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रविवार, 21 फ़रवरी 2021

समीक्षा " अंतस के मोती"

        

सुश्री सुस्मिता देव द्वारा पुस्तक "अंतस के मोती" की समीक्षा

आज मेरी समीक्षा का विषय है – “अंतस के मोती

यह पुस्तक श्री माडभूषि रंगराज अयंगर जी व उनकी अनुजा श्रीमती उमा माडभूषि जी द्वारा लिखित है। यह पुस्तक उन्नीस कहानियों तथा गयारह लेखों का संकलन है। यह कहानियाँ जीवन के दिन - प्रतिदिन की घटनाओं तथा अनुभवों पर आधारित हैं, जिनमें पाठकों को प्रायः अपने जीवन की घटनाओं और अनुभवों की झलक मिलती है। इस पुस्तक के लेख युवा पीढ़ी के लिए ज्ञानवर्धक तथा मार्गदर्शक हैं। इनमें से कुछ जैसे आरक्षण, हमारे राष्ट्रीय पर्व, प्रतीकात्मकता इत्यादि गंभीर विषयों पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं और उन्हें गंभीरता से सोचने पर मजबूर करती हैं। इन लेखों में कहीं-कहीं पर अंग्रेजी के शब्दों का बखूबी प्रयोग किया गया है, जो पुस्तक को सरल और बोधगम्य बनाने में सहयोग देता है।

मेरे विचार में पुस्तक का शीर्षक अंतस के मोती से तात्पर्य है - अंतर्मन के सुंदर अनुभव, विचार, भावनाएँ आदि। यहाँ मोती की तुलना यादों और विचारों से की गई है। जैसे मोती श्वेत, सुंदर और निर्मल होते हैं वैसे ही पुस्तक में लिखी गई कहानियाँ और लेख - लेखक तथा लेखिका के सुंदर तथा अमूल्य स्मृतियों, अनुभवों और निर्मल विचारों को दर्शाती हैं।

 

धन्यवाद

सुस्मिता देव

28.10,.2020

 

कोरोना - लॉक डाउन – वर्क फ्रम होम

कोरोना - लॉक डाउन – वर्क फ्रम होम

 

दिसंबर 2019 के कोविड 19 (अब वैश्विक महामारी) ने तो सारे विश्व में खलबली मचा दी है। लोगों ने आपस में मिलना ही बंद कर दिया। सामाजिक मेल - मिलाप तो करीब खत्म ही हो गया। मिलने पर हाथ मिलाने और गले मिलने वाले लोग अब अभिवादन में हाथ जोड़कर नमस्कार करने लग गए हैं। मजबूरी में ही सही दुनियाँ को अभिनंदन की भारतीय परंपरा को निभाना पड़ा। कहा गया कि यह बीमारी नाक - मुँह से निकले महीनकणों से फैलती है। यदि छींकने वाले ने सही तरीके से हाथ नहीं धोया हो या मुँह - नाक में डाले हाथ सही नहीं धोए गए, तो ये भी बीमारी के संक्रमण का कारण बन सकते हैं। इन सबके चलते और बहुत सी अनभिज्ञताओं के कारण सार्वजनिक स्थानों को बंद कर दिया गया। विद्या संस्थान , मनोरंजन केंद्र (सिनेमा और नाटक केंद्र), पार्क, जिम, सुपर मार्केट, व्यापारिक माल और यहाँ तक कि कुछ समय के लिए सब्जीमंडियाँ और अस्पताल भी बंद कर दिए गए। पूरे विश्व में अनभिज्ञता बनी रही कि इसका कारण क्या है? कैसे फैलता है? और बचाव के उपाय क्या  हैं? स्थिति पूरी तरह नियंत्रण से परे थी। सारे विश्व में इसकी वजह से मौतें हो रही थीं। सब तरह की सार्वजनिक स्थानों के साथ सरकारी – गैर-सरकारी कार्यालय भी बंद हो गए किंतु कब तक? इस हालात को सारे विश्व ने लॉकडाउन का नाम दिया।

लॉकडाउन के पहले साधारणतः सबको पाँच दिन तो कार्यक्षेत्र जाना ही होता था, पर छठे दिन भी हर दिन की तरह ही हर बार जाना पड़ता था। हाँ, सातवें दिन की छुट्टी मिलती थी, किंतु सप्ताह में एक दिन के लिए बहुत से काम इकट्टे हो चुके रहते थे, इसलिए उसी में दिन कट जाता था। कभी किसी के घर कोई बैठक हुई तो वह दिन भी गया। इसलिए एक दिन भी घर के काम करने का मौका नहीं मिलता था। सोचते थे कि एकाध दिन घर से काम करने का मौका मिल जाता तो घर के कुछ काम भी हो जाते।

जिन संस्थानों में घर से काम करने की छूट थी, उन्होंने तो अगले दिन ही वर्क फ्रम होम का फरमान जारी कर दिया। धीरे - धीरे और भी संस्थान इस ओर बढ़ने लगे। कुछ ही समय में यह जिंदगी का एक रवैया बन गया। स्कूलों ने भी टीच फ्रम होम शुरू किया। जो बड़े नामी स्कूल थे उन लोगों ने पहल दिखाई और फिर मध्यम तरह के स्कूलों ने भी यही रुख अपनाया।

लॉकडाउन से पहले साधारण समय में कर्मचारी चाहते थे कि उन्हें वर्क फ्रम होम का मौका मिले जिससे वे कुछ व्यक्तिगत और घरेलू काम भी निपटा सके, जो साधारणतः कार्यालयीन समय में ही हो पाते हैं। इसके लिए उनको अपने उच्च अधिकारियों से सम्मति लेनी पड़ती थी, कभी - कभी तो मनाना भी पड़ता था। पर अब तो सरकारी कानून के तहत ही वर्क फ्रम होम हो गया। इसलिए कर्मचारियों को लॉकडाउन का मजा आने लगा। घर वालों को भी अच्छा लगता था कि बच्चे घर पर हैं। बहू भी घर पर ही रहती है। छोटे बच्चे खुश थे कि मम्मी - पापा घर पर ही रहते हैं। घर पर लोगों को अच्छे खाने की चीजें मिलने लगीं। हर दिन पिकनिक सा लगने लगा। कर्मचारी भी खुश थे। उनको भरी ट्रेफिक में बस, लोकल, मेट्रो, स्कूटर, मोटर सायकिल, कार इत्यादि तरीकों से सफर करने से निजात मिल गई थी। पेट्रोल - डीजल के साथ समय की भी बचत हो रही थी। सब तरफ खुशी का ही माहौल था।

पहले ऑफिस की एक रूपता से लोग परेशान थे कि कब घर से काम करने का मौका मिले।  पहले होटल में खाने की इच्छा का पूरा आनंद मिलता था किंतु कुछ ही समय में मन ऊबने लगा। मौका मिलते ही घर के खाने को लालायित रहते थे। अब तो बात ही बदल गई है। वर्क फ्रम होम में तो अब रोज ही घर का खाना मिलता था। पहले - पहल तो बहुत मजा आया, पर धीरे - धीरे ऊब सी होने लगी, नौ महीने जो हो गए घर पर रहते – रहते । लड़कियों – स्त्रियों (कुवाँरियों, पत्नियों और माताओं) का काम तो दुगुना - तिगुना हो गया। पहले सुबह काम करके ऑफिस चली जाती थीं और उसके बाद घर का सब कुछ भूल जाती थीं। शाम को जब भी लौटती तो थोड़ा बहुत आराम करके या चाय पीकर फिर काम पर लग जाती थीं। किंतु अब तो दिन भर ही रसोई का काम लगा रहता है।

कभी सासु जी ने थोड़ा सब्जी देखने को कह दिया तो कभी ससुर जी ने चाय की फरमाइश कर दी। कभी बच्चे ने लाड़ पाना चाहा और कभी तो ये ही फरमाइश कर देते कि कुछ चबेना ही ला दो। बाहर की कोई चीज खाई नहीं जाती थी कि कोरोना का डर जो था।

काम तो छोटे ही होते थे पर इनका असर ऐसा होता है जैसे एक रेलगाड़ी को किसी स्टेशन पर एक मिनट के लिए रोक लिया गया है। पूरी रफ्तार से जाती हुई रेलगाड़ी को रुकने के लिए और फिर एक मिनट रुककर फिर से पूरी गति पाने के लिए जो समय लगता है उससे समय तो बरबाद होता ही है साथ गाड़ी की रफ्तार भी कम हो जाती है। नुकसान एक मिनट मात्र का नहीं पूरे पंद्रह मिनट का होता है।

जो खुद सॉफ्टवेयर में काम करते थे, उन्हें ही पता होता है कि मीटिंगों में से पांच - दस मिनट का ब्रेक लेने से क्या होता है ? उसके बावजूद भी मम्मी - पापा की फरमाइशों पर रोक लगाने के बदले उन्हें पूरा करने को कहने में ये कोई कसर नहीं छोड़ते थे। काम की तारतम्यता में फर्क पड़ता था। इस तरह वर्क फ्रम होम जिसके लिए पहले लालायित रहते थे, अब परोशानी की वजह बन गई थी। पहले - पहल कुछ ज्यादा सोने को मिलता था तो मजा आता था किंतु वही आदत अब आलस का कारण बन गई थी। सब कुछ मिलाकर वर्क फ्रम होम स्त्रियों के लिए वरदान नहीं अभिशाप बन गया। बात आगे बढ़ी तो कटाक्ष भी होने लगे। बेचारे पति की हालत इसलिए भी खराब थी कि वह पत्नी की साथ दे या माँ का। दोनों को मनाना तो बहुत मुश्किल काम था। पत्नी इसलिए दुखी थी कि ऑफिस का काम करते हुए देखकर भी पति उस पर पड़ रहे दबाव या इल्जाम में माँ से कुछ कहते नहीं थे। इस तरह घर की शाँति भंग होने लगी। पति - पत्नी के बीच रुष्टता ने    धीरे - धीरे अनबन की तरफ बढने लगी।

कहीं बाहर आने - जाने को नहीं था। न लॉन्ग ड्राइव, न सिनेमा, न पार्क, न किसी दोस्त के घऱ मिलने जाना, सब कुछ बंद हो गए थे। घर और ऑफिस के काम का तनाव, सब के चलते शारीरिक आलस और मानसिक तनाव उभरने लगे। कार्यालय में साथियों के साथ गुफ्तगू, कैंटीन की मस्ती, आपसी छेड़छाड़, काम की झिक – झिक, जो कभी परेशानी की वजह थे, अब उनकी कमी महसूस होने लगी। अब समझ में आने लगा था कि इनकी भी जीवन में एक प्रमुखता थी।

पहले पुरुष भी मजे लेने लगे पर कुछ समय बाद उन्हें भी बोरियत होने लगी। कुछ ने रसोई में पत्नी का हाथ बटाया, तो किसी ने कुछ पकाने की कला मे अपना हाथ आजमाया। कइयों ने तो पाककला में महारत हासिल कर लिया। कुछ लोगों ने तो खाली समय में बोरियत दूर करने के लिए अपने पुराने शौक पूरे करने का सोचा। कोई पेंटिंग करने लगा, तो कोई लिखने लगा। किंतु बात यही हर जगह हो रही थी कि कुछ भी काम लगातार कितने समय के लिए किया जा सकता था। कुछ अंतराल पर ही बोरियत मुंह बाए खड़ी हो जाती थी। घर बैठे खाते - पीते वजन बढ़ रहा था और जिम बंद थे, उसकी चिंता अलग थी।

पहले - पहले शायद कंपनियाँ भी सोचती थी कि कुछ समय का लॉकडाउन है जल्दी ही खत्म हो जाएगा और फिर दिनचर्या साधारण हो जाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं नजर आया। इससे उन्होंने कर्मचारियों पर काम के लिए दबाव ड़ालना शुरु कर दिया। अब लोगों को काम में ज्यादा समय देना पड़ रहा था। लॉकडाउन की वजह से जो घरेलू काम संभव हो रहे थे, व्यस्तता के कारण उनमें खलल होने लगी।

ऐसा नहीं कि लॉकडाउन से नुकसान ही हुआ है। कुछ परिवार जो अपनी इकाई में अलग रहा करते थे वे मार्च में होली – उगादी के लिए मायके या ससुराल गए थे और लॉकडाउन की वजह से वहीं अटक गए, उनको अपने परिवारों के साथ रहकर, उनको बेहतर समझने का मौका मिला। बड़ों ने छोटों की और छोटों ने बड़ों की मानसिकता और मजबूरियों को समझा और उनके बीच की मनमुटाव में कमी आई। एक दूसरे को समझने के लिए वक्त मिला। पुरुषों ने पाक कला में हाथ साफ किया। घरेलू स्त्रियों को घर वालों की सेवा का अच्छा मौका मिला, इससे उनकी साख बढ़ी।

उधर छोटे - मोटे धंधे करने वालों के धंधे बंद हो गए। उनको अपनी बचत से ही घर चलाना पड़ा। किंतु उस बचत का अंत दिखने लगा। दर रोज मेहनत मजदूरी करने वालों की मजदूरी भी बंद हो गई। उनके पास से बचत की क्या उम्मीद की जाए? वे बेचारे जैसे संभव हुआ, अपने स्थिर ठिकाने पर जाने को मजबूर हुए। न जाने क्यों ? पर सरकार ने विदेश में रहने वाले भारतीयों के लिए तो उड़ानों का इंतजाम किया, किंतु इन मजदूरों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया। कई तो देश के इस छोर से उस छोर तक पैदल जाते हुए जान भी गँवा बैठे, किंतु सरकार को कोई पर्क नहीं पड़ा। जब सरकार को कुछ करने का मन हुआ, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सरकार ने कानून तो बना दिए कि किसी की तनख्वाह न रोकी जाए, किसी को नौकरी से न निकाला जाए। किंतु जब ऐसा हुआ तो सरकार चुप्पी साधी रही। वैसे इस सरकार की आदत ही रही है कि इसने बातें ही की हैं, कानून ही बनाए हैं और उनके क्रियान्वयन पर कभी ध्यान दिया ही नहीं।

इस विषय में सिने कलाकार सोनू सूद का आगे आना और इन गरीबों की सहायता करना एक बहुत ही सराहनीय कार्य रहा।

यह तो था बडों का हाल, अब बच्चों की बात करें। स्कूल बंद हो गए। बच्चों की पढ़ाई बंद हो गई। बच्चों ने सुबह समय से उठना, नहाना तैयार होना नाश्ता करना, स्कूल बैग सजाना, बस के लिए समय से निकलना सब बंद कर दिया। एक शब्द में कहें तो बच्चों में अनुशासन खत्म हो गया। यह तो अभिभावक ही समझेंगे कि स्कूल खुलने पर यह अनुशासन फिर कैसे लौटेगा। अभी उनको न होमवर्क करना है, न ही क्लास टेस्ट देना है, मजे ही मजे हैं। खाते, खेलते (घर में ही) और सोते है। इसकी वजह से उनकी सेहत खराब हो रही है। बच्चों ही नहीं, बड़ों में भी मोटापे और वजन की समस्या बढ़ी है। डाक्टरों के पास जाना नहीं हो पा रहा है।

वर्क फ्रम होम और टीच फ्रम होम होने के कारण कई बच्चे जो मिड डे मील के लिए स्कूल जाते थे, वे लंच से वंचित हो गए। उनका लंच भी अब घर के खाने से  ही  आता है। इससे घर के खर्चे बढ़े। इनमें ज्यादातर बच्चे ऐसे परिवारों से थे जिनके पास स्टड़ी फ्रम होम के लिए आवश्यक एंड्रायड फोन (स्मा्र्ट) और इंटरनेट कनेक्शन की सुविधा  भी नहीं थे। फलस्वरूप अधिकतर बच्चे बाल मजदूरी को मजबूर होकर परिवार की आमदनी का हिस्सा बन गए। अब पता नहीं कि स्कूल खुलने पर इनमें से कितने बच्चे वापस स्कूल पहुँचेंगे।

बच्चों  के पढ़ाई का वर्ष बरबाद न हो इसलिए कई राज्यों और केंद्र ने 11वीं तक सबको बिना काबिलियत आँके (परीक्षा के) ही जनरल प्रमोशन दे दिया। सत्र 2019-20 में यही हुआ और अब तक स्कूलों के न खुलने के कारण इस सत्र में भी यही होने वाला है। ज्यादा से ज्यादा 10 वीं और 12 वीं की परीक्षाएँ हो जाएँगी । बच्चे ने घर पर पढ़ाई की या नहीं, सही ढ़ंग से पढ़ा और सीखा या नहीं, इसकी बाध्यता किसी की नहीं  लगती। साफ जाहिर है कि 10 वीं और 12 वीं की पढ़ाई और परिणाम ही बच्चे के जीवन की नींव हैं। अब पता नहीं इस नींव पर कैसी इमारत बनेगी और वह कितने समय रहेगी या ढह जाएगी।

उधर शिक्षक- शिक्षिकाओं का तो हाल ही खराब है। वर्क फ्रम होम में ऑनलाइन क्लासेस की फरमाइश हो रही है। जिन पचास वर्षीय शिक्षकों ने कभी कंप्यूटर थामा ही नहीं उनको अब जूम पर लेक्चर लेना (सीखना) पड़ रहा है। सीखें भी तो कहाँ से, सब कुछ तो बंद हैं। ऑनलाइन के लिए नोट्स बनाने पड़ेंगे, बच्चों को देने के लिए भी सॉफ्ट नोट्स बनाने होंगे। हर काम जो आमने-सामने होता था। अब ऑनलाइन होगा तो उसके लिए जानकारी चाहिए। इस पर शिक्षकों का अतिरिक्त समय खप रहा है। मजेदार बात यह भी कि स्कूल नहीं जाने की वजह से शिक्षकों की तनख्वाह कम कर दी गई है। कहीं 70% की गई है तो कहीं 30% भी की गई है। अब एक परिवार वाला ही जानता है कि 30% तनख्वाह से कोई परिवार कैसे जिएगा। जवाब मिलता है कि इतने सालों की नौकरी में बचत तो की होगी ना? किंतु वहीं इसी स्कूल का प्रबंधन यह नहीं सोचता कि इतने सालों से स्कूल के द्वारा लाखों - करोड़ों प्रति महीने कमाने वाले, अपने भरोसेमंद शिक्षकों को पूरी तनख्वाह क्यों नहीं दे सकते?

दूसरी तरफ जब बच्चे पढ़ने के लिए ऑन-लाइन जुड़ते हैं तो साथ में कुछ अनचाहे लोग भी जुड़ जाते हैं। कारण यह कि किसी विद्यार्थी ने अपने किसी जानकार को पासवर्ड और मीटिंग आई डी दे देता है और वह उसी विद्यार्थी के नाम से जुड़कर ऑनलाइन कक्षा में अन्य विद्यार्थियों की शिक्षा में खलल डालता है और और शिक्षक - शिक्षिकाओं को लिए अपशब्द – गाली गलौच लिखता रहता है। वे अपशब्द इतने नीच स्तर के होते हैं कि उसे यहां रखना भी अनुचित होगा। स्कूल प्रबंधन चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा वक्त पढ़ाई में लगाया जाए किंतु ऐसी हरकतों से निजात पाने के लिए कुछ नहीं करता। जिसकी वजह से शिक्षकों को हर छात्र को नाम फोटो के साथ मिला कर ही प्रवेश देना पड़ता है। इसमें कक्षा का आधा समय जाता रहता है। करीब यही हाल कोचिंग केंद्रों  का भी है।

स्कूल प्रबंधन चाहता है कि पढाई हो रही है इसलिए बच्चे पूरी फीस दें और वे यह भी चाहते हैं कि अभी शिक्षक ही बच्चों के अभिभावकों को इस बारे में समझाएँ, क्योंकि शिक्षक ही बच्चों से संपर्क मे हैं। वैसे यह काम साधारणतया मिनिस्टीरियल स्टाफ करता है। मतलब यह कि आधी वेतन में शिक्षकों से यह भी उम्मीद की जाती है कि वे अपनी जिम्मेदारी से परे दूसरों का काम भी करें। यह तो अति है। वह मिनिस्टीरियल स्टाफ ऑनलाइन संपर्क क्यों नहीं कर सकता या प्रबंधन खुद ही बात क्यों  नहीं कर सकता? इसका जवाब है – कमजोर कड़ी कौन?  

ऐसी हालातों में कम से कम उन शिक्षिकाओं को तो बुरा हाल है जिनका नौकरी करना परिवार को निबाहने के लिए जरूरी है। यदि पति किसी कारखाने में कार्यरत है, तो फिर उनकी नौकरी तो गई होगी। इनकी तन्ख्वाह भी कम हो गई। घर में काम भी बढ़ गया और स्कूल का काम भी बढ़ा। बच्चा पढ़ रहा था, पर अब घर पर है तो उसकी और उनकी फरमाइशें भी बढ़ीं। इन सबका बोझ तो शिक्षिका पर ही पड़ा ना? इस तरह की अवस्था में कई तो मानसिक संतुलन खोकर डिप्रेशन में जा रही हैं।

उधर बड़ी कंपनियों ने अपने कार्यालय में आराम करने की सुविधा, जिम, खानपान की सुविधा, परिवहन की सुविधा, बिल्डिंग व अन्य उपकरणों के रखरखाव, इन सबका खर्च बचा लिया पर कर्मचारियों को इसके एवज में कुछ नहीं मिला।

शिक्षक – शिक्षिकाओं की हालत तो बद से बदतर होती गई। स्कूल प्रबंधन जब चाहे तब - कभी घर से तो कभी स्कूल से ऑनलाइन पढ़ाने के लिए कहा गया। बहुतों के पास स्मार्ट फोन भी नहीं था। इंटरनेट का बढ़ा हुआ खर्च भी शिक्षकों के मत्थे आ गया। उनकी दिनचर्या दिनों - दिन बदलती है, जो स्वतः ही समस्या का एक कारण है।

तनख्वाह कम हो गया है और काम ज्यादा हो गया है या यूँ कहें कि तनख्वाह घट गई और काम बढ़ गया। क्लर्कों और प्रबंधकों का काम भी शिक्षकों पर थोपा जा रहा है। कारण बताया जाता है कि शिक्षक बच्चों के संपर्क में हैं। पर यह उनकी सोच में क्यों  नहीं आता कि कंप्यूटर नहीं जानने के बाद भी जब शिक्षक वर्ग विद्यार्थियों से संपर्क साध सकते हैं, तो पढ़े लिखे लिपिक या प्रबंधन के लोग क्यों नहीं कर सकते ? कारण साफ है कि कमजोरों पर जोर लगाना आज के प्रबंधन का विशेष तरीका है। बरसों से ही कहा जा रहा है कि अच्छे काम की पुरस्कार ज्यादा काम होता है।

सबसे बड़ा मजाक यह कि कोरोना की वजह का सही पता नहीं चल रहा था और अस्पतालों में करोना मराजों के बिल लाखों में आ रहे थे। पहले मास्क जरूरी था फिर असरहीन हो गया। पहले दूरी जरूरी थी अब देखो किसान आंदोलन में कितनी दूरी बना रहे हैं? एक भी कोरोना का मरीज तो निकला नहीं वहाँ से। फिर वैक्सीन जरूरी हो गया, अगले कदम बताया गया कि ऐसा नहीं है कि वैक्सीन लेने को बाद करोना नहीं होगा। अब खबरें आने लगी है कि शायद वैक्सीन असरदार न हो।  फिर किसलिए यह सब हंगामा?

मुझे ऐसी भी जानकारी है कि कुछ लोगों ने होमियोपैथिक दवाओं से 400-500 कोरोना मरीजों को ठीक किया है। ठीक हुए मरीजों की टिप्पणियाँ आ रही हैं। उनके फोन नंबर और पते की जानकारी भी उपलब्ध हो रही है। यह भी कि उनके इस संबंध में डाले गए वीडियों फेसबुक और यू - ट्यूब से हटाए गए हैं। यह दर्शाता है कि इसके पीछे कोई लॉबी काम कर रही है।

इसी दौरान कइयों ने तरह –तरह के वक्तव्य दिए जो आपस में ही टकराते थे। यह इतना बढ़ गया कि सार्वजनिक खबरों के माने को कहता तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि सब हवा में तीर मार रहे है किसी को कोई ठोस जानकारी नहीं है।  माध्यम की साख ही गिर गई। कोई कहता दवाइयाँ लीजिए तो कोई मना करता। कोई कहता एलोपैथी में जाइए तो कोई कहता होमियोपैथी पर ही जाएँ।

उधर कोरोना बीमारों की तीमारदारी करने वालों की हौसला अफजाई करने के लिए थाली-प्लेट- बरतन बजाने को कहा गया। लेकिन समाज में यह फैला कि इस शोर और स्पंदन की वजह से करोना भागेगा। यह एक मजाक सा हो गया। दूसरी बार कहा गया कुछ समय के लिए घर की बत्तियाँ बंद रखी जाएँ – तो अति उत्साहित लोगों ने स्ट्रीट लाईट भी बंद करवा दिया। अंजाम कहाँ क्या हुआ पता नहीं, पर कुछ जगहों से इसी दौरान चोरी की घटनाओं की खबर मिली है। और घटनाओं का जिक्र यहाँ न हीं करें तो उचित है। लोगों को जो असुविधा हुई वह अलग बात है।

अंततः हुआ क्या? सबने हाथ खड़े कर दिए यह कहकर कि अपनी रक्षा स्वयं कीजिए। यही बात साल भर पहले भी कही जा सकती थी। सरकार का इतना खर्च तो बचता। कम से कम सरकार आर्थिक बेहाली के लिए कोरोना पर दोष तो नहीं  मढ़ पाती, किंतु मकसद ही कुछ और था।

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