है.

फिर ग्रीष्म में वही चट्टान - पहाड़,
सारा हिम पिघलकर 
फिर नदियों में जा मिलता है

ग्रीष्म में ऐसी सोच भी नहीं आती,
कि फिर यही पर्वत शिखर
आदतन हिमपात से
हिमाँशु संग,
चाँदी सा चमक उठता है,

प्रातः रवि किरणें इन्हें,
स्वर्णाभूषण पहनाती हैं.

यह समय और स्थल के
औचित्य की प्राभाविकता है,...

इसलिए यह समझिए कि
इस प्रकृति में,
प्रकृति की ही तरह

परिवर्तन ही एक निश्चित सत्य है,
और इसकी पराकाष्ठा काल है.
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अयंगर.