मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

तबाही

तबाही

वे चाय ही पीने आए थे, दूध का
पतीला ही उँडेलकर चले गए.
इक रात ही रहने आए थे,
वो, घर ही जलाकर चले गए.

बस बहार का रस लेने,
बगिया में विहार को आए थे,
फूलों की महक के नशेमन वे,
पतझड़ सी आँधी बहा गए.

नदिया के यौवन को तरसे,
भरपूर निहारने आए थे,
नदिया तो उफान प'आ पहुँची,
हर फसल सड़ाकर चले गए.

वे खुद ही लुटने आए थे, 
पर लूट मचाकर चले गए,
घर - दीप जलाने आए थे
गृह दीप बुझाकर चले गए.
.......

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

टूटते बंधन

टूटते बंधन

पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण की होड़ में जो सबसे महत्वपूर्ण बातें सीखी गई या सीखी जा रही है उनमें जो सर्वप्रथम स्थान पर आता है वह है बंधन मुक्त होना. जीवन के हर विधा में बंधनों को तोड़कर बाहर मुक्त गगन में आने की प्रथा चल पड़ी है. यहाँ यह विचार विमर्श का विषय नहीं है कि यह उचित है या अनुचित. बस एक अवलोकन है , वक्तव्य है.

इसी प्रथा के चलते हिंदी कविता के क्षेत्र में भी बदलाव आए हैं.  पहले जो कविता मात्राओं और गणों के बंधन में होती थी अब मुक्त हो गई है. दोहा, चौपाई, कुंडलियाँ अब देखने में कम आती हैं. गद्य कविता की भरमार है. भाषा के आभूषण कहे जाने वाले अलंकार अब कहाँ मिलते हैं. अनुप्रास तो फिर भी यदा – कदा कहीं - कहीं समा जाता है, पर यमक और श्लेष तो जैसे मिट से गए हैं.

रचना की एक नई विधा हाईकूआजकल चलन में है. यह मुझे तो समझ ही नहीं आई. ऐसा लगा कि यह मात्र तुकबंदी है. पर इसमें भी सरोजनी प्रीतम की क्षणिकाएं कहीं उत्कृष्ट लगती हैं. इन दिनों पुराने छंद रविकर जी, विर्क जी और मयंक जी के ब्लॉग पर ही देखने को मिलते हैं

कुछ पुराने रचनाकार भी अब बंधनमुक्त गद्य कविता में समाने लगे हैं. बहुत से नए रचनाकारों को शायद गणों और मात्राओं का ज्ञान भी नहीं है और जिन्हें है, वे भी अब इसकी उपयोगिता को कमतर ही आँकते हैं. जान-बूझ-चाह कर मात्राओं के बंधन में कविताई बहुत कम हो गई है. नगण्य कहा जा सकता है.

नए रचनाकारों का शब्द सामर्थ्य बहुत अच्छा है. पिछले एकाध दशक में प्रसाद व महादेवी को पढकर निकले उच्च शिक्षार्थियों की शब्द संपदा सराहनीय होती है. उनकी रचनाओं में साहित्यिक शब्दावली बहुत मिलती है, जिसके चलते उसमें कुछ क्लिष्टता आ जाती है. एक तो बंधन मुक्त कविता उस पर शाब्दिक क्लिष्टता, भाषा के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करती है.  

शब्द सामर्थ्य के साथ शब्द चयन भी बेहतर हुआ है. पर चयन में भाषा की सरलता, सरसता, प्रवाह और लय पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इसलिए आज कविता में लय और प्रवाह नदारद है. सही शब्दचयन से कविता में लय, सरसता और प्रवाह बखूबी लाया जा सकता है.

हालाँकि नए रचनाकारों ने बहुत ही साधना की है, पढ़ा है, साहित्य का ज्ञानार्जन किया है , पर बंधन मुक्ति के दौर में शायद सरलता, लय और प्रवाह उनसे छूट गए हैं.

जो मंचीय रचनाकार है या जो रचनाकार गीत रचते हैं, उन्हें बखूबी समझ आता होगा कि कविता के लिए गेयता कितना मुख्य है. इसी कमी के कारण गीतों में भी अलग अलग छंद, अलग राग अलापते हैं, जो श्रवण सुख से परे होता है.

मेरी इच्छा है कि ये नए रचनाकार एक बार फिर मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, कबीर जैसों को पढ़ें. हल्की फुल्की मेहनत से सशक्त शब्द चयन द्वारा रचनाकार सरलता और गेयता को बढ़ाकर उसकी बेहतरी की तरफ ध्यान दें.

भाषा की क्लिष्टता कहें या शब्द चयन इस पर बखूबी निर्भर करता है कि रचना किस पाठक वर्ग को अग्रेषित है. बाल कविता बाल सुलभ भाषा में होनी चाहिए और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए हो तो भाषा क्लिष्टतम हो सकती है. उसी अनुसार शब्द सामर्थ्य का प्रयोग कर शब्द चयन करना चाहिए. सही शब्द चयन न होने पर सामान्यतः रिक्शा चालकों से अंग्रेजी में बात करने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. उचित पाठक वर्ग इसे समझ नहीं पाएगा.

ऐसा नहीं है कि क्लिष्ट शब्दावली से प्रवाह उत्पन्न नहीं होता...देखिए–

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती,

ऐसे अनन्य उदाहरण हैं. पर हाँ यह इतना आसान भी नहीं है.
भाषा की सरलता से प्रवाह लाना कहीं आसान है.

मेरी नव रचनाकारों से विनती रहेगी कि वे अपने शब्द सामर्थ्य और चयन कौशल का विशेष प्रयोग कर सरलता, सरसता, लय और प्रवाह को बनाए रखने पर विशेष ध्यान दें.                                                  

ऐसा भी नहीं है कि कविता में लय , सरलता या प्रवाह होना जरूरी है. नए रचनाकार यह न समझें कि उनकी रचनाओं की अवहेलना हो रही है या नीचा दिखाया जा रहा है. हाँ सरल लयबद्ध रचना जुबाँ पर जल्दी चढ़ती है, मन में जगह जल्दी बना लेती है.
बाकी हर रचनाकार तो स्वतंत्र है ही.
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