मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

जीने का हक.

जीने का हक.

बर्फ जमी थी दिल में जो अब पिघल पिघल कर आती है,
तड़पते दिल में जगह न पाकर, वह नयनों से झरती है.
आंखें भी मजबूर है कितना, रोक न पाएँ झरने को,
रोते मन का राग यही है,  नयनों से भाषा कहने को.

दानव जो मानव में देखो, मानव को ही भून दिया
सुअर के पिल्ले भी प्यारे, इंसा का क्यों खून किया ?
जो इंसाँ, इंसाँ का ना हो, वह आखिर फिर किसका है ?
कहूँ दरिंदा इसे अगर मैं,  ऐतराज किस  किस का है ?

बॉस से सुनकर ऑफिस, में जो बीबी को डाँटा करता,
गर्ल फ्रेंड को ताने सुनकर, बहनों पर चाँटा धरता,
इससे भी ज्यादा बुझदिल हैं, नरकगामी ये आतंकी,
लेते हैं बच्चों की जान से, सेना का बदला, नरभक्षी.

कायरता की इससे बढकर, क्या उपमा हो सकती है,
निर्ममता की इससे बढ़कर, क्या घटना हो सकती है,
कहते हैं आतंकी हैं हम, सीने पर करते वार न क्यों ?
इस धरती पर जीने का हक, हम इनको दें, तो दें ही क्यों ?
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एम आर अयंगर.
23.12.14
पेशावर स्कुल पर आक्रमण पर प्रतिक्रिया.

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