मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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गुरुवार, 17 मार्च 2011

अंधविश्वास...


अंधविश्वास......

शाब्दिक अर्थों में जाएँ तो अंधविश्वास का मतलब हुआ - बिना जाने समझे विश्वास करना. तात्पर्य निकाला जा सकता है कि विषय को जाने समझे बिना, विश्वास कर लेना – संक्षिप्त में अंधविश्वास कहलाता  है. अंग्रेजी में इसे ही ब्लैंड फेइथ ( Blind Faith) के नाम से जाना जाता है. सामाजिक तौर पर पुरानी रूढिवादी विचारों से प्रभावित होकर किए जाने वाले कार्यों को जिसमें कारण अज्ञात होता है, हम अंधविश्वास कहते हैं.

आइए एक उदाहरण लेते हैं – कहा जाता है कि बिल्ली को मारने से पाप लगता है. और जिसके हाथों बिल्ली मर जाती है उसे पाप से मुक्ति के लिए बिल्ली के भार की सोने की बिल्ली दान करनी पड़ती है. और इसी कारण कोई बिल्ली को मारने की हिम्मत भी नहीं करता – यह बात अलग है कि वह बिल्ली को मार पाएगा या नहीं.

इस पर जरा विचारें. हमारे बुजुर्गों ने यह धारणा बनाई कि बिल्ली को मारने वाले को पाप मुक्ति के लिए समभार सोने की बिल्ली दान देना होगा.

कभी कभी तो ऐसा आभास होता है कि यह सब जनता को लूटने के लिए पाखंडी पंडितों द्वारा रचा गया स्वाँग है. फिर कभी तो लगता है कि शायद इसमें कहीं कोई सचाई हो और डर लगता है कि पालन नहीं करने पर कोई अनहोनी न हो जाए. हमारा सारा समाज जिसमें कई बुद्धिजीवी भी हो चुके हैं, कई सदियों से इनसे बँधा हुआ है तो कोई न कोई बात होगी. सोचा एक बार मनन कर ही लिया जाए. लेकिन विषय ही कुछ ऐसा है कि कोई विपक्ष में बैठने को तैयार ही नहीं होता. यदि कुछेक जवाब मिल भी जाते तो उनकी परख  कि वह सही हैं या गलत, इसकी  खबर कैसे लगती? किसकी मानें किसकी न मानें? फिर सोचा सही – गलत सोचने के लिए कॉफी समय बाकी है पहले कोई तर्क, वितर्क या कुतर्क ही – मिले तो सही. इसलिए सोचा चलो शुरु तो कर ही लेते हैं.

पहले पहल घर के बड़ों से पूछा. सबने हामी तो भरी हाँ ऐसा ही है कि सोने की बिल्ली दान करनी पडती है. लेकिन क्यों ? पर सभी चुप्पी साध जाते हैं. कहते हैं यही रीत है, ऐसा ही होता है. यहाँ आकर समझ पडता है कि लोग किस तरह पुरानी बातों का अनुसरण करते है. बिना जाने कि ऐसा क्यों किया जा रहा है ? शायद इसी को आज रूढिवादिता कहते है और जब कोई इसका उपयोग निजी स्वार्थ के लिए करता है तो इसे ही पाखंड कहा जाता है.

अब जहाँ कहीं, कभी भी, कोई ऐसा व्य़क्ति मिल जाता, जिससे कुछ आभास हो कि यह व्यक्ति मेरे सवाल के समाधान में सहायता कर सकता है - तो मैं उससे यह विषय छेड़ देता और हर संभव सूचना प्राप्त कर लेता.

एक बार मैंने अपने एक दोस्त से किसी अंग्रेजी पिक्चर की कहानी सुनी, जिसमें हीरो साहब किन्हीं कारणों वश बिल्ली को मारने पिल पड़ते हैं. मौका परस्त हीरो, एक दिन बिल्ली को बंद कमरे में पाकर पीटने की कोशिश करते हैं. चपल बिल्ली किसी के कब्जे में कैसी आती ? वह कूदती फाँदती बचती रही. कभी - कभी एकाध मार भी खाई, वह चीखती रही, गुर्राती रही  और उसकी बौखलाहट बढ़ती गई. धीरे धीरे दोनों थकने लगे. बिल्ली मार से परेशान खूंखार होती गई, जोर – जोर से गुर्राने लगी. उधर हीरो साहब भी थकने लगे. उन दोनों की ऊर्जा खत्म होने लगी और वह ढ़ीले पड़ने लगे.

बिल्ली ने भागने की तमाम कोशिशें की पर हार गई. रास्ता न था. मजबूरन वह उलट वार करने लगी. थके हारे हीरो को अब यह भारी पड़ने लगा. बिल्ली और हीरो दोनों एक दूसरे से जान बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे. अचानक मौका पाकर बिल्ली जबरदस्त तरीके से हीरो पर झपटी और उसके कंठ को धर दबोचा. हीरो की सांस रुकने लगी और उधर बिल्ली ने हीरो के कंठ को निचोडकर निकाल फेंका. हीरो साहब निढ़ाल हो गए.

लेकिन अब भी बिल्ली की परेशानी खत्म नही हुई. उसे तो कमरे से बाहर निकलना था. उसने पहले तो थोड़ा आराम किया. फिर पूरे जोर से उछल - उछल कर खिड़की के शीशे तोड़े. ताजी हवा पाई और खिड़की से बाहर निकल गई.

सुनकर ऐसा लगा कि बिल्ली में आदमी सो ज्यादा जान है. पर सवाल उठ खड़ा हुआ कि इसके सही या गलत होने की खबर कहाँ ढूँढें. बात जेहन में रह गई और सवाल अनुत्तरित रह गया.

कुछ सालों बाद एक दिन टॉर्च की बैटरी बदलते समय उस पर अंकित निशान पर पड़ी. तो दिमाग को एक झटका लगा. उस पर बिल्ली नौ (9) के अंक की ऊपरी गोलाई में से फाँदती दिखाई गई है. इससे समझ आने लगा कि बिल्ली, नौ का अँक और एवरेड़ी बैटरी के बीच कोई सामंजस्य बिठाया जा रहा है.

तत्पश्चात खोजबीन से जो कुछ जाना वह प्रस्तुत कर रहा हूँ :-

आदमी पंचप्राण है. जब उसे नया कुछ भान होता है जिसका कारण वह बता नहीं पाता तो कहता है मेरी सिक्स्थ सेंस ( Sixth Sense) कह रही है  कि...”. यानी अतिरिक्त सेंस के साथ भी आदमी को षट् प्राण कहा जा सकता है ज्यादा नहीं. लेकिन बिल्ली नव प्राण है इसी कारण बिल्ली को 9 के अँक के भीतर दर्शाया गया है. अतिरिक्त प्राण की वजह से ही बिल्ली ज्यादा फुर्तीली है और आदमी के ताड़ने के पहले ही भाग खड़ी होती है. इसीलिए बिल्ली आदमी के हाथ मारी नहीं जा सकती. शायद एवरेड़ी बैटरी के निर्माता कहना चाहते हैं कि हमारी बैटरी में बिल्ली जैसे अतिरिक्त (एक्सट्रा) जान है.

चलिए अपनी बात पर लौटते हैं. आदमी (5+1)) से ड्योढ़ा प्राण की बिल्ली (9) से आदमी किस तरह पार पा सकेगा. साधारणत: यह असंभव है. लेकिन जब आदमी पर वहशियत होती है तो इंसानियत उसका साथ छोड़ देती है और उस पर हैवानियत सवार हो जाती है. हैवानियत की ओर बढ़ते बढते, वह कुकर्मों द्वारा पाप का शिकार होता जाता है. उसकी बदकिस्मती से अगर हैवानियत की पराकाष्ठा पर यदि कोई बिल्ली से उसका वास्ता पड़ जाए तो शायद वह उस बिल्ली को मारने में भी सक्षम हो जाए बनिस्पत तब तक उसके हैवानियत की पराकाष्ठा नवप्राण की हद पार कर चुकी हो.

अब सोचिए एक आदमी अपने पंच प्राणों को त्याग कर हैवानियरत की हद तक चला जाता है और पूरी यात्रा मे पाप कर्म करता रहता है तब जाकर वह हैवानियत की पराकाष्ठा तक पहुँच पाता है और तब कहीं जाकर उसके हाथों बिल्ली मारी जा सकती है. क्या आदमी को उस हद तक जाने की अनुमति होनी चाहिए ? शायद नहीं न...

शायद यही सोचकर या कहिए इसीलिए हमारे पूर्वजों ने यह रीत अपनाई कि कुछ ऐसा किया जाए कि कोई ऐसी जगह पहुँच ही न पाए जहाँ से लौटा न जा सके. इसका सही तरीका था कि जुर्माना इतना हो कि भरपाई के डर से कोई ऐसी गलती ही न. सो तय किया कि भरपाई में आदमी के जीवन का सबसे कीमती सामान इतनी मात्रा में माँगा जाए कि वह भरपाई के काबिल भी न रह जाए और इसी सोच ने नियम या कहिए रीत बना ड़ाली कि जो भी बिल्ली को मारेगा वह पाप मुक्त होने के लिए बिल्ली के वजन की सोने की बिल्ली दान करेगा. इससे समाज मे भय तो पैदा हो ही गया और हद यह कि पीढ़ी दर पीढ़ी इसका खौफ आज तक भी चला आ रहा है.

जब बात इतनी तक आ गई तो समझ आया कि ये रूढ़िवादी  विश्वास या कहिए (so called) अँधविश्वास के भी कारण होते हैं. कई तो ऐसे होंगे, जैसे यह था, जिसे हम समझ नहीं पाते कि इनके पीछे कारण क्या है और नई पीढ़ी होने बिना समझे उसका पालन भी नहीं करना चाहते.

मेरा सुझाव है कि रूढ़ियों को यों ही न नकारें. पहले समझें कि कारण क्या है फिर देखिए कि आज के परिप्रेक्ष्य में वह कितना सही या गलत है. तब जाकर निर्णय कीजिए कि इसका पालन होना चाहिए या नही. मैं तो चाहूँगा कि इस बिल्ली वाली इस विश्वास का पूरी तरह पालन होना चाहिए ताकि लोग हैवानियत से दूर रहे. कारण जान लेने के बाद अब तो यह अँधविश्वास नहीं रहा !!!!!

माडभूषि रंगराज अयंगर.
17.03.2011 


मंगलवार, 15 मार्च 2011

मुर्दा नाचा

मुर्दा नाचा
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कल के उन फिल्म के दौर को,
याद करने से दुख होता है कि
हम आज कहाँ हैं ?

समाज का वह दर्पण जिसे
फिल्मी साहित्य के नाम से जानते हैं,
आज बाजारु हो गई है,
जिज्ञासा को परत दर परत ,
नोंच-नोंच कर आवरण रहित कर दिया है,

अर्धनग्नता की कामुता को,
नग्नता ने अश्लील बना दिया है।
हीरो व विलेन में अन्तर उतना ही बचा है,
जितना हीरोन व कैबरे डाँसर में रह गया है।

गानों के वे वर्ण, छंद राग व वे चित्रण,
अब नहीं मिलते,
जिसमें विता का आनंद था,
साहित्य का भी मान था,
राग की सलिलता थी,
और चित्रण न भावों को
आपस में बाँधने वाला माध्यम।
इससे हर तरह से आनंदमय
वातावरण बन जाता था।

सभी पारिवारिक सदस्यों के साथ
फिल्म देखने का,
एक अनूठा आनंद था,

अब या तो प्रेमी प्रेमिका,
या फिर पति पत्नी ही फिल्म को ,
साथ बैठ कर देख सकते हैं,
कॉलेज से भाग कर जाने वाले
छोरे छोरियों की छोड़ो,
दलों का मजा लेने वाले,
दलदल में भी खुश रहते हैं.

और कोई पारिवारिक सदस्य गर
साथ साथ फिल्म देखें तो-
क्या होगा ..
शायद भगवान भी
जानना नहीं चाहेगा।

गीत के बोल बातूनी,
छंद-लय की कहा सुनी, सुनी
ताल बेताल के,
और साज होगा जाज,
तारतम्यता लुप्त,
तौहीन साहित्य का,
सुप्तावस्था भी नयन फोड़,
खड़ी हो जाती है।

उन पुरीने गीतों की,
उनके लय की,
मधुरता और प्रवाह,
मानसिक शांति देती है,
और तन मन को तनाव मुक्त कर,
शवासन प्रदान करती है।
और आज ?
शायद मरघट पर,
आज के गीत बजाए जाएँ तो,
मुद भी खड़े होकर नाचने लगेंगे।
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