हिंदी : दशा और दिशा
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है. कांग्रेस के एक अधिवेशन में हिंदी को
राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है. भारत में जगह जगह पर राष्ट्रभाषा प्रचार
समितियों का गठन किया गया है. जिननें (केवल) हिंदी के प्रचार के लिए प्रबोध,
प्रवीण एवं प्राज्ञ जैसी परीक्षाओं का आयोजन माध्यम बनाकर लोगों को, खासकर अहिंदी
भाषियों को हिंदी में काबिल बनाने का यत्न किया. लेकिन यह समितियां भारत की अन्य
भाषाओं की ओर अन्यमनस्क एवं सुप्त थीं। भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा शब्द का
प्रयोग हुआ ही नहीं है. वहां राजभाषा व अष्टम अनुच्छेद की भाषाएं ही नजर आती हैं.
संविधान सभा की राजभाषा समिति में अंततः हिंदी व तामिल के बीच चुनाव हुआ, जिसमें
समान मत मिलने की वजह से अध्यक्ष श्री जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्षीयमत (कास्टिंग वोट) का प्रयोग करना पड़ा.
फलस्वरूप हिंदी राष्ट्रभाषा बनी. शायद इसी
द्वंद के कारण तामिल भाषी आज भी हिंदी को अपना नहीं सके . कई लोंगों ने भी इसका
भरपूर फायदा उटाया और दक्षिण भारतीयों को हिंदी से तोड़कर रखने में काफी मेहनत भी
की. आज यह प्रक्रिया सशक्त राजनीति का हिस्सा बन गई है.
सन् 1963 में (हिंदी) राजभाषा अधिनियम जारी हुआ लेकिन ताज्जुब इस बात का
होता है कि 1973 में जब मैंने हिंदी भाषी राज्य से हिंदी साहित्य विषय के साथ उच्चतर
माध्यमिक शिक्षा पूरी की, तब भी शालाओं मे राजभाषा के बारे कोई पढ़ाई या चर्चा
नहीं होती थी.
सन 1983 - 84 के दौरान जब एक सरकारी दफ्तर में जाने का अवसर मिला तब वहां
के प्रशिक्षण केंद्र में देखा –
“हिदी हमारी राष्ट्रभाषा ही
नहीं अपितु हमारे संघ की राजभाषा भी है”.
वहां का कोई कर्मचारी मुझे इसका अर्थ नहीं समझा पाया. बाद - बाद में
किताबों से जानकारी मिली कि राजभाषा क्या है और यह राष्ट्रभाषा से किस तरह भिन्न
है. क्या हम अपनी राजभाषा को परदे में सँजो कर रखना चाहते हैं?
यदि हिंदी का प्रयोग बढाना है और हिंदी को सही
मायने में अपनाना है तो इसे खुली छूट देनी होगी. हिंदी के सारे नियम कानून जगजाहिर
करने होंगे. सारे उच्चस्तरीय अधिकारियों को जन समुदाय को प्रोत्साहित करने के लिए,
मजबूरन ही सही अपने बच्चों को हिंदी
माध्यम स्कूलों में पढाना होगा. अधिकारी इससे कतराते क्यों हैं इसका राज , राज ही
है.... या उनकी समझ में भी अंग्रेजी ही शिखर की सीढी है.
50-55 साल के किसी बूढ़े को एक सप्ताह का
प्रशिक्षण दे देने से, वह हिंदी में पंडित नहीं हो जाता. इसके लिए आवश्यक है कि वह
व्यक्ति इस भाषा से लगातार संपर्क में रहे. यह संभव तब ही हो सकता है जब भारत के
सभी शालाओं में हिंदी अनिवार्य हो और इसमें 50 प्रतिशत अंक पाने पर ही उसे उत्तीर्ण घोषित किया जाए.
लेकिन इस तरह के निर्णय ले कौन ?
हमारे देश में मुद्दे तो इसी तरह के हैं. जातियों, धर्मों व भाषाओं को भी नहीं बख्शा गया. कहीं अहिंदी की मुद्दा
है तो कहीं हिंदी का . लेकिन सभी का मकसद है जोड – तोड। इन सबके रहते देश हिंदी
में प्रगति करे, तो करे भी कैसे।
क्या हमारा हिंदी प्रचार का कार्यक्रम ऐसा ही है.
यदि हम हिंदी की इतनी ही सेवा करना चाहते हैं, हिंदी के प्रति हमारा रुख – बर्ताव
ऐसा ही होना था, तो जो नतीजे आ रहे हैं उनसे दुखी होने का कोई कारण ही नहीं है.
नतीजे ऐसे ही आने थे सो आए. नतीजे प्रयत्न के फलस्वरूप ही हैं.बोया पेड़ बबूल का
आम कहाँ से होय्र !!!
यदि सही मायने में हम हिंदी के उपासक हैं और
हिंदी को पनपता देखना चाहते हैं तो
सभी सार्वजनिक व सरकारी प्रतिष्ठानों में प्रवेश
के लिए हिंदी अनिवार्य क्यों नहीं की जाती। ऐसा तो कोई कानून नहीं है कि हिंदी
जानने वाला अंग्रेजी नहीं जान सकता. यदि किसी को ऐसा लगता है कि प्रगति के लिए
अंग्रेजी जरूरी है तो वह अंग्रेजी सीखे और क्योंकि देश में हिंदी जरूरी है इसलिए
हिंदी पढे. सवाल केवल इसी बात का है कि सरकार में ऐसे कदम उठाने की हिम्म्त हो.
स्वतंत्रता की साठवीं वर्षगाँठ के बाद ( चौंसठवीं
) भी हमें अपनी भाषा के बारे में यह सोचना पड़ रहा है, क्या यह दयनीय नहीं, शर्मनाक
है.पर क्या हम शर्मिंदा हो रहे हैं. या हम बेशर्म हो गए हैं. इनका जवाब ढूंढिए,
कहीं न कहीं हमारी अपनी कमियाँ आँखें फाड़ कर हमारी तरफ ताकती मिलेंगी. जब हम उन
गलतियों को सुधारकर खुद सुधरेंगे, तब कहीं देश या देश की भाषा को सुधारने की
काबीलियत हममें आएगी. क्या हम इस सुधार के लिए तैयार हैं. वरना न रहेगा बाँस – न
बजेगी बाँसुरी.
सरकारी संस्थानों (स्कूल, कॉलेज, लाईब्रेरी,
कार्यालय इत्यादि) में अपने विभिन्न दावे (चाहे पैसों के ही क्यों न हों), आवेदन चाहे
छुट्टी का हो या अनुदान का या फिर किसी सुविधा संबंधी अर्जी ही क्यों न हो,- हिंदी
में देने के लिए क्यों नहीं कहा जा सकता. शायद कुछ सोच-विचार , चर्चा – परिचर्चा
के बाद कम से कम हिंदी क्षेत्र में हिंदी में भरे फार्मों को प्राथमिकता दी जा
सकती है.
उसी तरह हिंदी की रचनाओं को प्रोत्साहन हेतु –
हिंदी के लेख, निबंध, कविता,चुटकुले शायरी इत्यादि रचनाओं के लिए, कुछ ज्यादा
पारिश्रमिक दिया जा सकता है. कम से कम राष्ट्रीय पर्वों – 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2
अक्तूबर - पर व्याख्यान हिंदी में देने के लिए जरूर कहा जा सकता है.
इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हम अंग्रेजी की
अवहेलना कर हिंदी को आगे बढाएं. जहाँ अंग्रेजी हिंदी का स्थान नहीं ले सकती वहाँ
निश्चित रूप से हिंदी भी अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकती.
हिंदी की प्रगति के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी
है कि हिंदी के नाम पर क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग न हो. 1963 का राजभाषा अधिनियम भी
रोजमर्रा की, बोलचाल व संप्रेषण की संपर्क हिंदी को ही राजभाषा का दर्जा देता है.
भाषा में जितना प्रवाह होगा, वह लोगों की जुबान पर उतनी जल्दी चढेगी भी. रोजमर्रा के जितनी करीब होगी – लोगों का उसकी ओर आकर्षण उतना ही ज्यादा होगा और वह उतनी ही
जल्दी अपनाई जाएगी.
हाल ही में जी टी वी ने हिंग्लिश शुरु की. जो
हिंदी व अंग्रेजी के सम्मिश्रण के अलावा कुछ नहीं थी. पर इसके लिए पूरी तरह न
हिंदी जाननें की जरूरत थी और न ही अंग्रेजी जाननें की. इसलिए आधे अधूरे भाषायी
जानकारों को अच्छा मौका मिला और हिंग्लिश देखते ही देखते युवाओं के लिए वरदान साबित
हुई और जवान पीढ़ी ने इसे देखते ही अपना लिया. आज हिंग्लिश युवा पीढ़ी की भाषा है.
आज की युवा पीढ़ी किसी एक से बँध कर नहीं रह सकती
चाहे वह भाषा ही क्यों न हो. हर क्षेत्र की तरह, वह भाषा के क्षेत्र में भी
लचीलापन (फ्लेक्सिबिलिटी) चाहती है, जिसकी कसौटी पर हिंग्लिस खरी उतरती है. हिंदी
व अंग्रेजी कब कहाँ कैसे मिल जाएं, इसका उन्हें शायद आभास भी नहीं हो पाता.
जिस तरह से हमारे देश में हिंदी के प्रयोग पर या अपनाने पर जोर जबरदस्ती की जाती है उस पर मुझे
कड़ी आपत्ती है. कहा जाता है कि हस्ताक्षर हिंदी में करें. कोई इन्हें समझाए कि
क्या हस्ताक्षर की कोई भाषा होती है. यदि हाँ तो कल कोई मुझसे कहेगा – आप हिंदी
में क्यों नहीं हँस रहे है. या कोई कहे – आप तबला हिंदी में बजाया करे. ड्राईंग
हिंदी में बनाएँ – इत्यादि-इत्यादि. मुझे यह पागलपन के अलावा कुछ नहीं लगता.
हमारे यहाँ सरकार बच्चों को हिंदी पढ़ाने में
विश्वास नहीं रखती. बल्कि बूढ़ों को सप्ताह
भर में हिंदी में पारंगत कर देना चाहती है. शायद इसलिए कि यही बच्चे कल के
नागरिक होंगे और यदि वे हिंदी में पारंगत हो गए तो हिंदी की हालत सुधर जाएगी - तो भाषा की रजनीति कैसे चलेगी.
अनाप शनाप अनावश्यक व बेमतलब के ये तौर-तरीके
हिंदी के प्रचार प्रसार में सहयोगी नहीं बाधक हो रहे है. कोई इनकी तरफ ध्यान दे व
लोगों का सही मार्गदर्शन करे तो भी बात सुधर सकती है.
लोगों से जबरदस्ती मत कीजिए. यह मानव स्वभाव है कि यदि आप जबरदस्ती करेंगे
तो वह आपके विरुद्ध करने को उत्सुक होगा. आपका जितना जोर होगा उसकी उतनी ही तगडी
प्रतिक्रिया होगी. साधारण उदाहरण ही लीजिए - कोई पिक्चर “A” सर्टीफिकेट पा गई हो तो बड़े देखें न देखें, पर
बच्चे इसे जरूर देखेंगे कि इसमें ऐसा है क्य़ा ? शायद आतुरता और उत्सुकता उन्हें वहाँ खीच लाती है.
ऐसा भी नहीं है कि दक्षिण भारतीय हिंदी समझते
नहीं हैं. यदि ऐसा होता तो हिंदी फिल्में दक्षिण भारत में चल नहीं पातीं – लेकिन
माजरा यहाँ उल्टा ही है- दक्षिण भारत में हिंदी फिल्मों का क्रेज है.
इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हम अंग्रेजी की
अवहेलना कर हिंदी को आगे बढाएं. जहाँ अंग्रेजी हिंदी का स्थान नहीं ले सकती वहाँ
निश्चित रूप से हिंदी भी अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकती.
हम आए दिन हिंदी को तहे दिल से रोजमर्रा में
अपनाने का प्रण लेते रहते हैं लेकिन इन्हें राजभाषा दिवस – पखवाड़े या महीने तक ही
सीमित रखना हमारी आदत बन गई है. राजभाषा तक सीमित हिंदी को अब असीमित करना होगा.
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