मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शुक्रवार, 7 मार्च 2014

क्या व्यक्तित्व है..


क्या व्यक्तित्व है...




खुद अपने लिए उठती या नहीं
यह पता नहीं,
पर रात में दो-एक बार तो
अपने बच्चो के कमरे में झाँक आती है.
यह देखने के लिए कि
बच्चे चैन से, आराम से,
ढंग से सोए हैं या नहीं,
चादर, कंबल, रजाई ,
ठीक से ओढ़ी-उढ़ी है या नहीं,
तसल्ली कर जाती है.



कभी बीच रात नींद खुलती है,
तो बाथरूम आते जाते
किचन से आवाज सुनाई पड़ती है,
आतुरता वश देखता हूँ
वहां कौन है,
पता लगता है
इड़ली का आटा पीसा जा रहा है,
कहता हूँ, अभी सो जाओ सुबह कर लेना
जवाब मिलता है
तो तुमको तुम्हारी पसंदीदा
इड़ली कहाँ मिल पाएगी,
दिन में तो बाकी कामों से समय ही नहीं मिलता
इसीलिए देर रात करनी पड़ती है.

  
कई बार देखा है , महसूस किया है,
आज छोटे को खिलाकर वह भूखी सो गई,
घर में अनाज कम था,
पर कभी न सुना , देखा न महसूस किया
कि वह खा गई
इसलिए बच्चे को भूखा सोना पड़ा.

दिन भर की थकी ,
( शायद भूखी भी ),
पति के आने के समय,
सज-धज कर देहरी पर खड़ी,
रास्ता निहारती उस पर, जब
पति आते ही किसी बात पर खीज उठते,
तब दिल में कितनी तकलीफ होती थी...
कहा नहीं जा पाता.

कभी सुना नहीं, उसके लिए खाना कम पड़ा हो,
ऐसा नहीं कि बच्चे भूखे रह गए,
उसके लिए खाना बचाने के लिए ,
हाँ, वह कभी शिकायत करती ही नहीं थी,

उनको कभी बीमार पड़ते नहीं देखा,
क्योंकि, वे कभी शिकायत करती ही नहीं थी,
लगी रहती हैं सेवा में,
घर का सारा काम उसी का तो है...
किसी ने अपने जिम्मे नहीं लिया...
वही अकेली करती रहती है.

काम है, कि खत्म होने का नाम तक नहीं लेता,
रोज सुबह फिर नया काम आ धमकता है,
पर उसने कभी उफ तक नहीं की,
क्या व्यक्तित्व है...
भगवान ने शायद बडी मेहनत से बनाया है.

जिंदगी में दो ही बार बीमार पड़ते देखा,
पहली बार, डॉक्टर तो जवाब ही दे गए,
बोले भगवान पर भरोसा रखो,
लेकिन उम्र बाकी थी,
सेवा का सहारा मिला शायद,
खड़ी हो गई पर पूरी तरह स्स्थ तो हो ही नहीं पाई.
दूसरी बार तो हालत ज्यादा ही खराब हो गई,
उम्र भी तो बढ़ रही थी,
फिर वहीं, डॉक्टर जवाब दे गए,
पर अब की बार वह उठ नहीं पाई.
उठा ली गई.


अब घर और समाज
दोनों की परिस्थितियाँ भी बदल गईं हैं,
अब न रातों को किचन से आवाज आती है,
न ही देहरी पर कोई खड़ा नजर आता है,
न ही रात बे रात कोई देखने आता है
कि बच्चे, कैसे तो छोड़ो,
सो रहे हैं भी कि नहीं,

पर मानव जीवित है और
वह इस व्यक्तित्व की सृष्टि करता जा रहा है,
खास तौर से , कड़ी मेहनत से,
पर आज वह मेरे नसीब में नहीं
किसी और के नसीब में हो गई है.

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लक्ष्मीरंगम.

मंगलवार, 4 मार्च 2014

आरक्षण - क्रियान्वयन...

आरक्षण - क्रियान्वयन...

आजादी के तुरंत बाद महात्मा गाँधी ने प्रस्ताव रखा था कि इंडियन नेशनल काँग्रेस – जिसका गठन देश की स्वतंत्रता संग्राम के लिए किया गया था – का उद्देश्य अब पूरा हो चुका है इसलिए इसे भंग कर दिया जाए. लेकिन काँग्रेस के दूसरी पंक्ति के नेताओं को यह रास नहीं आया, शायद उन्हें कांग्रेस की साख का फायदा उठाना था. वही काँग्रेस गाँधी जी के न चाहने के बाद भी आज तक चल रही है...

पता नहीं गाँधी जी के मन में क्या विचार थे, पर आज जरूर लगता है कि उनकी विचार धारा सही थी. काँग्रेस को उसी वक्त भंग कर दिया गया होता तो शायद स्थिति अलग होती. शायद वंशवाद की यह प्रवृत्ति पनप नहीं पाती.

कांग्रेस के बने रहने से गाँधी समर्थक नेहरू जी का कद बढ़ गया और उनके परिवार ने तो करीब करीब कब्जा ही कर लिया. आज तक कांग्रेस में कई अच्छे नेता हुए पर किसी को कोई ओहदा नहीं दिया गया. मुझे तो ऐसा लग रहा है कि जहाँ लगा कद बढ़ रहा है, तो उसे राष्ट्रपति भी बनाया - लेकिन प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया. एक बेचारे शास्त्री जी बने, पर ज्यादा समय कुर्सी पर रह नहीं पाए. हाँ नरसिंहाराव बच निकले.

इधर गाँधी जी की नीतियाँ धीरे-धीरे कमजोर पड़ती गईं और गाँधी परिवार की नीतियाँ उन पर हावी होती गईं. बुरा तो लगता है किंतु यथार्थ तो यही है कि आज गाँधी जी के नाम का प्रयोग केवल वोट बटोरने के लिए किया जाता है. उनके सिद्धांत तो लोग कब का भूल चुके हैं.

गाँधी जी ने हरिजन शब्द से संबोधित कर अनुपयुक्त जाति सूचक नामों को अलग किया. उन्हें मुख्य धारा में लाने का यह गाँधी जी का प्रथम प्रयास था.. उनका प्रिय भजन था – वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे...हरिजन व वैष्णव में शाब्दिक तौर पर कोई फर्क नहीं है. हरि का मतलब ही विष्णु है.

बाद में तो गाँधी जी नहीं रहे और नेहरू जी का राज चल पड़ा. पहले पहल हरिजनों को मुख्य धारा में लाने के लिए उन्हें अनुसूचित किया गया. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति बनीं. यानि कि घर में इनको अलग कमरा दे दिया गया. सबसे पहले – अनुसूचित जाति व जनजाति में दर्ज जातियों के प्रति दृष्टि बदली और कुछ नहीं हुआ. पहले भी इन्हें पूरी तरह छूट नहीं थी और वे पिछड़े थे इसलिए उनकी तरफ से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हो सकी. कुछ बरसों में ही नेताओं ने इसे वोट बैंक बना दिया. इसके लिए लुभावने सपने दिखाने लगे. केवल सपने... और वे उसके चंगुल में फँस कर अपना वोट देते रहे. पर मिला कुछ भी नहीं.

फिर एक नया हथियार खोजा गया – आरक्षण. आरक्षण देश के पिछड़ेवर्ग को मुख्य धारा में लाने का एक प्रयास था. लेकिन जिस तरह से इसे क्रियान्वित किया गया या जा रहा है- इससे 50-60 वर्षों बाद भी पिछड़ा वर्ग पिछड़ा ही है.क्योंकि सुविधाएं सही जगह तक पहुँच ही नहीं पा रही हैं.जिन्हें सुविधाएं मिलने लगीं उनकी सुविधाएं मिलती ही रहीं और नए लोग शामिल हो गए. पिछड़ा वर्ग बढ़ता गया. संपन्नता के बाद भी वह पिछड़े वर्ग से पृथक नहीं हुआ. सो अन्य लोंगों की सुविधाएं कम होती गईं. पिछड़ा वर्ग भी बढ़ा – सामाजिक पिछड़ा वर्ग बढ़ा नई जातियाँ शामिल की गई. अब आर्थिक पिछड़ा वर्ग , अल्पसंख्यक पिछड़ा वर्ग,सैनिक, रिटायर्ड सैनिक व उनके आश्रित जुड़े. श्त्रियों को आरक्षण में जोड़ा गया. कूल दाखिला से लेकर नौकरी में रिटायरमेंट तक इन्हें सुविधा उपलब्ध कराई गई और बदले में गुणवत्ता से समझौता किया गया. सब हुआ राजनीतिक लाभ के लिए... या कहिए वोटों की राजनीति के लिए. अब सारे आरक्षण के आंकड़ों के अवलोकन से पता चलेगा कि वास्तव में अब सामान्य जनता ही अल्पसंख्यक हो गई है. यदि अब भी ख्याल नहीं किया गया तो उनकी हालत दयनीय से बदतर होने लगेगी.

अनुसूचित जातियों और जनजातियों को शिक्षा और नौकरी के लिए आरक्षण दिया गया. शायद यह 7.5 प्रतिशत से शुरु हुआ था. इससे अनुसूचितों को पढ़ने एवं कमाने की कुछ सुविधा मिली. कुछ ने तो इसका सही इस्तेमाल किया और आगे बढ़े ताकि अगले पीढ़ी को आरक्षण की जरूरत नहीं पड़े. पर ज्यादातर लोगों ने सुविधाओं का उपभोग ही किया और अपने स्तर को वहीं का वहीं रहने दिया. स्कूल में इनकी फीस माफ की गई, ग्रंथालय की पूरी सहायता उपलब्ध कराई गई. जब औरों के लिए केवल दो पुस्तकें सप्ताह भर के लिए मिलती थीं तो इनको तीन पुस्तकें 15 दिनों के लिए मिलती थी और बाकी वर्ष भर के लिए पाठ्य पुस्तक शाला से ही मुफ्त मिल जाया करते थे. यह एक बहुत अच्छा कदम था. पढ़ने के लिए मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराना.

इससे ये पढ़ाई में उभरने लगे. लेकिन ज्यादातरों ने इसका सही उपयोग नहीं किया और पढ़ाई में ध्यान ही नहीं दिया. उसी कक्षा में पड़े रहते , फीस तो माफ है ही, दिन भर घूमते फिरते शाम घर पहुँच जाते . घर वाले सोच रहे होंगे बच्चे पढ़ रहे हैं.

जब बच्चों के पास होने के लाले पड़ते तो अभिभावक या बच्चे शिक्षकों से गुजारिश करते और शिक्षक कुछ कर करा कर या ग्रेस मार्क देकर पास करवा देते. हालाँकि शिक्षकों के मन में बच्चों की भलाई ही थी पर इस आदत ने बच्चों को न पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. क्योंकि इसके बिना भी पास होने का जरिया मिल गया था. कुछ समय बाद यह तो प्रणाली में ही आ गया. अनुसूचितों को पास होने के लिए 30 प्रतिशत अंक पाने होते थे और औरों को 33 या 35 प्रतिशत.

यहां से शुरु हुई सामान्य और अनुसूचितों के बीच एक खाई जिसमें गुणवत्ता का फर्क डाला गया. यह खाई बढ़ती ही गई और आज भी बढ़ रही है. नौकरी के लिए आवेदन में भी अनुसूचितों को फीस कम देनी पड़ती है, अंक कम पाने पड़ते हैं और इन सब के साथ उनके लिए आरक्षण हैं. जहाँ औरों को न दिया जाता हो वहाँ भी अनुसूचितों को लिखित व मौखिक  परीक्षा केंद्रों में आने के लिए यात्रा खर्च दिया जाता है.

किसी को सुविधा मिले इससे अच्छा क्या हो सकता है. लेकिन यदि उन सुविधाओं का गलत प्रयोग किया जा रहा है और उस पर ध्यान न दिया जाए यह तो ठीक नहीं है. सुविधा सही व्य़क्ति तक पहुँचनी चाहिए.

यदि मेरी जानकारी सही है तो एक समय ऐसा भी था जब नौकरी के लिए मेरिट सूची में अनुसूचितों के स्थान निश्चित किए गए थे. जैसे 1,4,11 इत्यादि. इस स्थान पर किसी भी हालत में सामान्य व्यक्ति का नाम हो नहीं सकता था. लेकिन इनके अलावा अन्य स्थानों पर अनुसूचितों का नाम हो सकता था. फलस्वरूप अनुसूचितों को निश्चित से ज्यादा जगह मिलने लगी. आरक्षण का प्रतिशत बढ़ने लगा जब कि कागजों पर तयशुदा प्रतिशत में कोई फर्क नहीं किया गया था.

अब कई अनुसूचित सामान्य से ज्यादा संपनन है, फिर भी उन्हें इसका लाभ मिल रहा है और जो समान्य असम्पन्न हैं उन्हें इस लाभ से वंचित किया गया है. कुल मिलाकर यह जातिगत राजनीति का रूप ले रही है.

किसान देश के अन्न दाता है. बहुत से किसान गरीब हैं. उन्हें भी यह सुविधा दी जाती है. यहाँ शायद जाति वाद नहीं है. लेकिन किसान की सम्पन्नता से इसका कोई लेनादेना नहीं है. एकड़ों जमीन होने के बाद भी किसान परिवारों को यह सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है. इसकी वजह से लोग आज जाति के आधार पर अपने आपको अनुसूची में जोड़ना चाहते हैं. हास्यास्पद हो सकता है लेकिन सवर्ण बच्चे अनुसूची के बच्चों से शादी करने के लिए तैयार हो रहे हैं ताकि उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिले. वैसे आज के युग में आरक्षण के अलावा जाति बंधन लगभग खत्म हो चुका है. जो बहुत अच्छा है.

इधर सुविधाओं कारण साधारणतः अनुसूचितों की पढ़ाई या नौकरी में साख कम बन पाई. ऐसा नहीं है कि अनुसूचितों मे विलक्षणता नहीं है पर ऐसे कम है. पढ़ाई का स्तर गिरा है तो नौकरी –पेशे में निपुणता पर इसका असर तो दिखेगा --- वही हुआ.

जो तकलीफदायक है वह यह कि देश में इन आरक्षणों का जिस तरह से क्रियान्वयन हुआ , उससे जरूरत मंदो को तो कम व अपनों को ज्यादा लाभ पहुँचाया गया. जरूरतमंद आज भी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं. देश में जनसंख्या बढ़ी है तो जायज है जरूरतमंद भी बढ़े होंगे. लेकिन पुराने लोग जो फायदा उठाकर संपन्न हो गए हैं उन्हें तो इस सुविधा से किनारे करना चाहिए और उनकी जगह नए लोगों को फायदा देना चाहिए. जो सुविधा पा रहे हैं वे पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ उठाएं और अन्यलोग वंचित रह जाएं यह सही नहीं है.

इनके अलावा अल्पसंख्यक, इकोनोमिकली बेकवार्ड कास्ट, सैनिक सेवारत या रिटायर्ड व उनके आश्रित और एक नया वर्ग अब आरक्षण पाने का हकदार है ... स्त्री. चाहे कैसे भी हो यानि गरीब, अनुसूचित या फिर सामान्य. मैं कतई नहीं कह रहा हूँ कि, किसी वर्ग को आरक्षण से वंचित किया जाए, पर किसी भी हाल में गुणवत्ता से समझौता न किया जाए.कुल मिलाकर आरक्षण इतना हो गया है कि सामान्य वर्ग अब शिक्षा या नौकरी के विचार छोड़ दे तो अच्छा है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि वे इतने धनाढ्य भी तो नहीं कि अपने बच्चों को व्यापार में लगा दें. तो वे करें क्या. यह एक बहुत बड़ा सवाल बनकर उभर रहा है. आश्चर्य नहीं कि सामान्य परिवारों के बच्चे निराश होकर भटक जाएं.

इसके अलावा एक और मुसीबत आ गई है कि सरकार किसी न किसी बहाने रिटायरमेंट की आयु बढ़ाते जा रही है. कभी यह 55 वर्ष हुआ करता था . फिर 58 हुआ, 60 हुआ . अब 62 – 65की बातें चॉल रही हैं . य़दि ऐसा ही चलती रहा तो नवयुवकों को नौकरी कहाँ से मिलेगी...

लेकिन समाज की तो यह जिम्मेदारी है कि ऐसा न होने दें. जिसका हम सब ही हिस्सा हैं. इसके लिए जरूरी है कि इस आरक्षण को सही ढंग से क्रियान्वित करने के लिए उचित कदम उठाए जाएं.

पहला यह कि हर संभव सहयाता कर हर पिछड़े वर्ग के व्यक्ति को मुख्य धारा में जोड़ा जाए. किंतु गुणवत्ता पर लेश मात्र भी समझौता न किया जाए. दूसरा आरक्षण के हकदारों को आरक्षण व उससे जुड़ी सुविधाएं मिलें पर सब सुविधाओं में से, जिस स्कीम में सबसे ज्यादा सुविधाएं लें और बाकी से परहेज करें. चाहे अनुसूचितों का लाभ लें या फिर कृषक होने का लाभ लें, या फिर असंपन्न् वर्ग में होने का लाभ लें. चाहे स्त्री हो या पुरुष – किसी एक प्रणाली के तहत, जो उन्हें सुविधाजनक हो, जिसमें सबसे ज्यादा सुविधा मिल रही हो – लाभ लें. साराँशतः यह कहा जा रहा है कि हर एक व्यक्ति, जो उसे अच्छा लगे केवल उस एक स्कीम का ही फायदा ले औऱ सरकार को भी चाहिए कि इस पर विचारे और अमल करे ताकि ज्यादा लोगों तक प्रणालियों का लाभ पहुँचाया जा सके और संपन्न् लोग चाहे वे किसी भी वर्ग विशेष में आते हों सुविधा के हकदार न हों.

मैं यहाँ आरक्षण प्रतिशत की अंकतालिका में जाना नहीं चाहूंगा , पर यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यदि आरक्षण प्रणाली का समुचित क्रियान्वयन नहीं हुआ तो वो दिन दूर नहीं जब आज के सामान्य वर्ग के सारे परिवार अपना एक वर्ग बनाकर आरक्षण माँगने लगेंगे.
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लक्ष्मीरंगम.