हिन्दी – हिंदुस्तानी – हिन्दी दिवस
1918 के काँग्रेस अधिवेशन में महात्मा गाँधी जी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा पद पर
आसीन कराने का प्रस्ताव रखा । साथ ही पूरा मसौदा भी तैयार था कि राष्ट्रभाषा में
कौन-कौन से गुण होने चाहिए। इसके अनुसार भारतीय भाषाओं में हिन्दी/हिंदुस्तानी ही राष्ट्रभाषा
बन सकती थी। कितु प्रस्ताव पास नहीं हो सका और चयनित हिन्दी भी भारत की
राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी।
संविधान की भाषा समिति ने 14 सितंबर 1949 के दिन हिन्दी को भारत की राजभाषा चुना। इसी दिन मूर्धन्य हिन्दी साहित्यकार व्यौहार राजेंद्रसिंह का पचासवाँ जन्मदिन था। इसीलिए इस दिन को विशेष मानकर, इसी दिन राजभाषा का चुनाव किया गया। जब राजभाषा के रूप में हिंदी को चुना गया और लागू किया गया, तो अ-हिन्दी भाषी राज्य के लोग इसका विरोध करने लगे और इसीलिए अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। इस कारण हिन्दी के उपयोग पर अंग्रेजी भाषा का प्रभाव पड़ा और अंग्रेजी के प्रयोग ने हिन्दी के प्रयोग को कम कर दिया। 26 जनवरी 1950 को संविधान के साथ ही हिंदी भी राजभाषा के पद पर पीठासीन हुई। 14 सितंबर 1953 को पहला (राष्ट्रीय) हिन्दी दिवस मनाया गया।
आज भी कई लोग हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहते फिरते हैं। साथ ही अपनी तरह के तर्क
देते हैं। इस विषय पर बहुत से वीडियो भी यू ट्यूब पर मौजूद हैं। पता नहीं राजभाषा
विभाग इस पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रहा है ? क्या उनको इसका ज्ञान नहीं है या वे अनभिज्ञ ही रहना चाहते हैं या फिर
मँजे हुए राजनीतिज्ञों की तरह उन्होंने भी 'निर्णय नहीं लेना है' का निर्णय लिया हुआ
है ?
परतंत्रता की सदियों मे, स्वतंत्रता-आंदोलन में लोगों को एक जुट करने के लिए राष्ट्रभाषा शब्द का शायद प्रथम प्रयोग हुआ। गाँधी जी खुद मानते और चाहते थे कि राष्ट्र को एक भाषा में पिरोने के लिए केवल हिंदुस्तानी ही सक्षम है और हिंदुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए ।
महात्मा
गाँधी ने राष्ट्रभाषा के लिए निम्न आवश्यक गुणों का होना जरूरी बताया था –
1. सीखने
में आसानी।
2. राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक-वाणिज्यिक व्याख्यानों के लिए उपयोगी।
3. ज्यादातर
नागरिकों की भाषा हो।
4. यह
एक निश्चित अवधि के लिए न होकर हमेशा के लिए हो।
इन सिद्धान्तों के आधार पर गाँधी जी की नजर में हिंदुस्तानी (बोल चाल की हिंदी भाषा) राष्ट्रभाषा के लिए सबसे उचित लगी । बोलचाल की हिंदुस्तानी हिंदी व उर्दू का वह मिला जुला रूप है, जो भारत की जनता दैनिक जीवन में उपयोग करती है। गाँधीजी ने अंत तक राष्ट्रभाषा के लिए हिंदी का नहीं बल्कि हिंदुस्तानी का ही साथ दिया। उनका कहना था कि हिंदुस्तानी - हिंदुओं एवं मुसलमानों दोनों को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य रखती है। लेकिन अन्य नेता केवल हिंदी चाहते थे। आज ऐसा लगता है कि यदि हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर होता, तो देश में बसे उत्तर व दक्षिण के मुसलमान भी साथ आते और राष्ट्रभाषा-राजभाषा का पथ आज जैसा पथरीला नहीं होता।
अन्यों का
समर्थन न पाने पर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में ही गाँधी जी ने हिंदी को
राष्ट्रभाषा घोषित करने के सभी इंतजामात कर लिए थे। इसकी पूरी रूपरेखा तैयार
कर ली गई थी। लेकिन नेताओं ने इसका समर्थन नहीं किया। उन्हें लगता था कि भारत की सभी भाषाएँ समान रूप से राष्ट्रभाषा बनने की अधिकारिणी हैं - खासकर तमिल, तेलुगु, मराठी और बंगाली जो साहित्य-संपन्न हैं। ऐसा तर्क दिया गया कि तेलुगु व
तमिल भाषाएँ तो हिंदी की अपेक्षाकृत ज्यादा पुरानी भी हैं। दक्षिण भारतीयों का
मानना था कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने से हिंदी मातृभाषी लोगों को स्वाभाविकतः अधिक
फायदा हो जाएगा तथा राजनीति के अलावा भी अन्य क्षेत्रों में हिंदी भाषी बाजी मार
ले जाएंगे।
इस समय जो हालात बने उससे लगता है कि हिंदी को काँग्रेस का मोहरा मान लिया गया और राजनीतिक रंग चढ़ने के कारण आज राष्ट्रभाषा तो क्या हिंदी राजभाषा भी सही तरह से नहीं बन सकी। इन सब कारणों से अहिंदी भाषियों ने, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम को, उन पर हिंदी थोपी जाने के रूप में देखा। इस खींचातानी के दौर में राष्ट्रभाषा शब्द के कई मतलब निकाल लिए गए । स्पष्ट ही नहीं होता कि कौन इस शब्द का किस मतलब से प्रयोग कर रहा है। तब से अब तक राष्ट्रभाषा शब्द का कोई भी स्थिर अर्थ नहीं निकल सका। सन् 1995 में राजभाषा सचिवालय से प्रकाशित एक गृह पत्रिका में मैने पहली बार – राष्ट्रभाषाएँ – शब्द देखा, पढ़ा । लेख तत्समय गृह मंत्री (श्री) एस.बी.चवन का लिखा था। इसके बाद दो एक जगहों पर राष्ट्रभाषाएँ शब्द दिखा, पर अब भी इसका प्रयोग सीमित ही है।
इस दौरान कइयों ने राष्ट्रभाषा शब्द के अपनी अपनी तरह के कई मतलब निकाल लिए। प्रमुखतः राष्ट्रभाषा के निम्न अर्थ बने : –
1 राष्ट्र में सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाली भाषा
2 राष्ट्र में प्रयुक्त होने वाली एक (प्रमुख) भाषा
3 राष्ट्र के प्रतीक चिह्न के रूप में राष्ट्रभाषा
अलग - अलग लोगों ने अलग
- अलग समय में इस शब्द का अलग - अलग अर्थों में प्रयोग किया। जिसका नतीजा यह हुआ
कि लोग समझने लगे कि हिंदी भाषी खुद इस बात से भली - भाँति अवगत नहीं हैं कि
राष्ट्रभाषा व राजभाषा में क्या भिन्नता है।
कइयों ने तर्क दिया कि संस्कृत भाषा, हिंदी भाषी व तमिल भाषी दोनों निकायों को मान्य राष्ट्रभाषा होगी । पर इसमें मुश्किल यह थी कि यह जन सामान्य द्वारा बोली नहीं जाती थी या बोली जा सकती थी। अंततः यह मात्र राष्ट्र के प्रतीक भाषा का रूप धारण कर जाएगी। राष्ट्रभाषा के लिए यह तो ठीक है, पर राजभाषा के लिए यह अनुचित है। राष्ट्रभाषा का यह सुझाव, खासकर हिंदी भाषियों को रास नहीं आया क्योंकि राष्ट्रभाषा के आड़ में वे हिंदी को राजभाषा भी बनाना चाहते थे या फिर उन्हें राष्ट्रभाषा व राजभाषा की भिन्नता का ज्ञान ही नहीं था। हालाँकि वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करते थे, किंतु राजभाषा बनाना चाहते थे।
स्वतंत्रता के बाद जब गाँधीजी ही नहीं रहे, तब हिंदुस्तानी का कोई पैरवीकार ही नहीं बचा। सब हिंदी के पक्षधर बचे। उर्दू होड़ से बाहर ही हो गई। बस हिंदी थी और अपने ही घर की तमिल। संविधान की भाषा समिति ने भी राष्ट्रभाषा शब्द के प्रयोग से परहेज किया और राजभाषा के रूप में एक नया शब्द ईजाद किया। इसका उन्होंने ‘भारत देश की राजकाज की भाषा’’ के रूप में तात्पर्य दिया।
ऐसा लगता है कि यदि काँग्रेस अपने अधिवेशन के पहले अन्य राजनीतिक पार्टियों से संपर्क करती, यदि लोंगों को विश्वास में लेकर किया जाता, तो हिंदी के प्रचार प्रसार से लोगों को शायद आपत्ति नहीं होती और हिंदी को पीठासीन करना आसान होता । शायद हिंदी के प्रति लोगों का रवैया आज जैसा नहीं होता और हमारी राज काज की भाषा हिंदी देश की राजभाषा नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा ही होती ।
राजभाषा सचिवालय की पत्रिका राजभाषा भारती के एक अंक के अनुसार भाषा समिति के अंतिम निर्णय के समय तमिल व हिंदी के बीच टकराव हुआ और हिंदी अध्यक्षीय मत से विजयी हो गई। तब से हिंदी के प्रति तमिल भाषियों का विरोध जारी है। कालांतर में वह राजनीतिक रूप धारण कर गया जो अभी भी हावी है। सावधानीपूर्वक देश की अन्य प्रमुख भाषाओं को संविधान के अष्टम अनुच्छेद में एकत्रित कर उन्हें राज्य की राजभाषाएं कहा। यह भाषाएं अपने - अपने भाषाई राज्य की कामकाजी भाषाएँ थीं या बनीं।
तमिल व हिंदी के बीच के टकराव के ही कारण शायद 1949 में निर्णीत राजभाषा को स्कूल कालेज की पुस्तकों से दूर रखकर हिंदी को राष्ट्रभाषा ही बताया गया । 1963 का राजभाषा अधिनियम जम्मू-कश्मीर के अलावा तमिलनाडू में भी प्रभावी नहीं है। अंग्रेजी जो पहले 15 साल तक अस्थायी रूप से हिंदी का साथ देने वाली थी, अब करीब – करीब स्थायी हो गई है। इस अधिनियम के अनुसार, सन 1965 में जब हिंदी को पूर्ण रूपेण राजभाषा बनाने का समय आया तो इस बाबत अध्यादेश जारी हो गए थे । लेकिन तमिलनाडू भड़क गया और भभकने लगा। हिंदी का विरोध जोरों से हुआ। शायद अग्निस्नान की घटनाएं भी हुई । फलस्वरूप हालातों को सँभालने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद में वक्तव्य दिया कि जब तक सारे राज्य हिंदी को राजभाषा स्वीकार नहीं कर लेते तब तक अंग्रेजी हिंदी का साथ देते रहेगी। अब भी अंग्रेजी राजभाषा के पद पर हिंदी के साथ आसीन है। हालातों के मद्देनजर ऐसा लगता है कि अब अंग्रेजी हटने वाली ही नहीं है।
साराँशतः हिंदी न कभी राष्ट्रभाषा रही न ही अभी है। हिंदी राजभाषा मात्र है। संवैधानिक तौर पर हिंदी को राजभाषा का ही दर्जा दिया गया। लेकिन अब भी बहुत से हिंदी भाषी इस भ्रम में हैं कि संविधान हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देता है, क्योंकि यह देश के अधिकांश भागों में बोली और समझी जाती है। जबकि पूरे संविधान में राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं । कुछ तो इसे देश की मातृ भाषा कहने से भी नहीं चूकते। उनको शायद समझ नहीं आता कि कई भाषाओं वाले इस देश में हिंदी सबकी मातृभाषा कैसे हो सकती है ?
कई लोग तो मानने को भी तैयार ही नहीं हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा
नहीं है। संविधान में यह शब्द है ही नहीं। बहुत
लोग “व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर” हिंदी भाषी लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा
ही मानते है। भले ही यह संवैधानिक तौर पर लागू न हो । लोग मानते हैं कि संविधान में स्वतंत्रता
के बाद के लिए किए गए प्रावधानों में यह लिखा जाना कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी राजभाषा (संपर्क भाषा) के रूप में चलती रहेगी का मतलब
हुआ कि इसके बाद हिंदी को पूर्णतः राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया जाएगा। किंतु यह महज
प्रावधान स्वरूप रखा गया था ताकि 15 वर्षों में
अहिंदी भाषा क्षेत्र के लोग हिंदी सीख लें, पर ऐसा नहीं
हुआ और हम आज भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मानजनक
स्थान नहीं दिला पाए। हमारे संविधान पीठ की भाषा समिति में शामिल हमारे देश के
कर्णधारों ने एक और बंटाधार संविधान के अनुच्छेद 343 (3) में कर दिया और यह उल्लेखित और कलमबद्ध कर दिया गया कि उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात भी संसद विधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का प्रयोग ऐसे
प्रयोजनों के लिए कर सकेगी, जैसा की विधि में उल्लेखित
हो।
https://www.thehindu.com/news/national/Hindi-not-a-national-language-Court/article16839525.ece
किंतु प्रबुद्ध जनों का मानना है कि उनका यह दायित्व बनता है कि वे
अपनी संपर्क भाषा के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखें। हिंदी तो ठीक से राजभाषा भी नहीं
बन पायी है, अगर अपनी मातृभाषा के सम्मान में हम हिंदी को
राष्ट्रभाषा का संबोधन देते हैं तो क्या बुरा है ? व्यक्तिगत
तौर हिंदी भाषियों का मानना है कि हिंदी राष्ट्रभाषा है।“
शायद इसीलिए संविधान की भाषा समिति ने देश के राज काज की भाषा को राष्ट्रभाषा न कहकर राजभाषा कहा । इससे राष्ट्रभाषा शब्द का अस्तित्व करीबन खत्म ही हो गया।
लेकिन आज भी हिंदी के समर्थक हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते नहीं थकते। आज भी कई लोग राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के फर्क से वाकिफ नहीं है. इससे ऐसा लगने लगा है कि काँग्रेसी आज भी हिंदी को राष्ट्रभाषा ही समझते हैं, जिसके कारण हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने में कांग्रेस अधिवेशन की बू आती है और लोगों के विचार भटक जाते हैं।
अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि हिंदी के प्रणेताओं ने हिंदी के चाहने वालों को भी ऐसा खेल खिलाया कि उनका भी हिंदी के प्रति रुझान कम हो गया। ऐसे कार्यालय भी हैं जहाँ हिंदी अपनाने पर, उसका अंग्रेजी अनुवाद माँगा जाता है। लोगों को हिंदी में लिखने से मना करने या उसका अंग्रेजी अनुवाद माँगने की बजाय, कार्यालय अपने अनुवादकों की सहायता से अंग्रेजी में अनुवाद करवा कर आवश्यकता पूरी कर सकता है। इससे हिंदी लिखने वालों पर कोई रोकटोक नहीं रहेगी।
तथ्यों की मेरी जानकारी के तहत भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है भाषा निरपेक्ष नहीं। इसलिए यहाँ आप किसी को भी, कोई भी धर्म अपनाने से रोक नहीं सकते, लेकिन भाषा के मामले में ऐसा नहीं है और भारतीयों को हिंदी सीखने लिए कहा जा सकता है। मेरी समझ में नहीं आता कि राजनीतिक समीकरणों के लिए हमने हिंदी की ऐसी हालत क्यों बना दी?
आज भी निरक्षरों की बात तो छोड़िए , साक्षरों में भी उन्नत और उत्तमोत्तम शिक्षा हासिल किए लोग भी संशय में रहते हैं कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा में क्या अंतर है और राष्ट्रीय और विश्व हिन्दी दिवस क्या हैं?
10 जनवरी 1975 को नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हुआ। उसी की याद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने वर्ष 2006 में 10 जनवरी को पहला विश्व हिन्दी दिवस मनाया। तब से अब तक हर वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है।
इस तरह वर्ष 1953 से हर वर्ष राष्ट्रीय हिन्दी दिवस 14 सितंबर को मनाया जाता है और वर्ष 2006 से हर वर्ष विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी को मनाया जाता है।
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