मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 15 सितंबर 2018

श्राद्ध हिंदी का.




श्राद्ध हिंदी का.

फिर सितंबर आ गया और साथ आए कनागत या कहिए पितृपक्ष.  सितंबर में ही पितृमोक्ष अमावास्या होती है.  भारत के किसी राज्य में इसे पोला कहते हैं तो कहीं पोलाला अमावस्या कहते हैं. पर मान्यता सबकी एक है. लोग तिथि अनुसार अपने पूर्वजों – पितरों को श्राद्ध व तर्पण अर्पण करते हैं. ऐसा मानना है कि अमवास्या के दिन तिथि बिना देखे सब पूर्वजों को तर्पण अर्पण किया जा सकता है.

सितंबर के साथ ही आता है हिंदी दिवस – 14 सितंबर. उसके साथ ही जुड़े हैं - हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा और हिंदी मास. सबमें 14 सितंबर शामिल होता है. 

हर साल हिंदी के लिए भी पारंपरिक तौर पर  कार्यक्रम और क्रियाकलाप होने की वजह से यह मौका भी कुछ मिलता जुलता लगने लगने लगा है. ऐसा साफ दिखता है कि लोग मजबूरी मे हिंदी का दिन, सप्ताह पखवाड़ा या माह मनाते हैं.  श्रद्धा तो किसी को नहीं है. सरकारी आदेश न हो तो कोई इस तरफ झाँके भी ना.  

इसीलिए अनमना या निराश होकर ही सही इसे हिंदी का श्राद्ध कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है.  जिस तरह श्राद्ध पक्ष के बाद अगले बरस सितंबर तक  कोई पूर्वजों को याद नहीं करता, वैसे ही हिंदी को भी कोई याद नहीं करता.

हाँ, अवमानना की बात तो है, शर्मसार होने की भी बात है, दुखी होने की भी बात है और हमारे खुद की बेइज्जती की भी बात है... पर यही है सच्चाई.

हाल ही में मॉरीशस में विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ. कहा गया कि हिंदी प्रगति कर रही है. कहीं किसी कोने से ऐसा तो लगा ही नहीं.  मेरे एक जानकार को सम्मेलन में उपस्थिति का न्यौता मिला. वे असमंजस में पड़ गए कि जाऊँ या नहीं. मुख्य मुद्दा था कि इसमें हिंदी की कौन सी भलाई होती है. खैर विचार अलग अलग हो सकते हैं. पर एक हिंदी भाषी बुद्ध जीवी के मन में ऐसा खयाल आना ही द्योतक है कि कहीं तो आग धधक रही है, धुआँ नजर आ रहा है. पर इससे किसको फर्क पड़ना है. सबको फॉर्मालिटी निभाना है, खानापूर्ति करनी है.

विदेश मंत्रालय से एक वक्तव्य भी आया कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं.  खबरों पर जाएँ तो प्रयास तो कब से हो रहे हैं, किंतु नतीजे हैं कि आने का नाम ही नहीं लेते. ऐसे प्रयासों का भी क्या प्रयोजन ? सरकार को मिलाकर सब के सब खानापूर्ति में ही लगे हैं.  हिंदी बेचारी क्या करती ...जाए तो जाए कहाँ? 

हम भारतवासी या हिंदी भाषी सितंबर के श्राद्धकर्म के अलावा हिंदी के लिए कुछ भी नहीं करते. मुझे भी समाहित करके सारे हिंदी के लेखकों के लेखों का अवलोकन या कहें परीक्षण कीजिए. हर जगह मिलेगा कि हिंदी के उत्थान के लिए यह करना चाहिए. हिंदी को विश्व भाषा बनाने के लिए यह कदम उठाना चाहिए.  हिंदी को कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा बनाने की जरूरत है. यानी सब के सब आशा वादी हैं सब के पास सलाह देने की क्षमता है. सारे पढ़े लिखे अकलमंद हैं. पर जहाँ उन सुझावों को कार्यान्वित करने की बात आती है... सबकी अकल मंद हो जाती है. किसी के भी कदम आगे नहीं बढते. हिंदी के लिए इस तरह की सोच और विचारधारा हिंदी के लिए ही बाधक है.

हर विधा में हम भारतीयों की यही ताकत और यही कमजोरी है. सुझाव आज देश मुफ्त में, कभी कभी तो बिना माँगे भी मिल जाएंगे पर कार्यान्वयन की ओर झाँकना भी हम मुनासिब नहीं समझते.
तो होगा क्या ? खयाली पुलाव पकते रहते हैं. यथार्थता वहीं की वहीं रहती है.

इसलिए मेरे भी एक सुझाव... हम हिंदी का भला नहीं कर सकते , नहीं कर पा रहे तो भी कोई बात नहीं, लेकिन हिंदी दिवस या अन्य पाखंडी नामों से जो नौटंकी कर रहे हैं वह सब करके हिंदी की बेइज्जती तो ना करें.

हमें चाहिए कि हम यह हिंदी दिवस के पाखंड को भी समाप्त कर दें.
न हिंदी दिवस होगा, न ही हिंदी का श्राद्ध.
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