मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

अभिवादन

 


अभिवादन


सामान्य भाषा में अभिवादन को नमस्ते या नमस्कार कहा जा सकता है। इसे वंदन भी कहते हैं। नमस्ते, नमस्कार और प्रणाम सभी वंदन के ही रूप हैं। नमस्कार करते वक्त नमो नमः का उच्चारण किया जाता है। नमः का अर्थ है नमन । दोनो हाथों के पंजों को जोड़कर, नतमस्तक होकर किया गया वंदन ही नमस्कार है। 

सामान्यतः दोनों होथ जोड़कर, नतमस्तक होकर अभिवादन किया जाता है। इससे अगले व्यक्ति की गुरुता को स्वीकार करने की भावना जागती है और संप्रेषित होती है। वैसे कुछ लोग एक हाथ हिला कर भी अभिवादन करते हैं किंतु यह औपचारिक नहीं होता। इससे परस्पर सद्भाव का विचार प्रेषित नहीं होता। इसे अनौपचारिक वंदन भी कहते हैं।

श्रद्धा पूर्वक किया गया नमस्कार अहंकार को मिटाता है। लोगों के प्रति श्रद्धा व आदर का भाव दर्शाता है। इसे मानसिक हवन के समतुल्य माना गया है। नमस्कार करते समय हाथ में कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए। इसे अश्रद्धा समझा जाता है। नमस्कार करते वक्त दो सेकंड के लिए आँखें मूंदने से मन मस्तिष्क पुनःजागृत होता है। नमस्कार को तारक मंत्र माना गया है।

नमस्ते-नमस्कार शब्दों का प्रयोग में जीवन में नित-दिन करते रहते हैं। नमस्ते-नमस्कार के बहुत रूप हैं और सबका अपना आध्यात्मिक महत्व है। गूढ़ में जाएँ तो पाएँगे कि किसी को नमस्कार करते समय हम मन से यह मानते हैं कि – 

आप बड़े हैं, मैं छोटा हूँ। मैं अपना मैं” / “अहम् त्यागकर आपकी दासता स्वीकार करता हूँ। किंतु कालांतर में यह केवल दैवीय संदर्भ तक ही सीमित हो गया है।

नम: + ते = नमस्ते

मतलब आपको (तुमको) नमन करता हूँ। यहाँ आप एकवचन है। इसलिए नमस्ते एक ही व्यक्ति को किया जाता है। जब एक से ज्यादा व्यक्ति हों तो हर व्यक्ति को अलग - अलग नमस्ते करना चाहिए।  दो लोग हों तो नमोवाम और तीन या अधिक लोग हों तो नमोवह कहना चाहिए। प्रत्यक्ष या कहें रूबरू होने पर ही नमस्ते का प्रयोग होना चाहिए।

नमस्ते प्रत्यक्ष रूप से सब लोगों यानी छोटों. बड़ों और समतुल्योंको भी, अलग-अलग को किया जा सकता है।

नमः + + करः = नमस्कारः

इसमें हाथ जोड़े जाते हैं इसलिए यह एक क्रिया भी है।

इसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

नमस्कार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में समान अवस्था वालों को किया जाता है।

अपने से बड़ों को – माता-पिता , गुरु, आध्यात्मिक गुरु और देवताओँ को प्रणाम किया जाता है।


नमस्कार के प्रकार : -  काया, वाचा, मनसा तीन मुख्य प्रकार होते हैं।

 

1.  मानस नमस्कार बाण – युद्ध की स्थितियों में विपक्ष में खड़े गुरुजनों को उनके कदमों के पास शर-संधान कर नमस्कृत करने की परंपरा है । इसे बाण-नमस्कार कहते हैं। महाबली भीष्म ने युद्ध में गुरु परशुराम को और महाभारत में अर्जुन ने भीष्म पितामह को चरणों के निकट शर-संधान करके ही अभिवादन किया था। मानस नमस्कार में परोक्ष रूप से मन ही मन भी प्रणाम किया जा सकता है।

2.  वाचा नमों नमःका उच्चारण करते हुए – वचन से नमो नमः, नमस्कार, नमस्ते कहकर किया हुआ वंदन, सबसे सरल और साधारण अभिवादन कहलाता है। शारीरिक नमस्कारों के साथ भी वचन से नमस्कार करने की प्रथा है। इससे नमस्कार की गुणवत्ता बढ़ती है।

   3.   शारीरिक एकाँग नमस्कार – मात्र सर झुकाकर या हाथ हिलाकर किया गया अभिवादन                 एकाँग नमस्कार कहलाता है। इसे अनौपचारिक वंदन माना गया है। इसमें वंदनीय के प्रति                सद्भाव या श्रद्धा का भाव प्रतीत नहीं होता।

    4.  शारीरिक त्रयाँग नमस्कार : दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर लगाकर नत मस्तक होकर किया             गया नमस्कार त्रयाँग नमस्कार कहलाता है। नित प्रतिदिन बड़े बुजुर्गों को और गुरुओं के                 सम्मुख होने पर इस तरह से अभिनंदन करते हैं।

   5.  शारीरिक पंचाँग नमस्कार ( प्रणाम) – महिलाओं के लिए पंचाँग प्रणाम का विधान है। यह               नमस्कार दोनों हाथ के पंजे, कोहनियाँ, सिर और घुटने और पैरों के पंजों को धरती पर टिकाकर         किया जाता है।

   6.  शारीरिक षष्टाँग (प्रणाम) नमस्कार – यह कोई मान्य नमस्कार नहीं है। दोनों हाथ के पंजे,                कोहनियाँ, सिर, वक्षस्थल, घुटने और  पैरों के पंजों को धरती पर टिकाकर किया जाता है।

   7.  शारीरिक साष्टाँग (दंडवत् प्रणाम) नमस्कार – विधान पूर्वक देवताओं के विग्रहों को, आध्यात्मिक         गुरुओं और सन्यासियों  को इस तरह से नमस्कार किया जाता है।  इसमें सिर, दोनों भुजाएँ               (पंजे, कोहनियाँ और कंधे), आँख, वक्षस्थल, जंघे और दोनों पैर (पंजे और घुटने) धरती को छूने         चाहिए। इनके साथ मन और बुद्धि को एकाग्र कर ईश्वर या आध्यात्मिक गुरु के शरणागत होने            को अत्युत्तम नमस्कार माना गया है। इसे ही साष्टाँग प्रणाम या दंडवत्  प्रणाम कहते हैं। 

सूर्य नमस्कार में कहा गया है कि – 

उरसा, शिरसा, दृष्टया, मनसा, वचसा तथा

पदभ्याम् , कराभ्याम् ,जानुभ्याम् , प्रणामो अष्टाँग उच्यते।

 

वक्षस्थल, सिर,नयन, मन, वचन,

पैर,जंघा और हाथ –

इन आठों अंगों को झुकाकर धरती को स्पर्श करते हुए किया गया नमस्कार स – अष्टाँग (साष्टाँग) नमस्कार कहलाता है।

 

8.  पाद नमस्कार – नमस्कार करते समय पैर छूकर किए गए नमस्कार को पद य पाद नमस्कार कहते हैं। साधारणतः प्रणाम करते वक्त पैरों को स्पर्श नहीं किया जाता। ऐसी मान्यता है कि जब तक अगले व्यक्ति से आप पूर्णतः परिचित न हों या वह आध्यात्मिक गुरु न हों उनके चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम नहीं करना चाहिए।

किंतु इन दिनों चापलूसी के कारण राजनीतिज्ञों के चरणस्पर्श किए जाते हैं।

 

9.  व्यस्त-हस्तं नमस्कार – इसमें दाहिने हाथ को अगले के बाएं पैर के पास और बाएं हाथ को अगले के दाहिने पैर के पास (बिना छुए) नमस्कार किया जाता है। यह नमस्कार के सारी विधाओं में किया जा सकता है। अक्सर पहुँचे हुए आध्यात्मिक गुरुओं को, पीठाधीशों को ही ऐसा नमस्कार किया जाता है। व्यस्त-हस्तं साष्टाँग नमस्कार इसका सर्वोत्तम रूप है।


शारीरिक नमस्कार के निम्न प्रचलित रूप हैं – (यह सब अनौपचारिक अभिवादन माने जाते हैं।)

 

1.      सिर झुकाना।

2.      हाथ जोड़ना।

3.      ऊपर के दोनों का युग्मन।

4.      ऊपर के किसी एक, दो  या तीनों के साथ घुटने झुकाना।

 

सद्भावना और मानसिक एकाग्रता से किए गए नमस्कार-प्रणाम के लाभ –

 

1.      आपकी सकारात्मकता और मानसिक निर्मलता में वृद्धि होती है।

2.      दूसरों के मन में आपके प्रति सद्भावना का विकास होता है।

3.      दूसरों के प्रति नम्रता बढ़ती है।

4.      अपना मैंया अहम् त्यागने में आसानी होती है।

5.      दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा जागती है और उनको श्रेष्ठ समझकर ज्ञान प्राप्त करने में आसानी होती है।

6.      आध्यात्मिक गुरुओं को समक्ष या  मंदिरों में ईश्वर के प्रति दासता स्वीकार करने का बोध होता है। इससे गुरु और  देवता के प्रति कृतज्ञता और शरणागत होने का भाव जागृत होता है।

7.      मन मस्तिक शांत होता है।

 

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यह लेख पूरी तरह से मौलिक नहीं है। इसमें कुछ अंश हैदराबाद, तेलंगाना से प्रकाशित तेलुगु दैनिक अखबार  ई नाडु के 14 सितंबर 2020 के अंक के लेख से साभार उद्धृत है। लेख डॉ.दामेर वेंकट सूर्याराव द्वारा रचित है। अखबार में उनका पता या संपर्क नही दिया गया है। लेख सूचनाप्रद होने को कारण इसे जन साधारण तक पहुँचाने के लिए उद्धृत अंश का हिंदी में अनुवाद किया गया है।

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गुरुवार, 15 जुलाई 2021

प्रकाशन करवाइए


प्रकाशन करवाइए

 

आपको अपनी पुस्तक प्रकाशित करवानी है। 

आपकी यह पहली पुस्तक है जो प्रकाशित होने जा रही है। 

आप पहले किसी प्रकाशक से प्रकाशित कर धोखा खा चुके हैं। 

प्रकाशक ने आपको रॉयल्टी की राशि सही नहीं दी है?

आपने पुस्तक को हस्तलिपि में है , टाइप करवाकर प्रकाशित कराना है। 

आपको प्रकाशकों के बारे में या प्रकाशन के बारे में कोई जानकारी नहीं है और आपको पुस्तक प्रकाशित करवाना है।

 

ऐसी सभी समस्याओं के लिए आपको यहाँ सहायता मिल सकती है।

 किसी भी पुस्तक के प्रकाशन के लिए निम्न बातें जरूरी होती हैं।

 1. रचना (एँ) – यह रचनाकार की अपनी कृति होती है - रचनाकार को इसके मौलिक – द्वारा प्रकाशक को रचना के स्वरचित होने का प्रमाणपत्र देना पड़ता है।

2. रचना का साफ सुथरी स्पष्ट हस्तलिखित या स्पष्ट टाइप किया हुआ प्रस्तुतीकरण – लेखक द्वारा रचना को टाइप करके प्रस्तुत करना होता है। वरना प्रकाशक को हस्तलिपि को टाईप करना पड़ता है। इसका अलग से खर्च आता है। जिसमें प्रकाशक अपना चार्ज बढ़ा देते हैं। जैसे रु.8000 में बिना टायपिंग के करेंगे तो रु.10000 या रु.12000 मांगते हैं, टायपिंग के साथ।

3.      मेरी राय में रचनाकार को खुद ही टाइप कर लेना चाहिए जिससे एक बड़ा खर्च बच जाता है।

4.      फार्मेटिंग या भौतिक प्रस्तुति  - प्रकाशक साधारणतः रचनाओं को A4 से पुस्तक के आकार में फॉर्मेट कर लेते हैं। जिसमें प्रकाशक अपना चार्ज बढ़ा देते हैं।

5.      फोटो या टेबल की आवश्यकता और उसे सही जगह जोड़ना - पुस्तक में फोटो और तालिकाएं रहने से खर्च बढ़ जाता है। प्रकाशक तालिका के अनुसार अतिरिक्त खर्च बताते हैं। फोटो होने से प्रकाशन खर्च के साथ प्रिटिंग खर्च भी बढ़ता है। पहली प्रकाशित पुस्तक में तालिकाओँ और चित्रों को नहीं रखना ही सुविधाजनक होता है। यदि चित्र रंगीन हों तो खर्च बहुत बढ़ जाता है।

6.      तय करना कि किस तरह के पाठकों को यह प्रस्तुत की जाएगी - पाठकों के वर्ग के अनुसार लेखक को अपनी भाषा निर्धारित करनी पड़ती है। साथ ही साथ पुस्तक की कीमत भी पाठक वर्ग के अनुसार ही रखना होता है। पाठक वर्ग के अनुसार ही फाँट और आकार तय करना पड़ता है।

7.      यदि पुस्तक छोटे बच्चों या बूढ़ों  के लिए हो तो फाँट बड़ी होनी चाहिए ।बच्चों के लिए पृष्ठ कम होने चाहिए।

8.      कीमत के मद्देनजर पुस्तक के पृष्ठ निर्धारित करन मे पड़ते हैं - यदि पुस्तक 350 पृष्ठ की और  रु.500 की होगी तो खरीददीर नहीं मिलेगा और यदि बीस पृष्ठ की और 25 रु की हो तो रचनाकार को प्रकाशन का खर्च भी नहीं निकलेगा। इसलिए पृष्ठ और कीमत पर एक सामंजस्य रखना होता है जिससे ग्राहक भी मिलें और लेखक को कम से कम लागत लगे और वह वापस मिले।  मेरी राय में 100 – 150 पृष्ठ की पुस्तक सही रहती है । इसकी औसत लागत रु.100 या रु150 के लगभग आती है और रु150 या रु200 का मूल्य रखा जा सकता है। कीमत के अलावा ज्यादा पृष्ठों की पुस्तक को संभालना भी एक अलग समस्या हो जाती है।

9.      प्रकाशन में लगने वाला उपयुक्त समय - कार्य निष्पादन का प्रबंधन कि कौन सा काम किसे औऱ कब करना है। प्रकाशन के लिए आवश्यक समय इन सब बातों पर ही तय किया जाता है। इसलिए प्रकाशन व लेखक जिम्मेदारियाँ  सही तौर पर तय करनी पड़ती हैं। तय किए गए अनुसार काम नहीं किए गए तो प्रकाशन में देरी हो सकती है। कार्य निष्पादकों में समन्वय बैठाना एक प्रमुख मुद्दा बन जाता है।

10. प्रकाशन में आने वाला खर्च - प्रकाशन में आने वाला खर्च भी इन्हीं सब बातों पर निर्भर करता है। पुस्तक का आकार,पृष्ठ संख्या, चित्र, तालिकाएँ, टायपिंग करनी है कि नहीं, कितना समय दे रहे हैं, किस तरह का कागज और जिल्द होगी।  साधारणतः 70-80 ग्राम प्रति वर्गमीटर का अंदरूनी पृष्ठ सही रहता है और जिल्द के लिए 250 ग्रा. प्र. वर्ग मी. ।

11. कवर पृष्ठ के संरचना पर निर्णय और पृष्ठ आवरण का निर्णय – रचना के अलावा पुस्तक में शीर्षक पृष्ठ, प्रकाशक पृष्ठ, मेरी बात (दो शब्द, प्राक्कथन आदि ), समर्पण, पीछे के कवर पर क्या लिखना है – यह सब तय करना पड़ता है। साधारणतः प्रकाशक इन सबको रचना के (के रूप में ही) साथ ही मानते हैं। इसलिए पुस्तक देने के साथ ही प्रकाशक को यह सब भी देना पड़ता है।

12. कदम-कदम पर हर एक बार प्रूफ रीडिंग और गलतियों का सुधार – प्रकाशक द्वारा रचना को  A4  पृष्ठ से पुस्तक के पृष्ठ में परिवर्तन के बाद, लेखक को ही देखना है कि पुस्तक में कोई त्रुटि तो नहीं आई, यदि आई हो तो प्रकाशक को सूचित करवना है। इसे प्रूफ रीडिंग कहते हैं। मेरी राय में तो लेखक से बेहतर प्रूफ रीड़िंग कोई और कर ही नहीं सकता – उसे ही करना भी चाहिए। इसलिए लेखक को इसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए।

13. प्रूफ रीडिंग का परिणाम प्रकाशक तक पहुँचाना – (यदि एडिटिंग उसे करनी हो तो) - यह सूचना एक विशेष तालिका में बनाकर दी जाती है। जिसमें अध्याय, पृष्ठ, पेराग्राफ, लाइन , गलत लिखा भाग और सही क्या होना चाहिए – सब कुछ होना चाहिए। इसके अलावा किसी विशेष प्रकार का सुधारहो तो उसे विशेष तरह से समझाना पड़ता है।

14. प्रकाशक से पुस्तक प्रकाशन का करार की शर्तों को मूर्तरूप देना और करार करना।

15.  करार में विशेष ध्यान देना कि रचनाकार से नाजायज लाभ तो नहीं ले रहा है।

16.  फ्री कापियों की संख्या का निर्धारण - साधारणतः प्रकाशक केवल 5 कापियाँ लेखक को प्रकाशन खर्च के तहत देते हैं। ज्यादा कापियों की जरूरत होने पर उसका अतिरिक्त खर्च आता है। इसका निर्धारण करने के लिए  लागत की खबर जरूरी होती है जो प्रकाशक अक्सर नहीं देते। प्रति पृष्ठ छपाई , कवर की छपाई,  बाइँडिंग और टेक्स (जी एस टी) एवं पृष्ठ संख्या तय करते हैं कि लागत प्रति पुस्तिक कितनी आएगी । प्रकाशक लेखक को अतिरिक्त पुस्तकें लागत पर ही देता है। कुछ प्रकाशक लेखक को 90% MRP पर पुस्तक देने की बात करते हैं जिसमें कोई औचित्य नजर नहीं आता। तालिका और चित्रों के होने पर उनकी छपाई का खर्चा अलग होता है जो सामान्य पृष्ठों की छपाई से बहुत ज्यादा होता है।

17.  रॉयल्टी का निर्धारण और उसे रचनाकार तक पहुँचाने का जरिया - प्रकाशक रॉयल्टी का निर्धारण अक्सर प्रतिशत में करते हैं। जैसे 100 प्रतिशत रॉयल्टी देंगे।  लेखक (खासकर नए) अक्सर झाँसे में रह जाते हैं कि 100% मतलब पुस्तक का मूल्य यदि रु150 हो तो उसे प्रति पुस्तक में रु.150 की रॉयल्टी मिलेगी। किंतु ऐसा नहीं होता। कीमत में से लागत घटा ली जाती है। इसलिए सही रॉयल्टी की जानकारी के लिए  लागत की जानकारी जरूरी हो जाती है। प्रकाशक के पटल पर और अन्य पटलों पर बिक्री पर रॉयल्टी अगल-अलग होती है ।  इसलिए लेखक को पूरी विस्तृत जानकारी लेनी चाहिए। खासकर अमेजान और फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाईन शॉपिंग पोर्टल बहुत ज्यादा कमीशन खा जाते हैं और रॉयल्टी बहुत कम रह जाती है इस पर विचार करके ही इन पोर्टलें पर बिक्री के लिए देना चाहिए।

18.  प्रकाशक की जिम्मदारियाँ तय करना – ऊपर के इतने सारे विस्तार से लेखक को पूरी तरह पता चल गया होगा कि प्रकाशक को उसकी पूरी जिम्मेदारी के बारी में कितने विस्तार में बताना है। 

19. संभवतः निम्न  सारी सूचनाएँ करार का भाग होना चाहिए।

    a.    रचना हस्तलिखित हो तो टायपिंग किसकी जिम्मेदारी होगी।

b.      संपादन और सुधार कौन करेगा।

c.       सुधारों की सुचना उसे किस तरह चाहिए।

d.      फ्री पुस्तकें रचनाकार  तक कितनी और कैसे पहुँचेंगी।

e.     प्रकाशक को रचनाकार से कितनी रकम, कितने किश्तों में, कब और कैसे चाहिए।

f.  ग्राहक पुस्तक कैसे पा सकेंगे और ग्राहक पुस्तक के आवश्यकता की सूचना प्रकाशक को किस तरह पहुँचा सकेंगे।

g.      प्रकाशक द्वारा भेजी गई पुस्तक ग्राहक तक ना पहुँचे, तो उसका निपटारा कैसे होगा।

h.      ग्राहकों को पुस्तक भेजने और पाने की सूचना (ट्रेकिंग) कैसे दी जाएगी।

i.        रचनाकार को खुद के लिए पुस्तक जरूरत हों, तो कैसे मिलेगी और उसकी कीमत किस तरह निर्धारित होगी।

j.        रचनाकार को किसी भी समय किसी अन्य प्रकाशक से प्रकाशित करने या प्रिंटर से प्रिंट करवाने की छूट होनी चाहिए।

k.      फाँट कौन सा होगा और उसका साइज क्या होगा ? इस पर ही पुस्तक के पृष्ठों का निर्धारण होता है और उस पर लागत और फिर उस पर कीमत।

l.        इंटर वर्ड स्पेस, इंटर लाइन स्पेस, पेराग्राफ टॆब, पृष्ठ के मार्जिन - कितना होगा यह निश्चय करना। इससे भी पृष्ठों की संख्या बदलती है।

m.   पुस्तक के प्रचार के लिए प्रकाशक कुछ करेगा या रचनाकार को ही करना है।यदि प्रकाशक करेगा तो कैसे करेगा, उसका निर्णय। कितनी पुस्तकें बिकने की गारंटी होगी। साधारणतः प्रकाशक मार्केटिंग की बात करते हैं पर कोई गारंटी नहीं देते।

n.      प्रकाशक के पोर्टल से और अन्य पोर्टलों से पुस्तक ऑर्डर करने के लिए प्रकाशक लेखक को लिंक देता है।

o.       प्रकाशक सूचित करे कि पुस्तक पर डाक खर्चा कितना लिया जाएगा।

p.      प्रकाशक को चाहिए कि वह एक पेज बनाकर रखे जिसपर पासवर्ड और यूजर नेम के द्वारा लेकक अपनी पुस्तकों की बिक्री और रॉयल्टी की सूचना जब चाहे देख सके।


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आज बाजार में ऐसे प्रकाशक भी हैं जो पुस्तक लेकर कुछ कापियाँ देने की बातकरपते हैं और कापीराइट खुद रख लेते हैं। उसके बाद वो कितनी प्रतियाँ छापेगा या कैसे, कहाँ, कितनी कीमत पर बेचेगा - इस पर लेखक का कोई वश नहीं होता।

ऐसे प्रकाशक भी हैं जो पुस्तकों के बदले एकमुश्त पैसे देने की भी बात करते हैं।

ऐसे प्रकाशक लेखकों को खुश करने के लिए पुस्तकों का सामूहिक विमोचन भी करवा देते हैं।

यहां ऐसे किसी प्रकाशक की कोई चर्चा नहीं हो रही है। केवल असिस्टेड सेल्फ पब्लिशिंग और ऑर्डर टु प्रिंट वाले प्रकाशकों की ही बात हो रही है।


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शनिवार, 10 जुलाई 2021

परिपक्वता

 

परिपक्वता


सुमीत पढ़ाई में बहुत तेज था। उसके पिताजी किसी सरकारी कंपनी में अच्छे पद पर थे। घर-परिवार सर्वसम्पन्न था । इंजिनीयरिंग की चुनावी परीक्षा में सुमीत देश भर के प्रथम कुछ स्थानों में था और एम टेक की चुनावी परीक्षा में देश भर के पहले में 5 स्थानों में था । मेधावी होने के कारण दाखिले के लिए उसका चयन अच्छे-अच्छे महाविद्यालयों में हो जाता था।  एम टेक के बाद एक बड़े मल्टीनेशनल कंपनी में उसका चयन बड़ी आसानी से हो गया था। तनख्वाह भी बहुत अच्छी थी । सुमीत और पूरा परिवार भी बहुत खुश था।

समय बीतते-बीतते सुमीत और उसके पिताजी दोनों की पदोन्नति होती गई। पिताजी चीफ जनरल मेनेजर बन चुके थे। अभी सेवानिवृत्त होने को कुछ ही समय बचा था। सुमीत भी अच्छे ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित हो गया था।

अब उसे लगने लगा कि इस उम्र में पिताजी पैसों के लिए क्यों खट रहे हैं? अब पिताजी को आराम कर लेना चाहिए। इसी विचार से उसने पिताजी से बात किया और कहा –पापा आप नौकरी छोड़ दीजिए। अब आप आराम कर लीजिए। उसके शुद्ध मन में पापा की उम्र और सेहत को देखते हुए आराम देने की ही मंशा थी। पापा ने इस पर विचार कर कहा – किसलिए बेटा ? शुरुआत के दिनों जैसी शारीरिक मेहनत तो करनी नहीं पड़ती है अभी। उस पर करीब एक लाख रुपयों की तनख्वाह जो मिलती है उसे किसलिए छोड़ा जाए ? किसी प्रकार की समस्या भी तो नहीं है  कि नौकरी करने में परेशानी हो रही हो।

पिताजी की बात सुनकर अब भी सुमीत को लग रहा था कि पापा के नौकरी करने का मुख्य मकसद अभी पैसा ही है। उसके मन में आया कि मेरी जो आमदनी है उसमें से उनके तनख्वाह के बराबर की राशि मैं उनको दे ही सकता हूँ । यही बात उसने पिताजी से कही – "पापाजी आप तनख्वाह की चिंता मत कीजिए। मैं आपको हर महीने उतनी रकम तो दे ही सकता हूँ। वैसे भी आप जितना साल भर में कमा लेते हो उतना तो मैं दो महीनों मे कमा लेता हूँ। आप नौकरी छोड़ दीजिए और घर पर आराम कीजिए ।"

पापा को शायद इस वाकए की उम्मीद नहीं थी । वे सुमीत की बात सुनकर असमंजस में पड़ गए। सोचने लगे कि क्या बेटे को इस बात की समझ भी है कि वह क्या कह रहा है ? उसे केवल पैसों का ही खयाल है । मेरे आत्मसम्मान की वह सोच भी पा रहा है या नहीं ? उन्हें सुमीत की बात बहुत चुभी, किंतु मौके की नजाकत के चलते वे गुस्सा पीकर रह गए। एक बार उनके मन में तो आया कि मेरी परवरिश में कहीं कमी तो नहीं रह गई।

पिताजी को लगा कि सुमीत उनको अपने ऊपर निर्भर करवाना चाहता है। वे लगे  सोचने कि इससे मेरी स्वायत्तता छिन जाएगी । मैं ऐसा कभी नहीं होने दूँगा। उसके कहने से मैं तो नौकरी छोड़ने वाला नहीं। ठीक है, वह कमाता है खुशी से अपनी जिंदगी जिए । मुझे आश्रित क्यों बनाना चाहता है? ऐसी सोच की  वजह से उनको मानसिक वेदना हुई, वे परेशान रहने लगे।

जब मानसिक वेदना सहन के पार होने लगी तो उन्होंनें अपने एक खास मित्र से इसका जिक्र किया । उनको बताया कि बेटा कह रहा है कि आप नौकरी छोड़ दें।आपकी तनख्वाह के समतुल्य रकम मैं हर महीने आपको दे दिया करूँगा। वह मुझे अपने ऊपर आश्रित बनाना चाहता है। समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए ?

दोस्त से इस विषय पर चर्चा हुई। कई पहलू सामने आए। एक यह कि बच्चे के मन नें कोई द्वेष नहीं है । वह तो पापा की उम्र और सेहत के मद्देनजर उनको आराम देना चाहता है। रही तनख्वाह रुक जाने की बात तो उसने समाधान दिया कि वह तनख्वाह की रकम आपको हर महीने दे सकता है और देगा। दूसरा, कि बच्चा शायद समझ रहा है कि उसकी तरह आपको भी शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है जो इस उम्र में आपके लिए कष्टदायक है। उसको इस बात की समझ नहीं है शायद कि आपके ओहदे में शारीरिक नहीं मानसिक श्रम की आवश्यकता होती है। तीसरा और अहम बात यह कि वह आप का बेटा है – उम्र में आपसे बहुत छोटा है। उसकी समझ आपके बराबर तो नहीं हो सकती। उसके पास आपके बराबर का अनुभव नहीं है , न ही इतना व्यावहारिक ज्ञान है। मन में आपके प्रति आदर सम्मान होने के कारण ही उसने यह सुझाव दिया । व्यावहारिक ज्ञान की कमी के कारण वह सोच नहीं पाया कि इससे आपके आत्मसम्मान को कितनी ठेस पहुँचेगी। उसके पास आर्थिक सम्पन्नता तो थी, पर व्यावहारिक ज्ञान की सम्पन्नता नहीं थी । वह सोच नहीं पाया कि इतने और इससे कम तनख्वाह में पिताजी ने परिवार का भरण-पोषण किया है। सब बच्चों को , खुद उसको भी पढ़ाया है, जिससे वह आज इस पद पर काबिज है।

चर्चा का समापन इस बात से हुआ कि यदि बच्चे की समझ हमारी समझ के बराबर होती तो उसने ऐसी बात की ही नहीं होती। नासमझी में उसने ऐसा कह दिया । आप तो बड़े हो , उसके पापा हो । यदि आपने भी उसकी बात पर कुछ अटपटी प्रतिक्रिया दी, तो फर्क ही मिट जाएगा।  बात को समझिए , अपना बडप्पन दिखाइए। बच्चे को माफ कीजिए और इस वाकए को भूल जाइए। मन को शांत कीजिए। उम्र के सफर में किसी पड़ाव पर एक दिन उसे अपनी गलती का एहसास हो ही जाएगा।

इस बात पर दोनों की सहमति बन गई।  अब जब समस्या सुलझ ही गई थी तो पिताजी का मन भी हल्का हो गया था । वे दिलो-दिमाग से इस समस्या को भूलते हुए उठ खड़े हुए और मुसकुराहट के साथ घर लौट पड़े।

 

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रविवार, 4 जुलाई 2021

शिक्षक


 शिक्षक


उन दिनों सुनील 11 वीं में पढ़ता था। तब 

इंटरमीडिएट की कक्षाएँ नहीं होती थीं। 10 वीं के बाद 11वीं होती थी, जिसे हायर सेकंडरी कहते थे। सुनील ने गणित, रसायन व भौतिक विषयों को चुना था। भौतिक शास्त्र की पढ़ाई झा सर करवाते थे। वे बहुत ही उम्दा समझाते थे, किंतु थे बड़े ही कठोर। अनुशासन उनके लिए बहुत जरूरी था।  उनकी कक्षा में कोई भी चूं नहीं कर सकता था। यदि कहीं से भी कोई आवाज आई तो तुरंत उधर मुड़ते और इशारा करते हुए कहते – तुम, अरे तुम खड़े हो जाओ। वह किसी का नाम लेकर नहीं कहते थे। यदि किसी विद्यार्थी ने पूछ लिया सर मैं?” तो समझ लो उसकी शामत आ ही गई। झा जी का मन ठंडा रहा तो चॉक फेंक कर उसे मारेंगे। यदि विचलित या गुस्से  में रहे हों तो उसे खड़ा करेंगे और पास जाकर एक जोर का तमाचा जड़ देंगे। किसी की मजाल कि पूछ ले कि क्यों मारा ? वे सीनियर भी इतने थे कि स्कूल के बहुत सारे शिक्षक उनके विद्यार्थी रह चुके थे। इसलिए प्रिंसिपल से शिकायत करना भी बेमतलब होता था। इसका हल एक ही था कि उनके पूछने पर कोई जवाब न दे, सब मुँह फेर लेते थे।

 

इन सब के बावजूद भी सारे विद्यार्थी उनकी बहुत इज्जत करते थे। उनसे बहुत डरते भी थे, वो अलग। विद्यार्थियों को झा सर से एक और शिकायत थी कि उनके द्वारा पेपर जाँचे जाने पर बच्चों को परीक्षा में बहुत कम नंबर मिलते थे।  जो बच्चे पास होने की ही लालसा रखते थे, वे खुश रहते थे कि सर ने हमको पास कर दिया। जिनके 50 से 75 उनको तो शिक्षक से कोई शिकायत नहीं थी , वह कहते थे हमें तो सही नंबर मिल गए, मतलब जितने की उम्मीद की थीउतने मिल गए। परेशानी ज्यादातर उन बच्चों को होती थी जिनके बहुत अच्छे नंबर आते थे। उनका हमेशा का रोना रहता था कि सर नंबर काट लेते हैं और उम्मीद से बहुत कम नंबर देते हैं।

इस बार बोर्ड में भौतिक शास्त्र का पेपर बहुत कठिन आया था।  सारे बच्चे डरे हुए थे कि इस बार भौतिकी में फेल होने की पूरी संभावना है। पेपर जाँचने लिए झा सर को दिया गया है ऐसी भनक भी थी। पता नहीं सर को क्या सूझा या उन्होंने क्या सोचा, किंतु इधर विद्यार्थियों में डर बैठ चुका था । समय बीतता गया और वे दिन भी आ गए कि पेपर जाँचने के लिए झा जी तक पहुँच गए। यह किसी को भी पता नहीं था कि किस स्कूल के पेपर उनके पास आए हैं। हमारे स्कूल के पेपर भी हैं या नहीं।

सुनील एक होनहार छात्र था। उसे भी डर था कि झा सर पेपर जाँचेंगे तो उसे कम अंक मिल सकते हैं। एक दिन सुनील की झा सर से मुलाकात हो गई । सर ने उसे बुला लिया। सुनील की हालत खराब कि अब पेपर में कम अंक लाने के लिए डाँट पड़ेगी। वह सहमा-सहमा सा था। सर ने उसे अगले  दिन दोपहर खाने के बाद घर पर आने को कहा। उन्होंने सुनील से कहा बोर्ड के पेपर 11 वीं भौतिकी के आए हैं। घर पर मैं अकेला हूँ, तुम्हारी सहायता चाहिए। सुनील समझ नहीं सका कि सहायता किस प्रकार की होगी। किचन का काम तो आता नहीं। फिर सर को कौन सी सहायता कर सकता हूँ। खैर अगले दिन दोपहर खाना खाकर, सुनील सर के घर पहुँचा। सर भी खाने के बाद कुछ आराम कर के परीक्षा के पेपर जाँच ही रहे थे। सर ने सुनील को छाछ पीने को दी और कहा थोड़ी देर बैठ लो, पसीना सुखा लो, फिर लगना काम पर। अब भी सुनील को अनुमान न था कि काम क्या होगा ? वह सोचता रह गया पर कहीं पहुँच न सका।

करीब आधे घंटे बाद सर ने सुनील को प्रश्न पत्र दिया और कहा कि इसमें जिस तरह से प्रश्न हैं उसी तरह से एक तालिका बना लो जिसमें बच्चों के सवालानुसार नंबर लिखे जा सकें और सारे बच्चों के अंकों की एक तालिका बन जाएगी। सुनील को अब समझ आया कि सर को सहायता किस तरह की चाहिए थी। उसने प्रश्न पत्र पढ़ा और निर्णय करने लगा कि तालिका किस तरह से बनाई जाए। आखिर जब तालिकाएँ बन गई तो तब तक शाम हो गई थी। सर ने सुनील को कॉफी पिलाया और कहा - बेटे अब देर हो गई है और तुम्हारे खेलने का वक्त हो गया है। कल फिर आकर बाकी काम कर लेना। अब सुनील को समझ में आया कि कल जाँचे हुए पेपरों में से नंबर तालिका पर उतारने हैं और उनका जोड़ करके देना है। वह उठकर घर चला गया।

दूसरे दिन जब वह सर के घर पहुँचा तो सर ने अलग से रखे दो पेपरों को सुनील के हवाले किया और कहा - इन्हें तुम जाँचो। सुनील को इसका न ही अनुभव था, न ही वह किसी तरह इसके लिए तैयार था, वह हिचकिचाया। सर ने उसे हिम्मत दी और कहा –“ जाँचो और नंबर इतने देना जितने कि तुम अपने ऐसे लिखे उत्तरों पर उम्मीद करते हो । पर पेपर पर कुछ मत लिखना। अपनी तालिका में रोल नंबर के साथ अंक लिखते जाना।

पहले तो सुनील को अपना मन बनाने में समय लगा। फिर हिम्मत कर पेपर जाँचना शुरु किया। प्रश्नों के उत्तरों को पढ़कर औऱ उसके अंक देख कर वह बौखलाने लगा कि पाव और आधे अंक में इस पर कितने नंबर दिए जाएं। आँशिक सही को नंबर देना उसके लिए दूभर हो गया। अपनी बुद्धि के अनुसार आधे से ज्यादा सही के लिए पूरे नंबर और आधे से कम सही के लिए कोई नंबर न देकर, उसने पेपर जाँचना पूरा किया।

अंत में सर को कापी सौंपते हुए कहा-सरइस बच्चे ने तो कुछ भी पढ़ा नहीं है। सारे उत्तर अंट-शंट हैं ।

सर ने कहा, कोई बात नहीं आप अपनी तालिका के अंकों को जोड़कर रख लो। सुनील  ने वैसा ही किया।

कुछ देर बाद सर ने वह कापी उठाई और जाँचने लगे। करीब बीस मिनट लगे सर को वह कापी जाँचने में।

फिर सुनील को देकर बोले - अपनी तालिका में आपके दिए अंकों के नीचे मेरे दिए अंकों को लिखो और दोनों को अलग-अलग जोड़ लो। सुनील ने आज्ञा का पालन किया।

शाम को सर ने फिर कॉफी बनाई और कॉफी पीते-पीते सुनील से पूछने लगे,”अरे सुनील, बताओ तो उस बच्चे को तुमने कितने नंबर दिए और मैंने कितने दिए?”

सुनील ने तालिका में देख कर बताया- सर, मैंने तो उसे 13.5 नंबर दिए थे परंतु आपने तो  17 नंबर दे दिए। अब सुनील के आश्चर्य की बारी थी वह समझ ही नहीं पा रहा था कि सर ने किस प्रश्न पर उस छात्र को अतिरिक्त नंबर दिए हैं। सर ने सुनील से कहा – देखो तो किस किस प्रश्न में उसको मैंने ज्यादा नंबर दिए जिसके कारण उसके नंबर 17 हो गए।

अब सुनील एक-एक प्रश्न और उसके अंक तालिका में देखता और फिर परीक्षा पत्र में उत्तर पढ़ता - फिर सोचता कि उसके नंबर देने में कहाँ गलती हुई है। उसे किसी भी प्रश्न के उत्तर के अंक गलत नहीं लगे ? बल्कि लगा कि सर ने ही ज्यादा नंबर दिए हैं। उसने वही बात सर से कहा।

सुनील को एक प्रश्न पर खास ऐतराज था जिसमें प्रश्न में पूछा गया था कि तैरने के सिद्धान्त क्या हैं  विद्यार्थी ने उत्तर लिखा –

तैरने से पहले पॆट – शर्ट उतार कर एक साफ सुथरी जगह पर रख दें । केवल अधोवस्त्र को ही गीला होने दें , जो आपको घर से अतिरिक्त लाना होता है। फिर हो सके तो शरीर पर तेल मल लें। पानी में धीरे-धीरे  उतरें और जब पानी कमर से ऊँचे तक आ जाए तो पैरों को जमीन से उठाकर - हाथ और पैरों से पानी को बगल और पीछे ढकेलें। जैसे-जैसे पानी पीछे जाता जाएगा आप आगे बढ़ते जाएंगे। यह आपके भुजबल पर निर्भर करता है कि आप कितनी तेजी से तैर सकते हैं।

 वास्तव में यह उत्तर गलत ही था क्योंकि -

 "भौतिकी में तैरने के सिद्दान्तों का संबंध उसके वजन , आयतन और घनत्व से है। यदि कोई वस्तु किसी द्रव में डाली जा रही है तो वह अपने डूबे हुए आयतन के बराबर द्रव विस्थापित करती है। जिसका भार वस्तु के भार के बराबर होता है। यदि वस्तु का घनत्व - द्रव से बहुत ज्यादा होगा तो वह डूब जाएगी। कम होगा तो तैर जाएगी और यदि बराबर होगा तो सतह के ठीक नीचे तैरती रहेगी। जहां वस्तु का घनत्व द्रव के घनत्व से थोड़ा ज्यादा होगा वहां वस्तु का कुछ भाग द्रव के ऊपर होगा और कुछ भाग द्रव में। वस्तु के डूबे हुए आयतन के बराबर द्रव का भार वस्तु के भार के बराबर होगा।"

सुनील के अनुसार उत्तर एकदम गलत था और उसने शून्य नंबर दिए थे। जबकि सर ने उसी सवाल जवाब पर विद्यार्थी को दो में से सवा नंबर दिए थे।

एक दूसरे पेपर को जाँचते हुए सुनील ने देखा कि एक विद्यार्थी को सर ने दो में से एक अंक दिए थे जबकि सुनील ने उसके लिए विद्यार्थी को पूरे नंबर दो में दो दिए थे।

अब जब तुलना पूरी हुई तो सर ने सुनील से पूछा तुम्हें कुछ दिखा ? सुनील ने अपने अवलोकन से सर को अवगत कराया। सर ने सुनील से पूछा –

 तुम्हारी जाँच में पहले विद्यार्थी को कितने नंबर कुल मिले ?”

सर साढ़े तेरह।

मेरी जाँच में ?”

सर 17 मिले हैं उस छात्र को।“

मतलब तुम्हारी जाँच से वह विद्यार्थी अनुत्तीर्ण था और मैंने उसे पास करा दिया। यही है न तुम्हारी समस्या ?”

 

दूसरे विद्यार्थी को कुल तुमने कितने नंबर दिए 

“ सर, पूरे 50 दिए हैं क्योंकि उसकी एक भी गलती नहीं थी।

“ और मैंने कितने दिए ?

“ सर 49, पर आपने तो बिना किसी कारण उसका एक नंबर काट लिया।

“ देखो सुनील, ऐसी बात नहीं है। उसके पेपर में वह बलों के त्रिभुज का प्रश्न खोलो उसमें उस विद्यार्थी ने त्रिभुज के शीर्षों के नामकरण अंग्रेजी के छोटे अक्षरों से किया है, जो गलत है। त्रिभुज के शीर्षों के नामकरण यदि अंग्रेजी के अक्षरों से किया गया हो तो हमेशा ही केपिटल लेटर में होने चाहिए । वह आसानी से हिंदी में लिख सकता था जहाँ केपिटल और स्माल का चक्कर नहीं है। यहाँ उसने चालाकी दिखाई और गलती कर गया।

लेकिन सर, यह तो अन्याय है। एक जगह आपने तैरने के सिद्धान्त के बदले तैरने की विधि लिखने पर भी नंबर दे दिए, जिसका वह हकदार नहीं था और यहाँ इतनी सी बात कि छोटे या बड़े अक्षर के लिए नंबर काट रहे हैं। उसको कितनी खुशी होती कि उसे 50 में 50 नंबर मिले हैं। पर आपने तो उसकी खुशी छीन ली।

 सर ने कहा अब गौर से सुनो।

 

1.      यह 11 वीं बोर्ड की परीक्षा है। इससे कई बच्चों का भविष्य जुड़ा होता है। बहुत से गरीब लड़कों की नौकरी और लड़कियों की शादी का इस परिणाम से सीधा संबंध होता है। खास तौर से वे बच्चे जिनको कम अंक मिलते हैं, पढ़ाई छोड़कर किसी काम में लग जाते हैं। इसलिए जिन बच्चों को पास होने के लिए कुछ रियायत की जरूरत होती है वह बख्श दी जाती है। जिससे कि उनके जीवन में कुछ ज्यादा आनंद आ सके।

     2.      जिन बच्चों को 45 प्रतिशत से 75 प्रतिशत तक के नंबर मिलते हैं        उनको साधारण अंको से ही, सही जिंदगी नसीब हो जाती है, इसलिए      उनके नंबरों को वैसा ही छोड़ दिया जाता है।

 

3.      जिन विद्यार्थियों को 85 प्रतिशत से ऊपर के नंबर मिलते हैं उनके अंको की पूर्णांक के करीबी को देखते हुए जाँच को कठिन से कठिनतर किया जाता है ताकि वह कम नंबर पाने की वजह से और भी मेहनत करे और जीवन में बेहतर करे। यह सर्वविदित है कि 85 प्रतिशत से ऊपर नंबर पाने वाला 11 वीं से अपनी पढ़ाई खत्म तो नहीं करेगा और उसकी मेहनत उसकी अगली कक्षाओं में उसे बेहतर करने में साथ देंगी।

 यह सब सुनकर सुनील को लगा कि शिक्षक कठोर दिल नहीं होते किंतु काल्पनिक कठोरता विद्यार्थियों के भले के लिए अपनाते हैं। उसे समझ में भलीभाँति आ गया कि झा सर ऊपर से कठोर जरूर हैं, पर उनमें विद्यार्थियों के भविष्य के प्रति पूरी चिंता रहती है। इसीलिए वे बच्चों को कठोर अनुशासन में रखते हैं।

 आम विद्यार्थियों को शिक्षकों के इस पहलू का ज्ञान नहीं होता। 

रविवार, 27 जून 2021

बुढ़ापे का सीख

 बुढापे की सीख


कुछ दिन से एक बच्चा मुझसे पढ़ने आ रहा है।  पहले भी कुछ समय के लिए आया था किंतु होम वर्क न करने के कारण जब मैंने उसे वापस भेज दिया तो घर वालोें को अच्छा नहीं लगा और उसने आना बंद कर दिया। अब घर वालों ने फिर से भेजना शुरु किया है। मैंने  देखा कि बच्चे को पढ़ने का शौक नहीं है और शायद घर वालों की जबरदस्ती से यहाँ आ रहा है। दो चार बार उससे पूछा भी और उसने दबी जुबान में स्वीकारा भी।  कल उस बच्चे से कुछ विस्तार में बात हुई। मुझे सही मायने में पता करना था कि इस बच्चे को पता भी है कि पढ़ने से उसकी जिंदगी सुधर जाएगी? 

मैंने बातों-बातों मे बच्चे  से कहा बेटा पढ़ लो वरना और लोगों जैसे दुकान में काम करना पड़ेगा। होटल में बरतन माँजना होगा। आड़े-टेढ़े काम करने पड़ेंगे । उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

मैंने आगे कहा - तुम्हें समझ में आ भी रहा है कि तुम नहीं पढ़ोगे तो किसका नुकसान होगा?

बच्चे के चेहरे पर थोड़ी रौनक आई। जैसे उसे पता है इसका उत्तर।

मैंने फिर से वही सवाल पूछा तो बोला - हाँ।

मुझे बड़ी खुशी हुई कि बच्चा समझ रहा है।

आगे पूछा तो जवाब आया -

मम्मी पापा का

तसल्ली करने के लिए मेंने दोबारा वही सवाल किया तो दोबारा भी वही जवाब मिला।

संयोगवश उस वक्त बच्चे की माताजी भी मेरे घर पर ही थी। 

मैंने उन्हें बुलाया और कहा कि बेटे की बात सुन लो -

फिर बच्चे से - माँ जी के सामने पूछा 

"बेटा, तुम नहीं पढ़ोगे तो किसका नुकसान होगा?"

निडर साहसी बच्चे ने तुरंत जवाब दिया - 

"मम्मी पापा का"

मम्मी मुझे देख रही थी कि अब वह करे तो क्या करे?

किंकर्तव्यविमूढ़ सी।

उसे शायद अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ तो फिर बच्चे से उसी ने पूछा और जवाब सुनकर सर पीटते हुए चली गई।

इस घटना से इस बुढापे में मैंने सीखा -  

"बच्चे नहीं पढ़ें तो मम्मी-पापा का नुकसान होता है।"

इसलिए बच्चे का एहसान मानिए - यदि आपका बच्चा अच्छे से पढ़ रहा है या  आपके बच्चे ने अच्छे से पढ़ लिया है।

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25.06.2021

(यह हकीकत है मनगढंत नहीं। कल की ही घटना है।)

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

ऑनलाइन शिक्षा

ऑनलाइन शिक्षा

ऑनलाइन शिक्षा की बात करते ही सबसे पहले जरूरत महसूस होती है कम से कम एक अदद अच्छी मेमोरी वाले एँड्राइड फोन की और भरपूर डाटा वाली इंटरनेट सेवा की। यह कहना सामान्य बात है कि आजकल सबके पास स्मार्ट फोन है किंतु कितने विद्यार्थियों के पास यह सुविधा है इसकी जाँच करने पर पता चलेगा कि करीब 40 % छात्रों के पास इसकी उपलब्धि नहीं है।

ऑनलाइन में जूम पर पढ़ने के लिए जरूरी नेट का पैकेज भी कम लोगों के पास ही होता है। फलस्वरूप कई बच्चे ऑन लाइन शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। पता नहीं कितनी शिक्षिकाओँ के पास यह सुविधा और जरूरी जानकारी है। आप अपनी नजर हायर इकोनोमिक और मिडल इकोनोमिक जनता से हटाकर लोवर इकोनोमिक स्ट्राटा पर आएँ तो स्थिति भयावह नजर आएगी। आप आँकड़े देखिए कि कितने बच्चे शिक्षा ऑनलाइन हो जाने के कारण शिक्षा से वंचित (अलग) हो गए और परिवार की स्थिति की वजह से बाल-मजदूर में बदल गए । यह बात अलग और एक अलग समस्या है कि रूबरू कक्षाएँ शुरु होने पर इनमें से कितने वापस कक्षाओँ तक पहुँच पाएंगे ?

दूसरी समस्या यह है कि जिनके पास स्मार्ट फोन है उनमें से कितनों को जूम जैसे प्रोग्राम पर मीटिंग करना और उसमें सम्मिलित होने का ज्ञान है ? ज्यादातर लोगों को तो नहीं है। बहुत से अभिभावकों को ही ऑनलाइन मीटिंगों की जानकारी नहीं है। कुछ बच्चे तो फिर भी घर के बड़ों से या यू-ट्यूब से सीख सकते हैं किंतु बड़ी उम्र की शिक्षिकाओं को कौन सिखाए। ऐसी नौबत आएगी यह किसको पता था, जो यह सब सीख कर रखते ? घर पर कालेज में पढ़ते बच्चे हों तो कुछ राहत मिल सकती है। ना जानें कितनों के पास यह सुविधा है। शिक्षिकाओं को ऑनलाइन पढ़ाने के लिए तैयार होने में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह जानने के लिए गाँव की किसी शिक्षिका से संपर्क करें।

इसके अलावा एक और समस्या है कि ऑनलाइन पर बच्चों में बाँटने के लिए नोट्स बनाना और समय पर उनको बच्चों में बाँटना। नोट्स बनाने के लिए टाइप करना , उसमें चित्र, रसायनिक समीकरण, ब्लॉक्स जैसे कुछ और भी डालना आना चाहिए। इनको ऑनलाइन वितरण करना भी आना चाहिए। जिन शिक्षकों को इसका ज्ञान है वो तो तर जाएँगे, पर जिन्हें न हो उनकी तो कमर टूट सी जाएगी। जो बच्चे जूम जैसे प्लेटफार्म से वाकिफ नहीं हैं, उनके तो क्लास भी गए और वे तो पढ़ाई से भी रह ही गए। कई जानकार शिक्षक वीडियो बनाकर भी वाट्सएप के द्वारा क्लास ग्रुप में भेज देते हैं ताकि गैरहाजिर बच्चे पढ़ाई की क्षतिपूर्ति कर सकें।

टीच फ्रम होम (ऑनलाइन टीचिंग) में स्कूल का काम भी घर से होता है। फलस्वरूप शिक्षिकाएँ स्कूल के समय में भी घर पर उपलब्ध हैं, भले स्कूल के काम में ही लगी हुई  हैं । लेकिन घर वाले - बच्चे जो खुद स्कूल बंद होने का कारण या बड़े जो वर्क फ्रम होम के कारण - घर पर हैं – उनको शिक्षिका की घर पर उपस्थिति साधारण ही समझ में आती है।  इसकी वजह से उनके वर्क (टीच) फ्रम होम के साथ वर्क फर होम  भी जुड़ जाता है। पहले घर में घर का और स्कूल में स्कूल का काम होता था, पर अब पूरे दिन घर और स्कूल दोनों जगहों का काम होते रहता है। अब शिक्षिका का वाटसएप नंबर भी सारे बच्चों के पास चला गया है, तो अब कुछ नासमझ बच्चे और अभिभावक जब मर्जी आए – समय-बेसमय शिक्षिकाओं को फोन करते रहते हैं।

रूबरू पढ़ाई के दिनों में भी पढ़ाने के लिए अगले दिन (दिनों) के लिए विषय के नोट्स बनाने पड़ते थे, पर वे खुद के लिए होते थे। इसे किसी भी तरह लिखा जा सकता था, क्योंकि खुद को ही पढ़ना है। किंतु ऑनलाइन पढ़ाई में बच्चों को नोट्स देने होंगे इसलिए उन्हें सुघड़ हस्ताक्षरों में लिखना होगा या फिर पूरा टाइप करना होगा। जो विषय पढ़ाना है उसको टाइप करना आना भी एक खास बात है। कोई भाषा पढ़ाते हैं तो कोई विज्ञान, रसायन शास्त्र,गणित या कोई भौतिक शास्त्र। इनको टाइप करना साधारण काम नहीं है। विज्ञान के चित्र और रसायन के समीकरण और अन्य भाषाएँ टाइप करना विशेष गुण है। यह सबसे नहीं हो सकता। इसी तरह के बहुत से काम ऑनलाइन शिक्षा में शिक्षिकाओं के साथ जुड़ जाते हैं, जो बाहर दिखाई नहीं देते। बाहर से टाइप कराया जा सकता है किंतु उसमें कुछ रकम जाया करनी पड़ती है। 

ऑनलाइन कक्षा में कितने बच्चे हाजिर रहे, इसका रिकॉर्ड रखना पड़ता है, जो आसान नहीं हैक्योंकि सारे बच्चों के पास नेट कनेक्टिविटी एक सी नहीं होती इसलिए वे  कक्षा के बीच-बीच में कक्षा से बाहर हो जाते हैं और थोड़ी देर में फिर से जॉइन होते हैं। लेक्चर को रोककर बार-बार उन्हें एंटर करना (अनुमतु देना) भी एक समस्या है। ना करें तो बाद में अभिभावक फोन करके सिर खाते हैं, परेशान करते हैं कि आपने बच्चे को कक्षा में क्यूँ नहीं लिया, मीटिंग लॉक क्यूँ कर दी, आदि-आदि। इस विषय में प्रबंधन भी अभिभावकों की तरफदारी करता है, उनको फीस जो चाहिए।

एक अनूठी समस्या यह है कि कक्षा में बच्चे यदि सुन-समझ नहीं पाएँ तो शिक्षिका से जितनी बार चाहें सुनने-समझने तक पूछ सकते थे, किंतु ऑनलाइन में यह सुविधा नहीं होती। क्योंकि वहाँ समय की पाबंदी होती है। इसलिए शिक्षिका को धीरे-धीरे दोहराते हुए पढ़ाना पड़ता है। इसके कारण पढ़ाई की गति कम होती जाती है। साथ ही विद्यार्थियों के संशय समाधान और प्रश्न पूछने के लिए कहीं तो समय होता ही नहीं या तो कहीं समयखंड (पीरियड) के अंत में समय दिया जाता है। तब तक तो कई विद्यार्थी सवाल भी भूल चुके होते हैं। इस तरह ऑनलाइन शिक्षा में पढ़ाई की गुणवत्ता भी घटती जाती है।

बच्चों की खातिर शिक्षिका इतना सब भी करने को तैयार हो जाती हैं। किंतु उन पर गाज तब गिरी जब निजी स्कूलों में उनकी तनख्वाह घटा दी गई। स्कूलों में वेतन घटाकर 70, 50, 30 प्रतिशत तक भी कर दी गई। एकाध स्कूल में किसी महीने तनख्वाह दी ही नहीं गई है। अब सोचिए काम ज्यादा, वेतन आधा किसको सुहाएगा। बाल-कल्याण समझकर काम करने पर भी, ऐसा व्यवहार किसे संतुष्ट रख सकेगा। यहाँ जाकर शिक्षिकाओं में असंतोष फैलने लगा। लेकिन वे भी किसी हद तक मजबूर थे । परिवार चलाना था। निजी नौकरी वाले पति / पत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्यों की भी नौकरी जाती रही या फिर वेतन घट गया। भूखे तो नहीं  मर सकते हैं ना !!! इसीलिए स्कूल प्रबंधन के कहने पर कभी घर से तो कभी स्कूल से, कभी ऑनलाइन तो कभी रूबरू  पढ़ाया। 

सरकारी स्कूलों में न ही तनख्वाह घटी, न ही ऑन लाइन पढ़ाई हुई। बच्चों की भी छुट्टी और शिक्षिकाओं की भी। उनके तो मजे ही मजे हैं। पाँचों उंगली घी में और सर कढ़ाई में। सरकार ने तो कानून बनाए कि इस महामारी के दौरान किसी को नौकरी से न निकाला जाए न ही वेतन में किसी प्रकार की कटौती की जाए, किंतु यह कागजी कानून बनकर सड़ गया।

प्रबंधन ने तब हद ही कर दी, जब कहा कि शिक्षिका बच्चों के अभिभावकों से बात करे और उनको फीस जमा करने के लिए तैयार करे। यह काम मिनिस्टीरियल स्टाफ या एकाउंटिंग विभाग का होता है, पर शिक्षिकाओं पर लाद दिया जा रहा है। साथ में सफाई यह कि आप तो बच्चों के संपर्क में हो। तो क्या जिनका काम है वे बच्चों से संपर्क नहीं कर सकते?  या फिर किसी शिक्षिका की कक्षा के दौरान ही वे अभिभावकों से बात नहीं कर सकते ? पर नहीं - शिक्षिकाओं पर ही लादना है।

इन सब परेशानियों को झेलने के बाद शिक्षिका तब हिम्मत हार जाती है, जब जिनके लिए सारा ताम-झाम किया जा रहा है, वे विद्यार्थी ही खुद इसमें रुचि नहीं दिखाते। समय पर सम्मिलित होना, होम वर्क के साथ तैयार रहना, पढ़ाए जा रहे विषय को सीखने समझने की जिज्ञासा रखना – ये उनको बोझ लगते हैं। उनके लिए ऑनलाइन शिक्षा टाइमपास का एक उत्तम साधन है। उधर 90 % अभिभावक ऐसे हैं जो ऑनलाइन क्लास के दौरान अपने बच्चों पर नजर नहीं रखते । मोबाइल बच्चे के हाथ में है और कान में इयरफोन लगा हुआ है। बस उनकी जिम्मेदारी खत्म ।

बच्चा शिक्षिका का लेक्चर सुन रहा है या गाने  ? माता-पिता को पता ही नहीं चलता।

ऐसे भी बच्चे हैं जो अपनी उपस्थिति दर्ज करके लापता हो जाते हैं। कुछ, खासकर बड़ी कक्षाओं के उपद्रवी बच्चे तो अपने जूम मीटिंग का आई डी और पासवर्ड भी दूसरों को दे देते हैं। यह बाहरी लोग पढ़ाई में खलल करते हैं, इनको रोकना और इनकी पहचान करना, इसी में पढ़ाई का आधा समय निकल जाता है। कभी तो यह संभव भी नहीं हो पाता। ये कक्षा में लड़कियों को परेशान करते हैं , अनचाही टिप्पणियाँ करते हैं। कुछ तो शिक्षिकाओं के प्रति भी अपशब्द लिखते और कहते हैं - जो पूरी कक्षा देखती है। मुझे ऐसी घटनाओँ का प्रथमतया ज्ञान है किंतु मैं उसे यहाँ उद्धृत नहीं कर सकता। स्कूल प्रबंधन को सूचित करने पर भी प्रबंधन के कान में जूं नहीं रेंगती। इस तरह की समस्याएँ अनुभवहीन व्यक्ति तो सोच भी नहीं सकता।

शिक्षिकाओं से इतना सब करवाने के बाद सारे विद्यार्थियों को बिना परीक्षा के या नाम मात्र को ऑनलाइन परीक्षा कहकर अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता है। सोचिए , शिक्षिकाओं की मनोदशा का क्या होगा ? उनको किस हद तक निराश होना पड़ रहा है ? कई शिक्षिकाएँ इन हालातों के कारण मानसिक वेदना का अनुभव कर रहीं हैं। हो सकता है कि देश के किसी कोने में किसी ने आत्महत्या का प्रयत्न भी  किया होगा। अभी तक तो मुझे इसकी खबर नहीं है।

उधर शिक्षिकाओं का वह हाल है। इधर बच्चों की सोचें। सुबह उठकर, नहा-धोकर, नाश्ता कर, दूध – बोर्नविटा जैसे कुछ पीकर फटाफट बस स्टैंड की तरफ दौड़ने की उनकी आदत तो खत्म ही हो गई है। मतलब कि बच्चों में अनुशासन की कमी हो गई है। बे-समय सोएंगे, बे-समय उठेंगे। नाश्ते का कोई तय समय नहीं है। जब नींद खुले तब ही सवेरा। देर रात तक दोस्तों और अन्यों से फोन पर या चेट पर बात होती रहेगी। वीडियो या फिल्म देखते रहेंगे और सोते-सोते रात के  2-3 बज जाते हैं, तो सुबह उठा कैसे जाएगा ? ऐसे बे-समय और अनियमित हरकतों के कारण बदहजमी, मोटापा और आलस जैसी बीमारियाँ बिना बताए ही आ जाती हैं। अभिभावक भी सोचते हैं - चलो छुट्टियाँ तो हैं , ठीक है, चलने दो। किंतु उनके भेजे में भी यह सोच नहीं आती कि स्कूल खुलने पर वह अनुशासन लौटेगा कैसे ? क्या जब स्कूल खुलेगा,  तब ये आराम-तलब बच्चे कक्षाओं में पाँच छः घंटे बैठ पाएँगे ?

अब सोचिए उन शिक्षिकाओँ के बारे में जिनके घर में खुद के स्कूल जाने वाले बच्चे हैं। वह किधर जाए ? खुद के स्कूल का काम देखे ? पति, देवर, ननद, सास- ससुर, जेठानी के काम संभाले या फिर बच्चों में अनुशासन का प्रयत्न करे।

इन सबके बोझ में परिवार का रहन-सहन पटरी से कब उतर जाता है, पता ही नहीं चलता। भगवान ही जानता है। उनका तो परिवार ही बिखर जाता है। 

इससे साफ जाहिर है कि मजबूरी में हमने ऑनलाइन शिक्षा को अपनी तरह से अपना लिया है किंतु उसमें अभी समस्याएं ही समस्याएं हैं जिनका हल खोजने की प्रक्रिया तो अभी शुरू भी नहीं हुई है। उनके समाधानों के बाद शायद ऑनलाइन शिक्षा समाज के लिए वरदान साबित हो सकेगा । अभी तो मजबूरी और अभिशाप सा ही है।

ऑनलाइन शिक्षा के फायदे भी बहुत से हैं, परंतु हमारे देश में उनका पूरा लाभ उठाने के लिए आवश्यक तकनीक, तकनीकी सुविधा, पूर्ण प्रशिक्षित शिक्षक, सुशिक्षित माता-पिता, स्वअनुशासित बच्चे और उनके स्वअनुशासित माता-पिता - अभी ना के बराबर हैं। इन सबसे बढ़कर तो यह कि हम भारतीय इस प्रकार की पढ़ाई के आदी ही नहीं हैं। इससे सामंजस्य बिठाने में हमें अभी बहुत समय लगेगा।

लेख में हर जगह शिक्षिका का जिक्र है क्योंकि गाज उन पर ज्यादा गिरती है। इनमें  से काफी कुछ शिक्षकों से साथ भी होता है। गृहस्थी और परिवार की समस्याएं कामकाजी महिलाओं के साथ भी है। इसका इस लेख में जिक्र नहीं किया गया है क्योंकि यह लेख ऑनलाइन शिक्षा को ही समर्पित है।

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