राष्ट्रव्यापी
- राष्ट्रभाषा - हिंदी
आज भारत में हर बात को एक काम का
मुद्दा बनाए जाने की नई प्रथा शुरु हो गई है। रही बात किसके काम की तो ये उन लोगों
के लिए है जिन्हें इसके अलावा कोई काम होता ही नहीं। हाल का एक ऐसा ही वाकया है, हिंदी के राष्ट्रभाषा होने का।
वाकया जानिए –
दक्षिण भारत की एक फिल्म केजीएफ
2 बॉक्स आफिस पर खूब चली। फिल्म ने
बहुत पैसा कमाया। बहुत, मतलब इतना कमाया कि दक्षिण के ही एक कलाकार कच्चा सुदीप ने
वक्तव्य दे डाला कि अब दक्षिण की फिल्में राष्ट्रव्यापी हो गई हैं। जैसे बाहुबली,
पुष्पा द राइज और अब के जी एफ 2। इसलिए अब
हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं रही। बात को हिंदी कलाकार अजय देवगन ने अपनी तरह समझा और
आवेश में उन्होंने भी एक वक्तव्य दे डाला – ‘हिंदी हमारी रा।ट्रभाषा और मातृभाषा थी, है
और हमेशा रहेगी।
मुझे तो वक्तव्यों का कोई तुक
समझ में नहीं आया। किसी फिल्म के राष्ट्रव्यापी होने या न होने से हिंदी का हमारी
राष्ट्रभाषा होने न होने का क्या संबंध है ?
शायद किच्चा सुदीप को लगता है कि
राष्ट्रव्यापी होना ही राष्ट्रभाषा होना है। अन्यथा ऐसे वक्तव्य का कोई औचित्य समझ
में नहीं आता। उधर अजय देवगन के बयान से भी लगता है कि उनको भी यह पता नहीं है कि
हिंदी या कोई अन्य भाषा कभी भी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं रही, न ही आज है। शायद वे
इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं। रही मातृभाषा की बात तो हर व्यक्ति की मातृभाषा अपनी होती
है। कोई भी एक भाषा पूरे राष्ट्र के नागरिकों की मातृभाषा नहीं हो सकती। दोनों ही
वक्तव्य त्रुटिपूर्ण हैं।
कई फिल्मी हस्तियों ने तरह-तरह
के वक्तव्य दिए। किसी ने कहा हर भाषा की इज्जत करनी चाहिए । किसी ने कहा बहुभाषी देश
में एक भाषा की क्या जरूरत है । किसी ने कहा राष्ट्र भाषा है। किसी ने कहा मातृभाषा
है । किसी ने कहा संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए इत्यादि । इस पर गायक कलाकार
सोनू निगम ने सही कहा कि हिंदी या कोई भाषा भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है, न थी।
हिंदी हमारे देश की राजभाषा है।
यहाँ तक बात सुदीप और देवगन के कथनों
के इर्दगिर्द ही थी किंतु इसके बाद राष्ट्रव्यापी को लोगों ने भुला दिया और बहस
का विषय हो गया हिंदी राष्ट्रभाषा – है या
नहीं, भारतीयों की मातृभाषा है या नहीं, हिंदी बनाम अंग्रेजी, संस्कृत को
राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए – वगैरह वगैरह।लोगों ने पता नहीं ऐसा जानबूझ कर किया
या अन्जाने में किंतु एक बार फिर राष्ट्रभाषा पर अनावश्यक बहस छिड़ गई। आज जिस तरह
देश हिंदू राष्ट्र निर्माण की तरफ झुक रहा है या झुकाया जा रहा है, उन परिस्थितियों
में यह बहस उनके लिए एक काम का मुद्दा बन गया ।
अब जब भी , जैसे भी हिंदी या
राष्ट्रभाषा का मुद्दा आता है तो सबसे पहले बड़ी प्रतिक्रिया आती है तमिलनाडु से।
वहाँ के एक नेता ने कह दिया कि हिंदी वाले तो यहाँ पानी पुरी बेचते हैं, पता कर
लीजिए पानी पुरी बेचने वाले लोग कौन हैं ? बात वाकई सही हो सकती है कि यू .पी. या
बिहार के लोग अपनी रोजी रोटी के लिए पानी पुरी का ठेला लगाए होंगे किंतु जिस तरह
से हिंदी भाषियों के लिए एक मद में जो
वक्तव्य दिया गया वह सही में अपमान जनक व निंदनीय है। आपको अपनी भाषा का आदर करने
का पूरा अधिकार है, आपका फर्ज है किंतु किसी दूसरे व्यक्ति या दूसरी भाषा का अकारण
इस तरह अनादर करने का हक किसी को नहीं है। वैसे हिंदी के कई पक्षधर ऐसे ही
अंग्रेजी की अवहेलना करते हैं, वह भी गलत है, निंदनीय है। यदि कोई आपसे कहे कि
मेरी माँ आपकी माँ से अच्छी है या सुंदर है तो आपको कैसा लगेगा ? इसमें यथार्थ को कोई जगह नहीं है। यह तुलना ही बेमानी है। यह किसी को ठेस
पहुँचाने का असभ्य तरीका है।
इसी बीच हमारे गृह मंत्री अमित
शाह ने संविधान की राजभाषा समिति के 37
वीं सम्मेलन में 7 अप्रेल 2022 को कहा कि हिंदी का सम्मान करना जरूरी है। यह हमारी
राजभाषा है इसलिए हमारे राज्यों के बीच की संपर्क भाषा हिंदी ही होनी चाहिए। देश
में 10 वीं तक की कक्षाओं में हिंदी अनिवार्य होनी चाहिए।
इस पर खासकर उत्तर पूर्वी
राज्यों और दक्षिणी राज्यों से भरपूर प्रतिक्रिया आई।
कर्नाटक के सिद्धिरामैया ने कहा
कि हिंदी कभी भी राष्ट्रभाषा रही ही नहीं और न ही
हम बनने देंगे। नहीं रही, यह तो ठीक है पर नहीं बनने देंगे - यह क्या हुआ? कानीमोझी ने कहा कि एक राष्ट्र
एक भाषा सूत्र से देश जुड़ेगा नहीं टूटेगा।
टी. एम. सी. के कुणाल घोष ने कहा
कि हम हिंदी की इज्जत करते हैं किंतु हिंदी थोपने का विरोध भी करते हैं। पी. एम. के. के रामदास ने कहा कि अमित शाह
का वक्तव्य हिंदी थोपने के अलावा कुछ नहीं है।
उत्तर पूर्वी राज्यों के
विद्यार्थी संगठनों ने हिंदी थोपने का विरोध करने का निर्णय लिया है। विधायक अखिल
गोगोई ने कहा - हिंदी थोपने के बदले केंद्र को चाहिए कि वह हिंदी थोपने के बदले
में प्राँतीय भाषाओं की प्रगति और रक्षा का मुहिम चलाए। विपक्ष के नेता
लूरिनज्योति गोगोई ने कहा कि अमित शाह का वक्तव्य उन्हीं की इस बात का खंडन करता
है कि केंद्र उत्तरपूर्वी राज्यों की जनता की भावनाओं की कद्र करता है।
शिव सेना के मनीष कायंड़े का
कहना है कि ऐसा प्रतीत होता है कि क्षेत्रीय भाषाओँ की प्रमुखता , प्रखरता और
उपयोगिता को नीचा दिखाने के लिए ही ऐसे किया जा रहा है।
ए. आई. डी. एम. के. के कोवाई
सत्यम ने कहा कि हिंदी हर भारतीय की मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा
का स्थान नहीं ले सकती। नागरिकों को मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा हिंदी से प्यारी
होती है और इनको हिंदी से विस्थापित करना संभव नहीं है।
काँग्रेस के शशि थरूर ने कहा कि
केंद्र की सरकार हिंदी थोप रही है। उन्होंने कहा कि केंद्र ने तो टीचर्स डे को
गुरुपूर्णिमा नाम दे दिया। पर मुझे तो लगता है कि टीचर्स डे (शिक्षक दिवस) श्री
राधाकृष्णन जी का जन्म दिन होता है और गुरुपूर्णिमा महर्षि वेदव्यास का – केंद्र
ने ऐसी गलती कैसे की होगी?
अब देखिए मसला क्या था क्या बन
गया या बनाया गया ? मूल मुद्दा तो लोग भूल ही गए। बचा रह गया, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने और राजभाषा के थोपने और उपयोगिता का ।
यदि सही में केंद्र चाहती है कि
हिंदी की उपयोगिता बढ़े तो पहले हिंदी भाषी राज्यों में इसे जरूरी क्यों नहीं करती ? वहाँ की जनता तो इसका खुशी-खुशी स्वागत करेगी। उसके बाद अर्ध हिंदी भाषी जैसे
महाराष्ट्र, ओड़िशा, हरियाणा, पंजाब में किया
जाए तो आसान होगा. दक्षिणी राज्यों में ही पहले करना और हर बार एक झमेला
करना ही क्या केंद्र का मकसद रह गया है? हाँ, हिंदू राष्ट्र निर्माण में यह सहायक
जरूर होगा।