मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

देश की भाषा.

देश की भाषा.
(11.10.14 को हिंदी कुंज में प्रकाशित)
http://www.hindikunj.com/2014/10/indian-official-language.html#.VDjYY7CUdA0

हमारे देश में जाने-अन्जाने हिंदी-भाषी भी हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने से नहीं थकते. शायद कईयों को तो पता ही नहीं है कि हिंदी आज तो क्या, कभी भी राष्ट्रभाषा थी ही नहीं. तथ्य तो यह है कि काँग्रेस से जुड़े कई राजनीतिज्ञों ने... यहाँ तक कि महात्मा गाँधी ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाना चाहा. काफी कोशिशें कीं, तैयारियाँ भी कीं. किंतु वे सफल नहीं हो सके. हालांकि इस प्रयास को बहुत ही गणमान्य व्यक्तियों और अ-हिंदीभाषी हस्तियों का  भी समर्थन था, पर (शायद) यह राजनीतिक कारणों से सफल होने से वंचित रह गई. ऐसा लगता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना एक काँग्रेसी मुद्दा बनकर रह गया. जबकि हिंदी भाषियों की अधिक प्रतिशत तो अन्य राजनीतिक पार्टियों में ही थी. ऐसा भी लगता है कि लोगों की हिंदी के प्रति नहीं बल्कि काँग्रेस के प्रति असहमति से हिंदी को असफल होना पड़ा. अब यह एक राजनीतिक विषय बन चुका है. गाँधी जी ने बीसवीं शताब्दि के दूसरे दशक में, कांग्रेस के एक अधिवेशन में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर दिया व अन्य सम्मेलनों में उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की रूपरेखा भी बना ली थी. पर हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी. गाँधी जी के बाद किसी ने उस तरह का न ही कदम उठाया न हीं किसी ने इस तरफ हिम्मत दिखाई.

संसद की राजभाषा समिति ने भी देश की भाषा को राष्ट्रभाषा न कहकर, राजभाषा शब्द से संबोधित किया ताकि राष्ट्रभाषा का विवाद फिर से खड़ा न हो जाए. उस पर कानून तो बन गया पर पूर्णसहमति अब तक तो बन नहीं पाई है. राजभाषा हिंदी के साथ अंग्रेजी भी खड़ी है. संविधान की धारा 351 में हिंदी की उन्नति के लिए प्रयास करने के जिम्मेदारी  व अधिकार का जिक्र है किंतु किसी भी सरकार ने इस पर कोई विशेष कार्रवाई नहीं की. सो हिंदी – राजभाषा सन् 1950 के स्तर पर ही हिल-डुल रही है.

देश की भाषा के लिए अलग अलग शब्दाँश व वाक्याँश प्रयोग में लाए गए – किंतु किसी का भी सही अर्थ स्पष्ट नहीं है.  राष्ट्रभाषा का तो जिक्र कर ही लिया. कई लोग आज भी राजभाषा के अर्थ में राष्ट्रभाषा का प्रयोग करते हैं.

राष्ट्रभाषा के कई अर्थ निकाले जा चुके हैं कुछ निम्नानुसार हैं.

  1. राष्ट्र की प्रतीक भाषा के रूप में – जैसे राष्ट्र पक्षी – मोर, राष्ट्रगान – जन गण मन, राष्ट्रगीत – वंदे मातरम, राष्ट्रीय पशु – सिंह, राष्ट्रीय पताका – तिरंगा, राष्ट्रीय खेल – हॉकी, उसी तरह राष्ट्रीय भाषा ( राष्ट्रभाषा) हिंदी.- पर यह गलत है. ऐसा कहीं भी निर्देशित नहीं है कि हिंदी को राष्ट्र की प्रतीक भाषा का स्थान दिया गया है. हाँ दोने की पुरजोर असफल कोशिश की गई है – इसमें कोई संदेह नहीं.
  2. राष्ट्र में बहुतायत में बोली जाने वाली भाषा – इस बारे में कई संगठनों ने कई तरह के आँकड़े प्रस्तुत किए हैं किंतु कौन सा अधिकारिक है यह अस्पष्ट है. इस की वजह से इसमें आपसी होड़ है. कोई कहता है कि 80 % से ऊपर भारतीय जनता हिंदी भाषी है तो कोई इसे 20 %  आँकता है. यह भी स्पष्ट नहीं है कि इन आँकड़ों में मेरे जैसा व्यक्ति जो एक से ज्यादा भाषाएं बोल सकता है किस वर्ग में लिया गया है... मातृभाषा के वर्ग में, हिंदी भाषी वर्ग में या फिर बोल सकने वाली सारी भाषाओं के वर्ग में. ऐसे में संभव है कि सभी भाषा-भाषियों का जोड़ भारतीय जनसंख्या के तीन गुणा हो जाए. आंकड़े स्पष्ट नहीं करते कि यह संख्या उनकी है जिनकी मातृभाषा हिंदी है या वे जिनकी मातृभाषा कोई भी हो वे हिंदी बोल सकते हैं. ऐसी और भी अस्पष्टताओं के कारण इन आँकड़ो को अधिकृत जानकर निर्णय लेना संभव नहीं हो पा रहा है.

  1. देश के कामकाज की भाषा – हाँ हिंदी आज देश के कामकाज की भाषा के रूप में अनुमोदित है किंतु इस स्तर पर इसे राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा कहा गया है. यहां राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग राजभाषा के रूप में किया जा रहा है.

  1. सारे राष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा – यानि हिंदी को एक ऐसी भाषा समझा जाता है जो राष्ट्र भर में बोली जाती है. अर्थात आप किसी भी राज्य में चले जाएं वहां के निवासी हिंदी बोलते- समझते पाए जाएंगे. यह कुछ लोगों के अनुभव व विचार हैं . सही मायने में ऐसा नहीं है. ऐसे इलाके भी हैं जहाँ लोग हिंदी से दूर-दूर तक परिचित नहीं हैं. गाँवों में आज भी राज्य की भाषा बोली व समझी जाती है. वहाँ न अंग्रेजी चल पाती है न ही हिंदी. हाँ यह सच है कि तमिलनाड़ु में हिंदी का विरोध है और कहीं नहीं. मैं यहाँ जम्मू- काश्मीर की चर्चा नहीं कर  रहा हूँ क्यंकि वहाँ तो हमारे कई कानून नहीं चलते. शायद यह भी राजनीतिक कारणों से ही है. जब सारे राष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा की बात करें तो हमें ज्यादातर क्षेत्रों में और सारे देश में के शब्दाँशों के फर्क को भलि-भाँति स्वीकारना होगा. इसलिए इस तरह का वक्तव्य ठीक नहीं कहा जा सकता कि  “हिदी सारे देश में बोली जाने वाली भाषा है.

एक वाद में अहमदाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि भारत में नेशनल-लेंग्वेज       (राष्ट्रभाषा) नाम से कोई भाषा अधिकृत नहीं है.

अब आईये राजभाषाओं पर – सरकारी तौर पर राजभाषा तो एक ही है – हिंदी. पर साथ ही सहायक है अंग्रेजी. किंतु राजभाषाओं का यहाँ कोई सही अर्थ नहीं निकलता. लोग राज्यों में बोली जाने वाली भाषाओं के समूह को राजभाषाएं कहें तो ठीक है. संविधान का अष्टम अनुच्छेद इन्हें राज्य की राजभाषाएं कहता है. कहीं कहीं राज्यभाषाएं शब्द का भी प्रयोग हुआ है. इसे कुछ हद तक सही कहा जा सकता है पर कोई प्रमाण नहीं है. सरकार के गृहमंत्री के एक संवाद में राष्ट्र-भाषाएं शब्द देखा गया है. इससे उनका आशय संविधान के अष्टम अनुच्छेद की भाषाओं से था. इसी तरह राष्ट्रीय भाषाएं, राज्यभाषाएं, स्टेट लेंग्वेजेस, नेशनल लेंग्वेजेस शब्दों का गलत प्रयोग, भारतीय संविधान के अष्टम अध्याय में सम्मिलित भाषाओं के बोधकारक के रूप में ही किया गया है. जबकि एसे कोई पारिभाषित शब्द नहीं हैं.

सारांशत- कहा जा सकता है कि हमारे देश में मूलतः राजभाषा और राज्य की राजभाषाएं है. राज्य की भाषाओं को ही समूह रूप में संविधान के अष्टम अनुच्छेद में रखा गया है जिनकी संख्या समय-समय पर अनुमोदनानुसार बढ़ रही हैं. अन्य सारे नाम इन दोनों के नाम के बदले में ही लिया जा रहा है. राष्ट्रभाषा नाम की कोई चीज मेरी जानकारी में नहीं है. यदि किसी के पास ऐसा कोई अभिलेख हो तो कृया बताएं कृतार्थ रहूँगा.

इतना ही नहीं कई तो यह भी कहते लिखते पाए गए हैं कि हिंदी हमारी मातृ भाषा है. यह उनके लिए व्यक्तिगत तौर पर सही हो सकता है लेकिन देश के संदर्भ में हिंदी मातृ भाषा तो है ही नहीं क्योंकि मा3तृभाषा हर व्यक्ति की अलग हो सकती है.

अब कुछ ऐसे मुद्दों पर विचार किया जाए जो भाषाई मुद्दों को हवा दे रहे हैं...

  1. भारत मे भाषाई राज्यों का गठन - इसकी वजह से क्षेत्रीय भाषाएं अपना गढ़ बना चुकी हैं और संगठित होकर पूरे राष्ट्र को एक भाषा में पिरोने के विरुद्ध संघर्ष में शामिल हो रहे हैं. हमने यह गलती तो कर दी किंतु इससे पार पाने में असमर्थ हैं. स्वाभाविक है कि भाषाई राज्यों में राज्य की राजभाषा (राज-काज की भाषा कही जा सकती है) सर्वोपरि होगी एवं वहां किसी को देश के लिए एक अन्य भाषा सीखने के लिए मजबूर करना शायद न्यायोचित ही न हो. जिसे राष्ट्र-स्तर पर कुछ करना ही न हो, वह राष्ट्र के स्तर की भाषा सीखे ही क्यों ? जिसे अंग्रेजी संबंधी कार्यों से कोई वास्ता ही न हो तो वह अंग्रेजी क्यों सीखे ? बात समझ में आती है. किसी गाँव के एक छोटे किसान या मजदूर का काम वहाँ की भाषा जान लेने मात्र से सम्पन्न हो जाता है तो वह किसलिए हिंदी या अंग्रेजी सीखे ?

  1. लेकिन अब भी बहुत से भारतीय अंग्रेजी सीखते हैं... कारण कि अंग्रेजी में बहुत सा ज्ञान साहित्य उपलब्ध है. प्रमाणित न ही सही पर अंग्रेजी विश्व भाषा के रूप में उभर रही है. इसीलिए वैश्विक संप्रदाय में शामिल होने व व्यापार करने के लिए लोग अंग्रेजी सीखने को मजबूर हैं. इसी के सहारे आज का हमारा आई टी नेटवर्क का भी काम हो रहा है. भारत में भी और बाहर भी उच्चतम शिक्षा के लिए अंग्रेजी का सहारा जरूरी हो गया है. दुनियाँ के ज्यादातर व हमारे देश के सारे कम्प्यूटरों में जानकारी अंग्रेजी में ही उपलब्ध है. देश-विदेश जाकर काम करने के लिए व देश-विदेशों के संपर्क में काम करने हेतु आज हमारे देश में अंग्रेजी की मजबूरी है, सो जिन्हें जरूरत है, वे सीखते हैं.

  1. इसी तरह जिन्हें देश के स्तर पर काम करने की जरूरत है जैसे सारे देश में सामान बेचने का व्यवसाय, राज्येतर कहीं और काम ढूँढने की मजबूरी हो तो वह हिंदी भी सीखता है. आज का मानव जरूरतों से मजबूर हेकर ही सीखता है. सो हिंदी के प्रचारकों को भी चाहिए कि हिंदी में इतना ज्ञान उपलब्ध कराएं कि लोगों को लगे कि अंग्रेजी से ज्यादा ज्ञान हिंदी में उपलब्ध है तो हमारे देश के तो क्या सारी दुनियाँ के लोग हिंदी सीखने को मजबूर होंगे. लेकिन इसके लिए हमें जी तोड़ मेहनत कर वह मुकाम हासिल करना होगा. कम्प्यूटरों को इस तरह विकसित किया जाए कि सारा जग अपने कम्प्यूटरों मे हिंदी की जरूरत महसूस करे. यह सब कहना तो बहुत ही आसान है पर करें कैसे. यह उन्हें सोचना है जो चाहते हैं कि कम से कम सारा भारत (विश्व न सही) हिंदीमय हो जाए. यह एक दौर है एक आँदोलन है जो समय के साथ – साथ  अपने आप को बदलता रहता है. इसका रुख हिंदी की तरफ करने के लिए हिंदी को उस हद तक समृद्ध करना होगा. केवल यह कह देने से कि हिंदी राजभाषा है इसलिए सीखना होगा या गाँधी जी ने कहा था, इसलिए सीखना होगा - तो आज के युग में किसी के कान में जूँ नहीं रेंगने वाली. समय का तकाजा कुछ और ही है.

  1. जहाँ तक तमिलनाड़ू का सवाल है वहां राजनीतिक कारणों से हिंदी पनप नहीं पाई है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि रजनीकांत और कमल हसन जैसे सिने कलाकारों के होते हुए भी वहाँ हिंदी फिल्मों का पागलपन है. हिंदी सिनेमा भी वहाँ हाउस-फुल चलते हैं. यदि हिंदी की जानकारी न हो तो हिंदी फिल्में इतनी चलती क्यों हैँ ? इससे जाहिर है कि वहाँ भी लोग हिंदी जानते हैं किंतु अन्य कारणों से हिंदी का साथ नहीं दे पाते. जो लोग संविधान के भाषायी समिति के रिपोर्ट से अवगत हैं वे जान गए होंगे कि तमिल भारत की राजभाषा बनते-बनते रह गई थी. इसीलिए तमिल का हिंदी से संघर्ष चलता रहता है. कुछ समय तक तो तमिलनाड़ू में हिंदी खबरें न तो रेड़ियो पर सुनी जा सकती थीं और न ही टी वी पर देखी जा सकती थीं.  अब मामला शांत होता नजर आ रहा था किंतु हाल ही के फरमान ने बुझते दिए में घी डाल दिया. वह चिंगारी फिर से भड़क उठी.

  1. भारत में बहुत सारी भाषाएं साहित्य-समृद्ध हैं. इसलिए हिंदी को उनसे आगे रखना उनके लिए तकलीफदायक है. और तो और आज गुजराती भी हिंदी से होड़ लेने की बात करती है. एक ऐसा वर्ग भी है जो इस तर्क का प्रचार कर रहा है कि गुजनागरी भाषा – जिसमें देवनागरी को गुजराती लिपि में लिखा जाए - बिना अनुनासिक, अनुस्वार व शिरोरेखा के – हिंदी की अपेक्षा सरल और संपन्न है. यह वर्ग गुजनागरी को देश की भाषा के रूप में देखना चाहता है. बाकी बंगाली, मराठी तमिल, तेलगू भाषा का साहित्य तो जगजाहिर है. मेरी सोच है कि इन सब तर्कों से ऊपर उठकर हिंदी को यदि पदासीन करना है या होना है तो हिंदी को इस तरह बनाया जाए कि जनता इसके उपयोग के लिए उसी तरह मजबूर हो जाए, जैसे आज अंग्रेजी के बारे में कहा जा सकता है. केवल कानूनों और व्यक्तित्वों (व्यक्तियों) की राय व अधिकार से भाषायी आंदोलन को समग्र व सार्थक नहीं बनाया जा सकता.
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इस तरह यह लेख देश की भाषा के बारे में प्रकाश डालता है. भाषाओं संबंधी विभिन्न शब्दाँशों व वाक्याँशों की व्याख्या करता है . उम्मीद है यह लेख पाठकों के लिए रुचिकर होगा. पाठकों की टिप्पणियों एवं सुझावों का बेसब्री से इंतजार होगा.
 अयंगर