भाषा
राजभाषा की,
(दिनाँक 09.09.2014 को हिंदी कुंज ई पत्रिका में प्रकाशित) )
हमारे देश में हिंदी बहुतायत
में और बहुत रूपों में बोली जाती है. देवनागरी के अलावा भी हिंदी के कई रूप देश
में उपलब्ध हैं. मैथिली, ब्रजभाषा, भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी जैसी कुछ और
ऐसी ही भाषाएं हैं जो हिंदी के बहुत करीब हैं. ये सब आपस में थोड़ी - बहुत भिन्नता
लिए हुए हैं. एक दूसरे को आपसी भाषा समझने में बहुत कम ( नहीं के समतुल्य) कठिनाई
होती है. लेकिन जब राजभाषा हिंदी की भाषा का विषय आता है तो प्रश्न उठ पड़ता है..
कौनसी हिंदी ? क्योंकि यहाँ मान्यता प्रदान करने की बात आ जाती है और
रिकार्ड़ों में अंकित हो जाना है. उदाहरण के लिए निम्न दो अंशों को पढ़िए...
यहाँ... श्री ए के दोहरेजी की निम्न पंक्तियाँ साभार प्रस्तुत हैं.
हाय ! हिंदी
एक हिंद वासी सज्जन की हिंदी देख,
मैं हो गया मोहित.
जब उन्होंने हवा में अपने हाथों को लहराया,
अपनी जोरदार आवाज में फरमाया.
Ladies and Gentlemen,
India हमारा country है.
हम सब इसके citizen हैं.
हिंदी बोलना हमारी Duty है.
पर बेचारी हिंदी की किस्मत ही फूटी है.
आजकल की New generation,
Whenever mouth खोलती है.
Only and Only अंग्रेजी में बोलती है.
हिंदी की सभ्यता को अंग्रेजियत पर तौलती है.
यह very Wrong है.
हिंदी हमारी मातृ भाषा है.
हमें अपनी Daily life में ,
हिंदी Language को अपनाना है,
World Wide फैलाना है,
Only and Only Then,
भारत माँ के सपने होंगे सच,
Thank you very Much.
------------------------------------------------------------------------
एक और रचना हिंदी बोलूं या नहीं भी साभार प्रस्तुत है
मुझे भी आज
हिंदी बोलने का शौक हुआ,
घर से निकला और
एक ऑटो वाले से पूछा,
श्रीमान "त्रि-चक्रीय चालक
जयपुर नगर के परिभ्रमण में
एक ऑटो वाले से पूछा,
श्रीमान "त्रि-चक्रीय चालक
जयपुर नगर के परिभ्रमण में
कितनी मुद्राएँ
व्यय होंगी ?
जवाब मिला (ऑटो वाले ने कहा),
"(अबे) हिंदी में बोल न"
मैंने कहा, "श्रीमान,
जवाब मिला (ऑटो वाले ने कहा),
"(अबे) हिंदी में बोल न"
मैंने कहा, "श्रीमान,
मै हिंदी में ही वार्तालाप कर रहा हूँ."
ऑटो वाले ने कहा,
ऑटो वाले ने कहा,
"(मोदी) जी
पागल करके ही मानेंगे।"
चलो बैठो, कहाँ चलोगे ?
मैंने कहा, "परिसदन चलो।"
ऑटो वाला फिर चकराया!
"(अबे) ये परिसदन क्या है?
मैंने कहा, "परिसदन चलो।"
ऑटो वाला फिर चकराया!
"(अबे) ये परिसदन क्या है?
बगल वाले श्रीमान ने कहा,
"अरे सर्किट हाउस जाएगा।"
ऑटो वाले ने सर खुजाया और
बोला, "बैठिये प्रभु"
रास्ते में मैंने पूछा,
"अरे सर्किट हाउस जाएगा।"
ऑटो वाले ने सर खुजाया और
बोला, "बैठिये प्रभु"
रास्ते में मैंने पूछा,
"इस नगर में
कितने छवि गृह हैं??"
ऑटो वाले ने कहा,
"छवि गृह मतलब ??"
मैंने कहा, "चलचित्र-मंदिर।"
उसने कहा,
कितने छवि गृह हैं??"
ऑटो वाले ने कहा,
"छवि गृह मतलब ??"
मैंने कहा, "चलचित्र-मंदिर।"
उसने कहा,
"यहाँ तो बहुत मंदिर हैं
राम मंदिर, हनुमान मंदिर,
जग्गनाथ मंदिर, शिव मंदिर।।"
मैंने कहा,
जग्गनाथ मंदिर, शिव मंदिर।।"
मैंने कहा,
"मै तो चलचित्र-मंदिर
की बात कर रहा हूँ,
जिसमें नायक तथा नायिका
प्रेमालाप करते हैं"
ऑटो वाला फिर चकराया,
"ये चलचित्र-मंदिर
क्या होता है??"
यही सोचते सोचते
उसने सामने वाली गाड़ी में
प्रेमालाप करते हैं"
ऑटो वाला फिर चकराया,
"ये चलचित्र-मंदिर
क्या होता है??"
यही सोचते सोचते
उसने सामने वाली गाड़ी में
टक्कर मार दी।
ऑटो का अगला चक्का
टेढ़ा हो गया।
मैंने कहा, "त्रि-चक्रीय चालक
ऑटो का अगला चक्का
टेढ़ा हो गया।
मैंने कहा, "त्रि-चक्रीय चालक
तुम्हारा,
अग्र-चक्र तो वक्र हो गया।"
ऑटो वाले ने
अग्र-चक्र तो वक्र हो गया।"
ऑटो वाले ने
मुझे घूर कर देखा और कहा,
"उतर जल्दी उतर!
जा चल भाग यहाँ से।"
तब से यही सोच रहा हूँ
"उतर जल्दी उतर!
जा चल भाग यहाँ से।"
तब से यही सोच रहा हूँ
अब और हिंदी बोलूं या नहीं
***********************
***********************
अब आप ही निर्णय लें और बताएं दोनों में से हमारी राजभाषा कौन सी है.
दोनों उद्धृत अंशों की भाषा काफी रोचक है. दोनों व्यंग्य के ही रूप हैं. दोनों
में सीमाएं लाँघी गई हैं. पहले उदाहरण में जताया गया है कि जहाँ हिंदी के साधारण
शब्दों से काम चल सकता है, वहाँ भी हम अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना पसंद करते
हैं. कुछ ऐसा ही उर्दू के साथ भी है कि हिंदी पर हावी हो जाती है. पर उर्दू का
उतना गम नहीं होता क्योंकि यह इस देश के नागरिकों की ही भाषा रही है. दूसरा यह
हिंदी को खूबसूरत बनाती है, मिठास देती है. इसलिए उर्दू के शब्दों का हिंदी में
प्रयोग अच्छा लगता है.
दूसरे अंश की भाषा क्लिष्ट
है. इसे ऑटो वाला समझ नहीं पा रहा है और सज्जन हैं कि इतनी शुद्ध हिंदी में बतिया
रहे हैं कि कोई रचनाकार भी एक बार को सोचेगा – कि “यह किस देश की भाषा है”. इस वाकये से याद आया कि
1960 व 1970 को दशकों को दौरान टाईम्स की पाक्षिक पत्रिकाएं सरिता, मुक्ता व
नीहारिका में कुछ ऐसे अंश दिए जाते थे और शीर्षक होता था...”यह किस देश की भाषा है”. उन्हीं पत्रिकाओं में एक ऐसा शीर्षक भी आता था जिसका नाम था – “हिंदी गँवारों , जाहिलों और... की भाषा है”. तभी तो हम माड़भूषि रंगराज अयंगर को मा. रं. अयंगर लिखने
के बदले एम. आर. अयंगर लिखना ज्यादा पसंद करते हैं. चार दशकों के बाद आज भी हमारी हालत-विचार वैसे ही हैं आज भी
हम संक्षेपण अंग्रेजी के अक्षरों में ही करते हैं.
दोनों अंश हमारी हिंदी के
प्रति प्रेम एवं रुझान पर तीखे कटाक्ष करती हैं. पर कहीं जूँ रेगते नहीं देखा. हम
जो पाश्चात्य की ओर सरपट भाग रहे थे.
इस पर कोई सोचे, विचारे और
बताए क्यों ? एक बात उभर कर आती है कि
हमें हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी से ज्यादा प्यार है. आखिर क्यों ? .. सवाल के अलग अलग जवाब होंगे, पर निष्कर्ष एक ही है हमें
अंग्रेजी से ज्यादा प्यार या मोह है.
अब श्री कैन्नी सोलंकी.द्वारा
इंटरनेट पर प्रस्तुत इन निम्न शुद्ध हिंदी शब्दों पर ध्यान दीजिए.
क्रिकेट गोल गुल्लम लकड़ बट्टम दे दनादन प्रतियोगिता.
क्रिकेट टेस्ट मैच पकड़ डंडू मार मंडू दे दनादन प्रतियोगिता.
टेबल टेन्निस अष्टकोनी काष्ठ फलक पर दे टकाटक
प्रतियोगिता.
लॉन टेन्निस हरित घास पर ले तड़ातड दे तड़ातड़
प्रतियोगिता.
इलेक्ट्रिक बल्ब विद्युत प्रकाशीय काँच गोलक.
नेक टाई कंठ लंगोट
मेच बॉक्स अग्नि उत्पादन पेटी.
ट्रेफिक लाईट्स आवक जावक सूचक झंडा.
चाय दुग्ध जल मिश्रित शर्करा युक्त पर्वतीय बूटी.
(पर्वत उत्पादित शक्कर एवं दुग्ध मिश्रित गरम पेय)
ट्रेन सहस्त्र चक्र लौह पथ गामिनी.
रेल्वे स्टेशन अग्नि रथ विराम श्थल (भक भक अड्डा)
रेल सिग्नल लौह पथ आवक जावक लाल र्कत पट्टिका.
बटन ( कपड़ों के) अस्त व्यस्त वस्त्र नियंत्रक.
मॉस्किटो गुंजनहारीमानव रक्त पिपासु जीव.
सिगरेट धूम्र शलाका ( धूम्रपान दंडिका)
ऑल रूट पास, यत्र तत्र सर्वत्र गमन आज्ञापत्र
--------------------------------------------------------------------
इतनी शुद्ध हिंदी का प्रयोग
करना पड़े तो मैं खुद भी हिंदी से परहेज कर लूँ.
कुछ तर्क करते नहीं थकते कि
अंग्रेजी के बिना उच्च शिक्षा संभव नहीं है. चलिए मान लिया. कुछ कहते हैं कि
पश्चिमी देशों में शिक्षा या नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है. चलिए यह
भी मान लिया. लेकिन यहाँ गम इस बात का है कि इन दोनों व अन्येतर कारणों में कहीं
इस बात का समावेश नहीं है कि हमें हिंदी नहीं सीखना चाहिए या हिंदी को नकार देना
चाहिए. जैसे घर में मातृभाषा का प्रयोग सुखद लगता है, वैसे ही देश में
राजभाषा का प्रयोग भी सुखद है. यह अपने देश के प्रति लगाव का संकेत देता है. विश्व
के अग्रगामी देशों में शायद ही कोई देश होगा जो अपनी भाषा का आदर न करता हो. वहाँ
के नेता दूसरी भाषा को जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करना उचित समझते हैं और हम
कि अपनी भाषा को तो जानना ही नहीं चाहते. है ना यह विडंबना. किसी भी अग्रणी देश
में आप लोगों को न तो अंग्रेजी बोलते पाएँगे न ही कोई और भाषा. केवल उनकी अपनी
भाषा में ही बात होगी, चर्चा होगी. ऐसा नहीं कि वे अंग्रेजी या अन्य भाषाओं से
वाकिफ नहीं हैं. अपनी भाषा के प्रति उनका लगाव व सम्मान उन्हें ऐसा करने से रोकता
है. हाँ हमें मानना पड़ेगा कि हमारे देश के नागरिकों में इसकी कमी है. हम अंग्रेजी
में बतियाना श्रेयस्कर समझते हैं. आप दुनियाँ की सारी भाषाएँ सीखो, अपना ज्ञान
बढ़ाओ. उन सब भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान को समेटो. बहुत ही आदरणीय है किंतु अपनी
भाषा को नकार कर ऐसा करना हेय है.
भाषा कोई भी हो, संप्रेषण तभी
पूर्ण माना जाता है जब बोलने वाले की पूरी बात सुनने वाला समझ लेता है. सुन लेना
संप्रेषण की संपूर्णता नहीं होती. मलयालम में बोले गए संवाद साधारणतः एक पंजाबी
पुरुष सुन तो सकता है पर समझ नहीं पाता. इन हालातों में आपसी संप्रेषण संभव नहीं
हो पाता इसलिए जरूरी है एक ऐसी भाषा की, जो दोनों को समझ में आए कम से कम, वक्ता
बोल सके व श्रोता समझ सके. अन्यथा एक दुभाषी की आवस्य़कता होगी जो वक्ता व श्रोता
दोनों की भाषाएं जानता हो और वक्ता के
वक्तव्य का तर्जुमा कर श्रोता को, समझने लायक उसकी भाषा में कह देता हो.
शायद इसी का ध्यान रखकर संविधान
की राजभाषा में बोलचाल की हिंदी के प्रयोग के लिए कहा गया है. बल्कि वहाँ हिंदी
नहीं हिंदुस्तानी पर जोर है. इसमें अन्येतर भाषाओं से शब्द समन्वय (अपनाने) की बात
भी कही गई है. किसी भी भारतीय भाषा या विदेशी भाषा से शब्द सम्मिलित करने में कोई
मनाही नहीं है. यहाँ तक कि जहाँ सही व प्रचलित हिंदी शब्द उपलब्ध न हो सके, वहाँ
यथा संभव किसी भी भाषा का जनसाधारण को समझ में आने वाले शब्द को हिंदी-देवनागरी
लिपि में लिखने को भी प्रोत्साहन है. नेकटाई (टाई) को यदि आप कंठलंगोट लिखना चाहें
तो शायद ही किसी की सहमति होगी. वहीं भकभक-अडडा को रेल्वे स्टेशन लिखें तो सभी खुश
होंगे. इनका ध्यान जरूरी है. भाषा तभी प्रभावशाली होगी जब जन सामान्य को इसे समझने
में आसानी होगी.
कुछेक विद्वानों ने कहा है कि
हिंदी-एतर-भाषा के शब्दों को स-स्वरूप न लेकर थोड़े परिवर्तन के साथ समाहित करना
चाहिए. किंतु इसमें अपनी खिचड़ी अलग पकाने के अलावा कोई सामंजस्य नजर नहीं आता.
अन्य भाषाओं के शब्द व उनके अर्थों को उसी रूप में स्वीकारने से आपका उस भाषा के
प्रति आदर दिखेगा व उस भाषा के लोगों का भी हिंदी के प्रति आकर्षण बढ़ेगा. साथ ही
साथ हिंदी भाषियों को भी इसके अर्थ जानने में बहुत ही सुविधा होगी.
हमारी एक और बहुत ही बड़ी समस्या
है कि कोई कदम उठाने के पहले ही हम सोच लेते हैं कि ऐसा होगा - तो क्या होगा ? वैसा होगा - तो क्या होगा ? यह नहीं सोच पाते कि जो होगा सो होगा. कठिनाईयाँ आएँ तो
सही, तभी तो आप हल ढूंढोगे, निकाल पाओगे किंतु कोशिश ही नहीं की तो कठिनाईयाँ नहीं
आएँगी और हम आगे भी नहीं बढ़ पाएँगे. कबीरदास जी ने कहा है...
जिन खोजा तिन पाईयाँ , गहरे
पानी पैठ,
हौ बौरा डूबन डरा , रहा
किनारे बैठ.
हमारी हालत भी ऐसी ही हो गई है.
हमें चाहिए कि हम अपनी हिंदी
भाषा में काम करें, बोलचाल जारी रखें. क्लिष्ट शब्दों से परहेज करें. सरल शब्दों
की भरसक प्रयोग करें ताकि आसानी से सबके समझ
आए. क्लिष्ट हिंदी उन साहित्यकारों के लिए छोड़ दें जो चाहते हैं कि उनकी
रचनाएं साहित्यिक विधा हेतु ही पढ़ी जाए. अच्छा होगा यदि साहित्यकार भी सरल हिंदी
में लिखें ताकि वह आम जनसाधारण के बीच आ सके. बोलचाल की भाषा व लिखित भाषा में कम
से कम अंतर हो तो भाषा को अपनाने में बहुत ही सुविधा होगी.
माड़भूषि रंगराज अयंगर.
मईमेल laxmirangam@gmail.com
मोवाईल – 8462021340.