मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

नयासाल --- 2014

नया साल


आज फिर नया साल आया...2014.

फिर एक बार दुनिया पुरानी हो गई,

जिंदगी (एक वर्ष) फिर छोटी हो गई,

सब कुछ और हम सब,

कुछ और छोटे हो गए,




बीती बातों से सीखने की परंपरा,

अब शायद समाप्त ही हो गई है,

बीता सब कुछ रीता,

क्यों सोचें कल क्या पीता ?,

कैसे जीता ?



कल की भूलों को कल के लिए सुधारना,

जीवन को श्रेयस्कर बनाने के लिए,

शायद, सही मानसिकता मानवीयता है,


सफर में आज जिस गली से,

गुजर रहे हैं, उसमें

इंसाँ नहीं शैतान बसते हैं,


कभी मानव परंपरा थी,

भूखा रह जाऊँ भले,

साधु  न भूखा जाए,

शायद, उस युग में मानव संपन्न था

आनाज, धन-धान्य भरपूर था.

किसी को अपनी परवाह,

करने की भी जरूरत नहीं थी

गुण, मानव का धन प्रमुख था.



किंतु आज,

हालात बदल गए हैं,

बिगड़ गए हैं,

उन्नत देशों में भी,

उन्नति के बावजूद

धन धाऩ्य की संपन्नता

समुचित नहीं है,



शयद यही एक मात्र वजह है

आज के मानव के,

अमानवीय व्यवहार को,

यथोचित ठहराने का.



अन्जाने भविष्य के,

(भले ही अंधकारमय हो),

खुशहाली का ढोंग रचना,

आज की मानसिकता हो गई है,


सच्चाई कल्पना में समा नहीं सकती,

इससे डर कर जिया, तो क्या जिया,


लेकिन आशावादी मानव ने हमेशा,

नए साल की बंद मुट्ठी में लाखों सँजोए,

बीते वर्ष को विदा किया.

अगले वर्षांत इस वर्ष को भी ,

शायद इसी तरह से विदा देंगे,

(तब तक मुट्ठी खोले यह वर्ष    

क्याखाक साबित करेगा ???)


हेप्पी न्यू ईयर....

नव वर्ष मुबारक हो...



शुभकामनाएँ  .... 2014 की....



एम.आर.अयंगर.

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

बेईमानी.


बेईमानी - मौत की...

मौत,
मैंनें आह्वान किया था तेरा,
और तू आई,
पर यह क्या किया तूने,
मेरे पास नहीं आई,

तुम यमराज हो तो,

और मै  भी हूँ एम राज?

आजमाकर देख लिया ?
मैंने कहा था ना,
अतिथि और आगंतुक को,
यहाँ निराश नहीं किया जाता,
खाली हाथ लौटाया नहीं जाता,

अब तो तुम्हारे अनुभव ने ,
तुम्हें बता ही दिया...
अब तो तुमने जान ही लिया,
यह हमारी अनुवांशिक परंपरा है.

.....................................................
एम.रंगराज अयंगर. 







मंगलवार, 12 नवंबर 2013

मौत



मौत

आईए,
तह-ए-दिल से स्वागत है आपका,
घर आया मेहमान,
जो मेह-समान है,
कब बरसे पता नहीं इसलिए,
जब भी बरसे पानी समेटो,
आभार मानो.

वैसे भी जब,
यह संस्कृति जन्मी थी तब
मेहमान के घर से निकलने पर,
मंजिल तक पहुँचने का दिन,
तो अनिर्णीत ही होता था
कई दूर दराज के लोग तो,
पहुँच ही नहीं पाते थे.

इसी कारण तीर्थ यात्रा पूरी कर आने,
पर यात्रियों की पूजा की जाती थी.
और शायद,
इसीलिए भारतीय संस्कृति में मेहमान ,
भगवत्स्वरूप माना गया है.

एक दिन मौत को भी मेरे दर आना है,
आएगी ही,
इससे घबराना कैसा ?
अपने दर जब भी आएगी,
पूरे जोश से स्वागत तो करेंगे ही,

हँसकर भी मिलेंगे,
एक ही बार तो आनी है,
और घर आए मेहमान को,
खाली हाथ थोड़े ही लौटाएँगे
अयंगर.05.06.2013.



शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

राजनीति

 राजनीति

मेरे मोहल्ले की,
काली लंबी,
अल्हड़ लहराती छोरी को,
स्नो पाउडर नहीं मिलता,
न तेल मिलता है, न काजल,
न उसने हार पहना है न पायल,
ना जाने रोजाना कितने मार्शलों द्वारा,
रौंदी जाती है,

कभी कभी एकाध बस भी आ जाती है,
ट्रक, कभी कभार ही आते हैं,
पर जब भी आते हैं ,
स-भार ही आते हैं.

लेकिन अचानक आज....
ट्रकों के कतार लग गए हैं,
हाँ स-भार आए,
शायद साभार आए,

रेती, बजरी आई,
गिट्टी, मिट्टी आई,
डामर, तारकोल आया,
रोड-रोलर आया,
आए कई मजदूर,
कुछ इंजिनीयर,
कुछ ओवरसीयर,
शायद कुछ मेट भी आए हों.

मैने एक से पूछा...
भई बात क्या है?
यह सब क्यों आ रहा है?
और ये सब क्यों आ रहे हैं?

भाई साहब बोले......
भैया..........
अभी तो सामान व साहिबान ही आए हैं.
काम तो शुरु होने दो,
पीछे पीछे पार्टी के कार्यकर्ता भी आएंगे,

और जब काम पूरा होगा ,
तब शायद मंत्री जी भी आएँगे,
चुनाव की खबर भी लेकर आएँगे,
और ध्यान दीजिएगा ,
बाद में चुनाव भी आएंगे,

यही राजनीति है,
जब मंत्रीजी आएँगे,
आप सब को खुश पाएंगे,
तभी तो मंत्री जी आपके.
और आप मंत्री जी के,
गुण गा पाएंगे,
और गाएँगे,
तब ही तो,
हाँ तब ही तो ,
आपके वोट,
फिर मंत्रीजी को डाले जाएँगे,
और मंत्रीजी चुनाव जीत पाएंगे,

तब फिर एक अरसे तक,
आपके सहूलियतों को,
चबाएंगे- खाएंगे,
ताकि फिर चुनाव आने पर,
आपकी सेवा में हाजिर हो पाएंगे.
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एम.आर.अयंगर

शनिवार, 2 नवंबर 2013

अदृश्य का अस्तित्व



अदृश्य के अस्तित्व का सवाल

मुझे पूजा पाठ की आदत नहीं है, न ही मैं मंदिर जाने का आदी हूँ. यह कहना गलत नहीं होगा कि मैं पूजा के लिए मंदिर जाना पसंद नहीं करता. इसलिए नहीं कि मुझे उसमें आस्था नहीं है बल्कि इसलिए कि यह तरीका मुझे पसंद नहीं है. मूर्ति पूजा करने से शायद अच्छा है कि उसी रकम से या उसी समय में किसी गरीब की सेवा की जाए - ऐसी मेरी मान्यता है.

अब तक न जानें कितनी बार कितने लोगों ने जानना चाहा कि मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक ? समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दूँ  और यह भी जान नहीं पाया कि लोग मुझसे क्या जानना चाहते हैं ? कभी-कभी लोगों के तर्क सुनकर ऐसा लगा कि उन्हें सही मायने में आस्तिक और नास्तिक की सही परिभाषा ही पता नहीं है.

जहाँ तक मेरी समझ जाती है, आस्तिक वह है जिसकी ईश्वर, परमेश्वर, भगवान रब, खुदा, वाहेगुरु एवं समतुल्यों पर श्रद्धा है. जिसे यह श्रद्धा नहीं है वह नास्तिक है. नास्तिक भगवान के अस्तित्व को ही नकारता है. श्रद्धा का मतलब यह नहीं कि प्रतिदिन मंदिर में फेरे लगाता फिरे. श्रद्धा के कई तरीके होते है. सबके अपने अपने तरीके होंगे तरीकों का कोई महत्व नहीं श्रद्धा होनी चाहिए.

 अब बात आती है कि जिन सब के प्रति श्रद्धा की बात की जा रही हैं क्या हैं ? कोई रूप है, कोई ताकत है उसकी परिभाषा क्या है.

समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं.

घर में हम बच्चों को सिखाते हैं चोरी मत करना. किसी की चीज बिना बताए लेना पाप है. पहले पूछ लो फिर लो, चाहे थोड़ी देर के लिए ही क्यों न हो. ऐसा क्यों ? शायद इसलिए कि अंतरात्मा समझती है कि यह वस्तु किसी दूसरे के उपार्जन की है और उस पर उसी का अधिकार होना न्यायसंगत है. यदि उस वस्तु को आप अपना बना लो तो, मूल अधिकार वाले व्यक्ति को आपकी वजह से दुख होता है. वह आपको कोसेगा. शायद इसका कहीं न कहीं आभास है (या कहिए दिल में चोर छुपा है) कि उसके कोसने से हमें / आपको तकलीफ होगी, अन्यथा उसके कोसने से  हम (या बद्-दुआ से) क्यों डरें ?

जवाब अक्सर मिलता था पापा उसे पता ही नहीं है कि यह मेरे पास है / मैंने लिया है. हमारे पास जवाब तैयार है - ठीक है इस तरह उसे तो इसका पता नहीं चलेगा कि किसकी वजह से दुख हो रहा है, पर दुख तो होगा ही और वह दुखी करने वाले को तो कोसेगा.

अब सवाल यह कि बच्चे को कैसे समझाया जाए जवाब में एक नुस्खा अपनाया जाता है बेटा, उसने तो नहीं देखा पर वह ऊपर वाला है ना, वह सबको देखता है और सब कुछ देखता है. उसे पता है कि चीज तुमने उठाई है और इसीलिए उसकी बद्-दुआ तुमको ही लगेगी.

शायद इसी तरह उस अद्भुत शक्ति का अभ्युदय हुआ. धीरे धीरे इसके साथ अन्य बुराईयों एवं कुरीतियों को जोड़ दिया गया कि समाज में वे घर न कर सकें.

आदमी ने खुद अपने को और अपने सह-आदमियों को नियंत्रित रखने के लिए और बुरी आदतों से दूर रख सदाचारी बनाने की खातिर, इस भगवान रूपी ताकत को ईजाद कर लिया.  सबको डर पैदा हो गया कि ऐसे गलत काम करने से नरक मिलेगा और वहां यातनाएं मिलेंगी. अपना अगला जन्म खुशी से बिताने की लालच में वह इस जन्म में अच्छे कर्म करने की सोचता. अगला जन्म भी कोई चीज है, इसकी पक्की खबर तो आज भी किसी को नहीं है. इस पर भी कई तरह के वाद-विवाद संभव हैं.

अपनी जिम्मेदारियाँ एवं अधिकार उस को सौंपकर चैन की जिंदगी जीने के लिए ही शायद इंसान ने भगवान की कल्पना की. इससे सुख और दुख दोनों ही स्थितियाँ उसी की देन कह - समझकर, भाग्य में बदा कहकर अपना लिया जाता है. उस शक्ति के आगे समर्पण यह भाव उत्पन्न करता है कि जो हुआ वही होना था. लाख कोशिशों के बाद भी इसे बदलना संभव नहीं था. ऐसे समझने से दुख कम हो जाता है क्योंकि अपनी हार या ना-काबीलियत को आसानी से छुपाया जा सकता है. इस तरह आदमी अपनी जीत की खुशी और हार का गम उसके सुपुर्द कर देता है.

इसी तरह के नियंत्रण तंत्र को लोगों ने धर्म का नाम दे डाला. इससे कई लोग धर्म के रास्ते चलने लगे. रामराज्य में इनके बिना भी जिंदगी ऐशो-आराम से चल सकती थी, चली - क्योंकि उस समय समाज संपन्न था.  इसीलिए कुरीतियों मे फँसे लोग  शायद कम थे, जो थे आदतन थे. उनको भौतिक सजा मिल जाती थी.

विज्ञान ने इसे ललकारा और कहा कि - आदमी खुद अपना भाग्य विधाता है. कर्म करो और फल पाओ. भाग्य की स्लेट कोरी लेकर पैदा होता है और उसके कर्म की लेख उस पर खुद लिखता है. उसने एक हद तक गीता सार को भी ललकारा. गीता में कहा गया है कि कर्म करो, तो फल मिलेगा लेकिन इसकी अपेक्षा मत करना.

कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन,
माकर्मफलहेतुर्भू, मासंगोस्तु विकर्मणि.

गीता प्रेस गोरखपुर के पुस्तक श्रीकृष्ण विज्ञानगीता के हिंदी पद्यानुवाद में प्रकाशित इसका हिंदी रूपांतरण नीचे दिया गया है.

कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान,
जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान.

विद्युत विभाग में यूनिवर्सल अर्थ की फिलॉसफी है जिसके अनुरूप अर्थ (धरती) को यूनिवर्सल सोर्स और सिंक ( Universal Source and Sink) दोंनों रूप में जाना जाता है. इसकी तुलना सागर से की जा सकती है. पानी के लिए उसे यूनिवर्सल सोर्स और सिंक माना जा सकता है. वैसे ही थर्मल अभियांत्रिकी में ब्लॆक बॉड़ी (Black body) को विकिरण (रेडिएशन) के लिए ऐसा ही पदार्थ माना गया है. इसी तरह इंसान की जिंदगी में लक भाग्य तकदीर को यूनिवर्सल  सा करार दिया गया है, जिसका सीधा कंट्रोल उस अदृश्य-ताकत को दिया गया है. जब भी किसी सवाल का हल न मिले यानि कारण का पता न चले तो आप बे-झिझक कह दीजिए कि  यह तो केवल लक है. इस लक का ही दूसरा नाम तकदीर है जो वही ऊपरवाला  (भगवान) लिखता है

मानव के व्यवहार पर इसी तरह के कई नियंत्रणों का समावेश कर मानव धर्म का रूप दे दिया गया. और वे धीरे धीरे मानव चरित्र या मानव मूल्य कहलाने लगे. धर्म या मजहब इन्हीं नियंत्रण प्रणालियों के नाम हैं या यों कहिए कि सारे मजहब उस महाशक्ति के किसी न किसी रूप के इर्द गिर्द घूमते है. सारे मजहब उस महाशक्ति को किसी न किसी रूप में स्वीकारते हैं. कोई धर्म महाशक्ति के अस्तित्व को नहीं नकारता. पहले निराकार भगवान की प्रतिष्ठा की गई होगी और धर्म के पुजारियों ने आपस की होड़ में इसे अलग अलग रूप देने शुरु कर दिए होंगे. धर्म के पुजारियों के जीवन यापन के लिए भी भगवान पर मानव का विश्वास जरूरी था. धीरे धीरे अलगाव वादी ताकतों नें आस्थाओं में फर्क डालकर अलग अलग धर्म बना लिए. विभिन्न धर्म बनाए गए होंगे और अपना-अपना धंधा बढ़ाने के लिए उनने आपस में विभिन्न धर्मानुयायियों के बीच तकरार भी पैदा की होगी. अंतत: यह अंतर्धार्मिक प्रतियोगिता का कारण बना.

धीरे धीरे सम-सामयिक हालातों ने जाने अन्जाने मनुष्य को इनसे परे हटने के लिए मजबूर किया. जो मानव मूल्यों के ह्रास के शुरुआत के रूप में लिया जा सकता है.

जब मजबूरियाँ बढ़ने लगीं और मानव मूल्यों का पूर्ण पालन असंभव सा हो गया तो एक नई प्रणाली आई प्रबंधन (Management).  इस विधा में काम का तरीका कोई मायने नहीं रखता, केवल काम निकालना मायने रखता है और इसी की अहमियत है. इस नई प्रणाली ने मानव मूल्यों को ताक पर रखने का नया रास्ता सुझा दिया. जिसे जो भाया किया.

अब समय बदला है, सम्पन्नता खत्म ही हो गई है. लोग मजबूरी में, जीवन यापन के लिए कुरीतियों को बाध्य हो रहे है. अब बच्चा अपने दोस्त की पेन्सिल उठा लाता है. क्योंकि मैं उसे नई पेन्सिल देने के काबिल नहीं हूँ , इस लिए चुप रह जाता हूँ.

मैं उसे ऐसा करने को तो नहीं कहता, पर नहीं करने के लिए भी कह नहीं पाता, क्योंकि बिना पेन्सिल के बच्चा पढ़ नहीं पाएगा. परोक्ष ही सही (अनजाने नहीं जान-बूझकर), मैंने बच्चे के कुरीती को प्रोत्साहित किया है. कई अभिभावक ऐसे मिलेंगे जो मजबूरी में कार्यालय से लेखन सामग्री घर लाते हैं. अच्छे ओहदे वाले भी ऐसा करते मिलेंगे. इसलिए नहीं कि इन्हें खरीदने की काबीलियत उनमें नहीं है, बल्कि इसलिए कि इससे जो पैसे बचेंगे उसे कहीं और लगा कर जीवन का स्तर बढाया जा सकता है. कुछ लोग बिना वजह आदतन ऐसा करते हैं, उनके इरादे या नीयत, गलत नहीं होते, पर आदत होती है.

बच्चे कहते हैं मैने पूरी पढ़ाई की थी, पेपर भी अच्छे किए थे, पर फिर भी फेल हो गया. लक साथ नहीं दे रहा. क्या करें? हमारा तो बेड-लक खराब था. कोई सामंजस्य नजर नहीं आता. पेपर अच्छे किए थे तो फेल कैसे हो गए? बेड-लक तो खराब ही होता है, इसमें खास क्या है. मतलब यही हुआ कि जाँचकर्ता ने गड़बड़ किया है. क्या यह आरोप नहीं है? चलिए, फिर भी रि-टोटलिंग या रि-वेल्युएशन तो हो ही सकता है. करा लीजिए. शायद बच्चा सही कह रहा हो. यदि हाँ, तो पास हो जाएगा लेकिन उस पर भी कोई फर्क न पड़े तो ?

फिर कहेंगे यार अपना बेड लक खराब है. मतलब यह कि बेड-लक, तकदीर, भाग्य, चाँस यह सब उस मर्ज की दवा है जिसे इंसान या विज्ञान अपने बल पर खोज नहीं पाता. हर मर्ज की दवा- हर दर्द का दवा- बेड लक. ऐसा ही नहीं कि हमेशा बेड-लक ही होता है, कभी कभार गुडलक भी हो जाता है - पर इसकी संख्या काफी कम होती है.

मानव मूल्य या कहिए मानव धर्म और प्रबंधन आपस में टकराने लगे. समझौता होने लगा है. लेकिन हद किसी ने न जानी कि कहाँ तक समझौता करना उचित है. उधर समाज के हालातों से लोग मजबूर होने लगे. फलस्वरूप प्रबंधन मानव मूल्यों पर हावी होता गया. इन हालातों की वजह से भी प्रबंधन को बढ़ावा मिला.

जो इस तरह के परिवर्तन को मान्यता दे नहीं सके वे उसूलों के जाल में फंस कर प्रबंधन को गले नहीं लगा सके और अंतत: समाज के प्रासंगिक होड़ में वे पिछड़ते गए. आज प्रबंधन प्रणाली का पुरजोर है और वही सम-सामयिक भी है. इसी परिप्रेक्ष्य में जब समाज की मजबूरियाँ सिर चढ़ कर बोलने लगीं तो लोग प्रबंधन के तरीकों को अपनाकर, मानव मूल्यों से समझौता करते हुए, उस अदृश्य-शक्ति को धीरे धीरे भूलने लगे.

जब बात काफी बढ़ गई तो लोग अब तर्क करते हैं और तर्क देते हैं भगवान है या नहीं. अब जब उस भगवान के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए गए तो अब किसी के आस्तिक या नास्तिक होने की चर्चा का क्या अस्तित्व है?

इस सवाल के सही अर्थ तो मैं यह समझता हूँ कि लोग जानना चाहते हैं

क्या अब मानव मूल्य शेष रह गए है?”

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एम.आर.अयंगर.