आस्था : बहता पानी
तैरना सीखने की चाह में,
वह समुंदर किनारे
अठखेलियाँ करने लगी.
लहरें कभी पाँव भिगोते तो
कभी तन ही को भिगो जाते.
एक लहर बहुत बड़ी
और बहुत तेज आई,
वो डर कर बैठ गई,
हाथ धरती पर टिकाए.
सहसा हाथ में कुछ आया,
लहर तो समुंदर में लौट गई,
पर उस मिले वस्तु को
वह घर ले आई.
उसे लगा कि
समुंदर में गोता लगाने से,
उसे मोती मिल गया.
बहुत खुश थी वह.
किसी ने बताया कि
मोती तो
सीप के भीतर से
निकालना पड़ता है,
यह मोती नहीं हो सकता,
तब उसने सोचा,
सागर तल से मिला है,
यदि मोती नहीं है तो
शालिग्राम जरूर होगा.
ये तो पूज्य है.
उसने उस वस्तु को
पूजा के लिए
मंदिर में बसा लिया.
रोज पूजा होती
उस शालिग्राम की,
विश्वास अटल बनता गया,
आस्था बढती गई,
स्थिर होती गई।
एक दिन किसी पूजन पर
पंडित जी घर आए,
उस वस्तु के बारे में पूछ लिया,
फिर समझाया,
बालिके, यह शालिग्राम नहीं,
कोई सामान्य पत्थर है.
कहाँ से उठा लाई?
क्या कहा ?
समुंदर से?
तैरना तो आता नहीं,
गोते लगा आई,
और लाई मोती
और शालिग्राम?
उसकी स्थिर आस्था पर
चोट हुई,
सहन नहीं कर पा रही थी.
अब तक तो
शालिग्राम मानकर ही
पूजा की थी.
पंडित जी दंग रह गए.
बोले, बालिके,
यह सब आस्था की ही बात है.
आप पूजना चाहो,
पूजो, पर सच्चाई जान लो.
तिस पर मानो तो
गंगा माँ है
गंगा माँ है
ना मानो,
तो बहता पानी.
तब बालिका ने उत्तर दिया -
पंडित जी,
आस्था
अंधी होती है और
जुनूनी
भी !
जिसे
शालिग्राम मान
इतने
दिन पूजा,
मंदिर
में बसाया
उसकी
सच्चाई,
अब आप मुझे बताएँगे ?
गलतफहमी ही सही,
मुझे भ्रम में ही रहने दीजिए,
पत्थर
के ईश्वर की भी,
मौजूदगी
हिम्मत देती है ।
उसी
हिम्मत के सहारे
मैं
जी लूँगी,
लड़ लूँगी
जिंदगी
की लड़ाई !
यही
मेरी आस्था है -
मानो
तो गंगा माँ है,
ना
मानो तो बहता पानी !!!!!...............