आ अब लौट चलें........
आ अब लौट चलें ........
जब राजा राममोहन राय और दयानंद सरस्वती ने नारी शिक्षा का आंदोलन / अभियान चलाया, तब शायद उनने सोचा भी नहीं होगा कि इसकी परिणति कहाँ होगी. प्राथमिक तौर पर सती प्रथा एवं बाल विवाह जैसे सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए चलाया गया यह आंदोलन आज ऐसा स्वरूप लेगा यह सोचना भी शायद संभव नहीं था. किसी भी प्रकार की परिस्थितियों में नारी का शोषण न हो इसी सूत्र से बँधे सोच ने नारी शिक्षा आंदोलन को दिशा व प्रवाह दिया. इन समाज सुधारकों ने नारी को आवश्यकता पड़ने पर स्वावलंबी बनने के लिए प्रथम रीत्या नारी शिक्षा को आगे बढ़ाया. अपरिहार्य परिस्तिथियों में ही नारी के जीवनयापन हेतु उसे आर्थिक अवलंबन देना और सामाजिक हालातों से भिज्ञ रहने के लिए प्रेरित करना इस अभियान का लक्ष्य था. पुरुष प्रधान समाज के प्रणेताओं ने ही इसका जमकर विरोध किया. लेकिन ये हिम्मत नहीं हारे और समाज की चेतना को जगाने तक अनवरत प्रेरणा जगाए रखा. धीरे-धीरे ही सही समाज के शुभचिंतकों को नारी शिक्षा का मूल्य और उपयोग समझ आया.
समय व परिस्थितियाँ कभी एक सी नहीं रहती, वे परिवर्तनशील हैं. पहले तो समाज ने पढ़ी लिखी लड़की को घर की बहू बनाने में संकोच किया. भविष्य की चिंता माता पिता को कब तक अपनी बेटी को अशिक्षित रखने देती ? समाज की कुरीतियों से बेटी की रक्षा करना वे अपना कर्तव्य समझने लगे और इसी कारण अपना बेटी के असामयिक परिकल्पनाओं की सीमा में स्वावलंबी बनाने के लिए समाज ने नारी शिक्षा को अपनाया.
नारी शिक्षा अभियान ने नारी को कभी भी आय का स्त्रोत नहीं माना. केवल अपरिहार्य परिस्तिथियों में ही नारी के जीवन यापन हेतु उसे आर्थिक अवलंबन देना और सामाजिक हालातों से भिज्ञ रहने के ले प्रेरित करना मात्र ही इस अभियान का लक्ष्य था. लेकिन यह पुरुष प्रधान समाज किसी/ किन्हीं भी हालातों में नारी को स्वेच्छा से जीने का हक नहीं देना चाहता था. उसने यथा संभव अडंगे लगाए जब अपनी हार निश्चित दिखने लगी तब उसने नए रास्ते अपनाए. पहले पढ़ी लिखी लड़की को घर की बहू बनने से रोका. फिर पढ़ी लिखी होने के कारण उसे आय के स्त्रोत के रूप में उपयोगी समझा और उस पर घर एवं बाहर दोनों का बोझ लाद दिया. इस बीच समाज में नारी के उत्थान के पक्षधरों ने नारी की सहायता के लिए संगठन बनाए और ऐसे सामाजिक प्रश्नों का उत्तर खोजने पर उतारू हो गए, जिससे पढ़ी लिखी लड़की को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल न किया जा सके और उसका साक्षर होना उसके लिए अभिशाप नहीं वरना वरदान साबित कर सकें.
जहां ईश्वर ने ही नर नारी दोनों को सक्षम बनाया है, वहां नारी पर ही बोझ क्यों ? जब नारी को रसोई से निकल कर नर समाज के कार्यों में लिप्त किया जा सकता है, तो नर रसोई में नारी का हाथ क्यों नहीं बँटा सकते ?
बदलती परिस्थितियों में धीरे धीरे शिक्षित बहू समाज का हिस्सा बनी. कहीं चाह कर तो कहीं अनचाहे ही सही. समाज परिवर्तन की ओर बढ़ रहा था लोगों ने इस बात को बखूबी महसूस भी किया कि शिक्षिता की वजह से घर के बच्चों में जानकारी बढ़ी है जो उनके जीवन को ज्यादा सक्षम बना सकती है. घर का सामाजिक स्तर भी पनपा है. समाज में ऐसे परिवारों के प्रति आदर बढ़ा है, जहाँ शिक्षिता को बहू स्वीकारा गया है.
लेकिन गाज तब गिरी जब समाज ने शिक्षिता को सामान्य आय का स्त्रोत बना दिया. बेचारी दिन भर कार्यालय में काम के बोझ तले पिसती तो और घर पर अपनों की सोच तले. लेकिन अंतत: समाज को सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि कहीं न कहीं सामंजस्य बिठाना ही होगा. अच्छे सामाजिक परिस्थितियों में घर वालों ने बहू का हाथ बंटाया और समस्या का समाधान हो गया.
इसका असर संयुक्त परिवारों पर पड़ा और छोटे परिवारों की शुरुआत हो गई. नारी पर घर तोड़ने का भी इल्जाम लगा – कभी वह लड़ी और कभी चुपचाप सह गई. जीत हार तो हर लड़ाई का अंत है सो हुआ - कभी जीती, तो कभी हारी. छोटे परिवार के कारण वे एक दूसरे को ज्यादा करीब से जानने समझने लगे. इस रास्ते ने दोनों को यह समझा दिया कि परस्पर सामंजस्य ही ऐसी समस्यओं का सही समाधान है. अब नारी को आर्थिक स्वतंत्रता का सही आभास हुआ.
आज शिक्षा की वजह से लगभग हर नारी को कामकाजी होना पड़ता है. कहीं तो परिवार में आय की कमी की वजह से, कहीं इसलिए की पढ़ी लिखी बहू खाली घर में क्यों बैठी रहे. कहीं इसलिए कि मैं पढ़ी लिखी हूँ तो नौकरी क्यों न करूँ, तो कहीं सामाजिक कुरीतियों की वजह से. तरह तरह के कारण, जिरह और बहाने. लेकिन लगभग तय है बेटी हो या बहू – नौकरी जरूर करेगी - स्वेच्छा से या मजबूरी में - आर्थिक स्वतंत्रता तो पाएगी !
कुछ अभिभावक अपने बच्चों को हॉस्टल भेजते हैं ताकि वहाँ अन्य बच्चों के बीच पढ़-लिख लेगा लेकिन वहाँ वार्डन घर की तरह परवरिश तो नहीं दे सकते.
जब दोनों अभिभावक नौकरी करते हैं, तब उनके नौकरियों में जाने का बच्चों पर क्या असर होगा शायद इसका ख्याल अभिभावकों को बहुत समय बाद आया. दिन भर की मशक्कत के बाद देर शाम घर लौटने पर वे बच्चे को खास समय दे नहीं पाते स्वाभाविकत: बच्चा सही मायने में अपनों को जान नहीं पाता और इसी लिए अपनों के प्रति बच्चे का प्यार नहीं जागता.
एक बच्चे ने अपना बचपन नानी के घर बिताया. फलस्वरूप अपने नाना नानी को वह अपने माँ – पिता समझने की गलती कर गया. बाल्यावस्था के पार जब वापस अपने माता पिता के घर पहुंचा, तो उसे लगा किसी रिश्तेदार के घर आ पहुँचा . बेहद समझाने पर भी उसे यथार्थ का ज्ञान नहीं हो पाया. फलतः माता पिता और बालक तीनों ने बालक का बचपन खोया.
एक बच्चा रविवार को सुबह उठकर माँ को जगाते हुए कह रहा था – मुझे जल्दी तैयार कर दो, आया के पास जाना है. माँ है कि बच्चे को समझाने में लगी है कि आज छुट्टी है और आया के पास नहीं जाना है. आज मम्मी पापा के साथ घूमने जाना है. बच्चा मानना को तैयार ही नहीं हैं और जिद कर रहा है कि आया के पास जाना है. अंततः माँ को ही हार मानना पड़ा. उसने उठ कर बच्चे को तैयार किया और आया के घर छोड़ आई. दो-एक घंटे का बाद आया बाहर किसी के घर जाने के बहाने बच्चे को उसके घर छोड़ गई. जेहन में एक जोर का झटका लगा जिस समाज में बच्चे को माँ के पास रखने के लिए आया की सहायता लेनी पड़े, उस समाज में यदि बच्चा अभिभावकों की अवहेलना करता हो तो...इसमें बच्चे का क्या दोष।
समय की कमी की भरपाई में अभिभावक बच्चे को उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा सुविधाएं मुहैया कराते हैं साधारण: ऐसी सुख सुविधाओं में पैसों की आधिक्यता देखा गई है. सुविधाओं में पला बच्चा जीवन की कठिनाईयों को समझ नहीं पाता.
आज अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा उनकी बात सुने. बच्चों के लिए कम समय होने का मलाल उनको भी है. इसी वजह से वे बच्चों के दोस्त बनकर बात करना पसंद करते हैं. लेकिन जब बच्चा दोस्त बनना चाहता है तो “अभिभावक” बीच आ जाता है. अभिभावक चाहते है कि वह मेरा दोस्त और मैं उसका अभिभावक. आज के समय में यह मुश्किल है. आज की पीढ़ी झेल नहीं पाएगी और कही एक अभिभावक और दोस्त के रोल को गलत समझ लिया गया तो सारी उथल पुथल हो जाएगी.
संयुक्त परिवारों में दरारें पड़ने लगीं. शुरुआत हो ही गई. इससे समाज को संयुक्त परिवारों के लाभ से वंचित होना पड़ा. जिंदगी के इस मोड़ पर संयुक्त परिवारों की उपयोगिता महसूस हुई. आज रसोई, सिलाई-बुनाई, डाँस क्लासेस शायद इसी की ही देन हैं. मेरी जानकारी में इस सवाल का संयुक्त परिवार से बढ़िया हल कोई है ही नहीं.
आज गाँवों में भी स्त्री शिक्षा लागू हो गई है और जहाँ जहाँ स्त्री शिक्षा पहुँची , नारी जागी और असमानताएँ घटती गईँ. समाज का पुरजोर विरोध भी इस बदलाव को रोक नहीं पाया. इस तरह की सामाजिक आँधियाँ कभी किसी के रोके रुकी है ? नारी शिक्षा अब समाज का अभिन्न अंग बन गई है और समाज में कामकाजी दंपति का प्रचलन हो गया है
क्यों न हम फिर से संयुक्त परिवार की तरफ चलें. अब जब भेद पाटे जा चुके हैं सामंजस्य और भी बेहतर होगा. अब संयुक्त परिवारों का लाभ शायद पहले से भी बेहतर मिले !!!
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एम.आर.अयंगर.