मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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बुधवार, 4 मार्च 2015

द्वंद ... जारी है.

द्वंद ... जारी है.
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राजस्थान के चाँदा गाँव में स्नेहल एक घरेलू जाना पहचाना नाम था. गाँव के कान्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली स्नेहल पढ़ाई में अव्वल थी. मजाल कि उसके रहते कोई कक्षा में प्रथम आने की सोच भी लेता. इसके साथ वह थी भी बला की खूबसूरत. घर- बाहर सब उसे प्यार करते थे, पर अपनी - अपनी तरह से. लेकिन एक बात थी जो स्नेहल को सब से दूर रखती थी – उसका घमंड. उसकी खूबसूरती व अक्ल के चर्चे के कारण उसमें ऐसा स्वभाव उत्पन्न हो गया था.

जब कक्षाएं बढती गईं तो वहाँ नए - नए चेहरे आते जाते रहे. कुछेक बरस बाद, ऐसा ही एक चेहरा था - आदर्श. जो पास के गाँव के किसी स्कूल में पढ़ा करता था. पढ़ाई में वह भी बहुत अच्छा था. अब वह और स्नेहल एक ही स्कूल के छात्र हो गए थे. दोनों में अव्वल आने की होड़ लग गई. परीक्षा तक तो दोनों को इंतजार करना पड़ा. परीक्षाएं समाप्त क्या हुईं कि कक्षा में चर्चाएं होने लगीं कि इस बार प्रथम कौन आएगा.  आदर्श बोलता कम था इसलिए उसके दोस्त भी इस स्कूल में कम ही थे. इसलिए शोर तो स्नेहल का ही था.

इंतजार पूरा हुआ और परिणाम आए - आदर्श प्रथम. अब क्या था, घमंड ने सर उठा लिया. उधर आदर्श को यह अच्छा नहीं लगा. पढ़ाई में आगे – पाछे का नतीजा, अच्छा पढ़ने की होड़ से होना चाहिए, न कि घमंड या गुरूर से. वह मन-ही-मन स्नेहल से दूर होता गया. किंतु स्नेहल का घमंड था कि कमता ही नजर नहीं आता था. कक्षा की हर परीक्षा में स्नेहल को आदर्श से कम अंक मिलते और हर बार फिर उसका सोया घमंड जाग जाता.

एक अच्छी पढ़ने वाली खूबसूरत लड़की को घमंड में जलते देख आदर्श को दुख भी होता था. वह चाहता था कि स्नेहल किसी तरह अपना घमंड छोड़े, जिससे उसे भी कोई पसंद करने वाला मिल जाता. बाकी विधाओं में तो वह, अच्छी तो थी ही. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा था.

हाईस्कूल से इंटरमीडिएट के दौरान शीतल ने स्कूल में प्रवेश किया. पढ़ाई में वह भी अच्छी थी. खूबसूरती तो बला की नहीं, ठीक-ठीक ही थी. स्वभाव से शीतल बहुत ही मधुर थी. पढ़ाई के चलते अब स्नेहल, आदर्श और शीतल तीनों में होड़ थी. नतीजतन शीतल, स्नेहल से आगे तो आ गई, पर आदर्श को पार न पा सकी. दोनों में आए दिन होड़ रहती कि कौन बाजी मार लोगा. यही चलता रहा दोनों में होड़ होती गई और स्नेहल की ओर से लोगों  का ध्यान हटने लगा. बहुतों ने सोचा अच्छा हुआ कि स्नेहल का घमंड तोड़ने कोई तो आया, उधर हालातों ने स्नेहल के घमंड को भी चकनाचूर कर दिया.

एक दूसरे की बराबरी करने या यों कहें कि सार्थक प्रतिस्पर्धा के कारण दिनों-दिन शीतल और आदर्श में करीबी आती गई. दोनों की मंजिल पढ़ाई में अव्वल करने की ही थी. एक लक्ष्य की ओर बढते - बढ़ते न जाने कब वे आपसी मानसिकता को पसंद करने लगे. उनमें एक अपनापन पनपता गया, जिसकी दोनों में से किसी को खबर भी नही थी.

इसका पहला एहसास आदर्श को हुआ, लेकिन उसने इस बात को उजागर करना उचित नहीं समझा. हो सकता है कि पौरुष ही इसका मुख्य कारण था. वह बात को अपने तक ही रखा रहा. हाँ इसके विपरीत कोई हरकत करने की कोशिश नहीं करता था, क्योंकि यह अपनापन उसे मंजूर था. क्या पता शीतल भी मन ही मन उसकी ओर आकर्षित हो रही हो ? भले ही वह शीतल की सहेलियों से बहनों सा बर्ताव करता लेकिन वह गलती से भी शीतल के साथ ऐसा व्यवहार करने से बचता, जिससे उसे कोई गलतफहमी न हो जाए. पता नहीं यह उसकी बचकाना हरकत थी या फिर उसे आभास हो रहा था कि इनसे मुखातिब शीतल उसकी मानसिकता को ताड़ लेगी.

इंटर पूरा कर स्कूल से जाते - जाते आदर्श ने शीतल को इतना तो जता दिया कि मैं तुमसे, तुम्हारी सहेलियों के साथ सा बर्ताव नहीं कर सकता. उसकी सोच में इतना काफी था यह जताने कि लिए कि मैं तुमसे प्यार करता हूँवह इससे ज्यादा खुलकर बात कहना नहीं चाह रहा था. एक मोड़ पर शीतल ने संदेश जरूर भेजा था कि तुम्हारे कारण का तो पता नहीं पर मैं तुम्हें पसंद करती हूँ. इससे आदर्श समझने लगा कि शीतल को उसकी अनुभूति का पता चल गया है.

इंटर के बाद आदर्श ने कोटा मे किसी कोचिंग संस्था मे प्रवेश लिया ताकि वह अपनी आगे की पढाई जारी रख सके. भर्ती के दिन ही उसे दूसरी कतार में शीतल नजर आई. वह उससे छिपता - छिपाता रहा. किंतु ऐसा कभी संभव हुआ है कि दोनों एक ही संस्था में एक ही जगह पढ़ रहे हों और आपसी मुलाकात न हो. एक दिन ऐसा हो ही गया कि दोनों आमने सामने हो लिए. दोनों में कोई भी पहल करना नहीं चाहता था.

प्यार कितना भी पुराना हो जाए सावन में फिर फलने – फूलने लगता है. ऐसा ही हुआ. फिर शीतल - आदर्श की नजदीकियाँ बढ़ने लगी. जाहिर था कि प्यार की आग दोनों की तरफ लगी थी. पर बात केवल पहल की थी. अब जब पहल हो ही गई तो दिन दूनी रात चौगुनी फलने लगी. ना जानें इस जुगलबंदी में उनने कब जीने – मरने की कसमें भी खा लीं. प्यार अब परवान चढ रहा था. 

पूरी कोचिंग व बाद के दौरान अलग अलग कालेजों में होने के बाद भी वे एक दूसरे के शहर जाकर मिलते रहे. जिंदगी को बहुत करीब से एहसास किया एक दूसरे के मन को पूरी तरह भाँप लिया. एक बार शीतल ने ऐसा कुछ भी बताया था कि – उनके परिवार का एक नजदीकी लड़का, उससे नजदीकियाँ बढाने की कोशिशें कर रहा था लेकिन शीतल ने उसे घास नहीं डाला क्योंकि वह अपने जीवन में आदर्श के अलावा किसी को नहीं चाहती थी. और तो और उसने यह भी कहा था कि वह एक लड़का बिगड़ैल था. दोनों में आत्मीयता इस हद तक बढ गई कि उनके बीच कोई गोपनीयता बाकी नहीं रह गई थी.  हाँ नजदीकियाँ मन तक ही रही, तन पर काबू न कर सकीं. दोनों के अपने - अपने तर्क थे किंतु उनका एक ही मानना था कि मन के मिलन के बाद शादी और बाद में तन का मिलन. 

दोनों की अलग - अलग जगहों से पढ़ाई चल रही थी. अंतिम सेमेस्टर के दौरान - अब दौर आया - नौकरी या पोस्ट - ग्रेजुएशन की तैयारी का. आदर्श गेट की तैयारी करने लगा, जिससे दोनों की संभावनाएं साथ चलती रही. शीतल किसी भी तरह की आगे की तैयारियाँ नहीं कर रही थी.

इसी समय न जाने क्यों आदर्श को लगा कि और शायद शीतल का मन धीरे धीरे आदर्श से हट सा रहा है.. कारण का कुछ पता न चल सका. परीक्षाओं के बाद  और दीवाली की छुट्टियों में घर पर होने की वजह से आपसी संवाद में रुक सा गया था. शीतल की तरफ से फोन उठना बंद ही हो चुका था. और जो कारण सामने आ रहे थे वे विश्वसनीय भी नहीं लग रहे थे. आपस में कोई गंभीर संवाद नहीं हुआ.

ऐसा लगने लगा कि वह अपनी राह चल पड़ी है, लेकिन कारण विशेष को कहने से बचती रही. पता नही उस पर क्या गुजरी थी कि ऐसा हो गया. दिन- रात संग जीने मरने की कसमें खाने वाली अचानक बिना किसी आपसी वजह के या कोई अन्य वजह बताए इस तरह रूठ जाए समझ में नहीं आया. पर किसी ने कुछ खास नहीं कहा. हाँ, लेकिन तब तक फासले बढ़ रहे थे.
इस तरह के स्वभाव ने दोनों के बीच की खाईयों को गहरा कर दिया. अंततः एक दिन आदर्श के मन आया, कि मुझे भी कुछ और कोशिश कर आगे बढ़ना चाहिए. इसी इरादे से उसने शीतल को फिर फोन लगाया. फोन नहीं उठा. आदर्श ने फिर बार - बार कोशिश की किंतु कोई जवाब नहीं आया. अब शायद उसे लगा कि उसने अंततः शीतल को खो दिया है.

वह उधर से जवाब न आता देख वह निराश हो गया. उसकी जानकारी लेने के लिए अब वह हर संभव कोशिश करने लगा . इसी दौरान शीतल के दूर के रिश्तेदार से भी बात हुई और उससे कहलवाया कि शीतल से कहे कि कम से कम एक बार बात तो कर ले. इरादे जो भी हों सही.

एक दिन शीतल के फोन उठाते ही आदर्श बहुत ही खुश हुआ. लेकिन उसकी यह खुशी क्षणिक ही रह गई – जब शीतल ने उसे बताया कि अब वह उसे न फोन करे और न ही उससे संपर्क साधने की कोशिश करे. उसने यह भी कहा कि अब मैं तुमसे न मिल सकती हूँ न बात कर सकती हूँ, अब तुम मुझे फोन मत किया करो. क्योंकि अब हमारा कोई रिश्ता नहीं रहा – मैं तुमसे और बात तक करना नहीं चाहती और फोन रखा गया.. यह तो बम का धमाका था, आदर्श के लिए. जो उसकी जिंदगी और जिंदगी में सब कुछ था, वही तो लुट गया था. और आश्चर्य यह कि वही तो लूट गया था. उसके तो होश फाख्ता हो गए. समझ में नहीं आया कि आखिर यह क्या हो रहा है और क्या हो गया है.

यहाँ वहाँ से पता चला कि उसके साथ अब कोई और है. जो सुना उससे ऐसा लगा कि शायद कभी शीतल ने कहीं जिक्र भी किया था कि वह आदर्श से दूर होने वाली है लेकिन आदर्श से यह बात छुपाए रखी. कुछ आपसी मित्रों ने भी बात को सँभालने की कोशिश की लेकिन हाथ कुछ न आया .

बहुतेरी कोशिशों के बाद जब अगली बार फोन उठा तो उसने बताया कि उसकी जिंदगी में अब कोई और है इसलिए सारे पुराने किस्से दफन कर दिए जाएं. आदर्श ने जानना चाहा कि वह खुशकिस्मत शख्स है कौन- सुनने पर कि वह वही पुराना विगडैल लड़का है जो कभी नजदीकियाँ बढ़ाने की कोशिश करता था – आदर्श बिफर गया. उसने चीख कर कहा – उस के लिए – जिसे तुम दिन में पचास गालियाँ देती थी कि किसी काम का नहीं है...नालायक है – अब उसके लिए तुम मुझे नकार रही हो. उधर से आवाज आई देखो वह जैसा भी है – अब मेरी जिंदगी में है. मैं उसके बारे में तुमसे कुछ सुनना नहीं चाहती. बातों का लहजा कुछ ऐसा था कि जब मैं तुम्हारे पीछे भाग रही थी तो तुम थे कि मुझसे दूर भागते जा रहे थे. इतनी दूर कि मेरे पाँव व मन थक गए थे. जब मैं और भाग न सकी तो तुम्हें छोड़ दिया. एकाकी हो गई .. उस वक्त, इसने मेरा साथ दिया – हाथ थामा .. अब वह मेरा है और मैं उसकी. तुमने तो मुझे नकार ही दि.या था. अच्छा है हम- तुम अब अलग हो जाएं और अलग ही रहें. आदर्श को समझ ही नहीं आया कि शीतल किस समय की बात कर रही है लेकिन उसे यह अच्छी तकह समझ में आ गया कि उसने रास्ते और हमसफर बदल लिए हैं.

शीतल ने जाहिर कर ही दिया कि अब वह किसी और के साथ है और आदर्श उससे संपर्क करने की कोशिश न करे. ऐसा कहा जा सकता है कि शीतल ने अब आदर्श को दूध की मक्खी की तरह से निकाल फेंका.

इससे आदर्श की जिंदगी नरक हो गई. उसका जीना हराम हो गया. हालात बिगड़ने लगे ... डर था कहीं कोई गलत कदम न उठा ले. लेकिन समय, हर मर्ज की दवा, ने आदर्श को सँभाला. फिर भी वह शीतल को भुला तो नहीं पाया. अपने प्रति किए बर्ताव के लिए वह शीतल को सजा देने पर उतारू हो गया.

वह दिन आदर्श की जिंदगी का एक ऐसा दिन था जो हर दिन याद आता है. आज इतने बरसों बाद जब घर से शादी की बात चलती है, तो हर खाली वक्त शीतल की याद सताती है. एक तरफ पौरुष और एक तरफ चाह द्वंद चलता रहता है. शीतल ने तो अलग रास्ता अपना ही लिया था. कभी कभार तो दिल करता है कि शीतल को सबक सिखाया जाए ताकि वह भी उसकी तरह तड़पे – यह तो बदले की भावना थी. पर भूलना तो संभव हो ही नहीं रहा था.

समाज में आदर्श के चाहने वाले जितने भी लोग थे, सबने उसे समझाने की कोशिश की. किंतु उस पर सदमा इतना भारी था कि उससे शीतल भूली ही नहीं जाती थी. हमेशा उससे बदला लेने की भावना से वह पीड़ित होता रहा. सबने समझाया कि सच्चा प्यार पाने में नहीं, देने में है, यदि तुम शीतल से सच्चा प्यार करते हो, तो उसे खुश रहने की दुआएँ दो. लेकिन उस तड़पते दिल को यह रास नहीं आता था. कहते हैं कि प्यार अंधा होता है... अब लगता है कि आदर्श अब भी प्यार के उसी दायरे में समाया हुआ है.

कई बार वह औरों के कहने पर अपने आप को समझाने की कोशिश भी करता है फिर ऐसी हालातों में किकर्तव्य विमूढ़ आदर्श यही सोचता फिरता है कि इसका हल कहां से लाया जाए...

द्वंद जारी है.. देखें कब थमेंगा.

एम आर अयंगर.
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सोमवार, 2 मार्च 2015

हिंदी में परभाषा शब्दों का आत्मसात्

हिंदी में परभाषा शब्दों का आत्मसात्

भाषा के लिए प्रवाहमयी होना बहुत जरूरी है क्योंकि प्रवाहमय़ी होना ही भाषा के जीवंतता की निशानी है. यह प्रवाह उत्पन्न होता है उसके दैनं-दिन प्रयोग से. भाषा उस सरिता के समान है जिसमें नित नया जल आता है और पुराना जल भाषा के साहित्य - सागर में समा जाता है. इससे साहित्य भी समृद्ध होता है. यदि भाषा का प्रयोग रुकने लगे तो प्रवाह भी घट कर कमतर हो जाता है और फलस्वरूप भाषा की जीवंतता लुप्त होने लगती है और वह जड़ता को मुखरित होता जाता है.
भाषा की जीवंतता उसके प्रयोग करने वाले पर निर्भर करती है. यदि भाषा का प्रयोग स्थिर हो जाए तो भाषा भी स्थिर हो जाती है. नित नए प्रयोग कर आवश्यकता वश, मजबूरी वश और कभी आदतन नए शब्दों का प्रयोग करते हैं और जब उनका प्रचलन बढने लगता है, तो धीरे धीरे वे शब्द भाषा में समाने लगते हैं. यह किसी पुराने शब्द का कोई नया रूप हो सकता है, या किसी अन्य भाषा के शब्दों का हिंदीकृत रूप हो सकता है. वक्ता के अपने क्षेत्र का कोई प्रचलित श्बद भी हो सकता है या फिर किसी अन्य भाषा का कोई शब्द जो प्रचलन में है, वह भी हो सकता है. रेल्वे स्टेशन, बरसात, टाई कुछ ऐसे ही शब्द हैं. ये शब्द भले ही व्युत्पत्ति के तौर पर परभाषा शब्द हैं लेकिन प्रचलन व प्रयोग के कारण अब हिंदी में समा गए हैं. इनके पर्यायवाची शब्द बहुत से हिंदी भाषियों को पता भी न हो शायद.

भाषा – बोलने व लिखने वाली अलग ही होती है. लिखावटी भाषा ज्यादा सुशील होती है, जबकि बोली में कुछ खुलापन होता है. इसमें क्षेत्रीय लहजा व शब्द दोनों भरपूर समाए होते हैं. शायद इसलिए कि लिखी हुई भाषा का रिकॉर्ड रह जाता है.

कुछ शब्द ऐसे भी है जिनमें ज्य़ादा अर्थ समाया होता है – जैसे फेच (Fetch), जिसका अर्थ होता है - लेकर आना या जाकर ले आना. इसलिए अंग्रेजी के जानकार हिंदी में भी ऐसे शब्दों को जोड़कर अपनी बात कह लेते हैं. वे भाषा की मूलता पर ध्यान नहीं देते बल्कि अपनी बात, आसानी से कहना उनका ध्येय रह जाता है. ऐसे में भाषा नए शब्दों का प्रयोग करती नजर आती है. यदि ऐसे शब्द सुन - सुन कर अन्य भी प्रयोग करने लगे, तो प्रचलन वश वे भाषा का अंग बनते जाते हैं.

यदि इसी तरह विभिन्न भाषा के शब्द हिंदी में समाते रहेंगे तो, हिंदी समृद्ध होती जाएगी. लेकिन यहाँ अड़चनें अलग अलग तरह की हैं. भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाना कईयों को ना पसंद है. कुछ तो यह भी कहते हैं कि दूसरी भाषा के शब्दों को कुछ हेर - फेर करके अपनाना चाहिए ताकि उन्हे न लगे कि हिंदी, उनकी भाषा के शब्दों से धनी हो रही है. मुझे यह सोच द्वेशपूर्ण लगती है. कुछ का (मेरा भी) मानना है कि अन्य भाषाई शब्दों को वैसे ही अपनाने से उनके अर्थों में भिन्नता या संशय को स्थान नहीं मिलता और सुचारू रूप से वे भाषा में समा जाती हैं. इससे जहाँ अन्य भाषायी खुश होते हैं कि हिंदी ने हमारी भाषा के शब्दों को अपनाया, हिंदी भी समृद्ध होती रहती है. इससे परस्पर भाषायी मेल - जोल बढ़ता है. दोनों भाषा के लोग उस शब्द को एक ही अर्थ से जानते हैं.

विश्व की सबसे समृद्ध कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी में भी लेटिन, ग्रीक, फ्रेंच, जर्मन इत्यादि के अलावा हिंदी के शब्द भी समाए हैं. समय - समय पर अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में नए शब्दों के समाहिती की खबरें अखबारों में देखने को मिलते हैं. इसी तरह अन्य भाषाविदों को भी चाहिए कि वे अपनी भाषा की सम्पन्नता बनाए रखने के लिए दूसरी भाषाओं के शब्दों को समय समय पर हालातों के मद्दे नजर समाहित करते रहें. भाषा में नए शब्दों को आत्मसात् होने दें. इसमें किसी तरह का व्यवधान न बनें.. इससे भाषा का प्रवाह व उसकी जीवंतता बनी रहेगी. जब सबसे समृद्ध भाषा ही अन्य भाषा के शब्दों को अपना सकती है तो हम क्यों शरमाएं. इसमें किस प्रकार का नुकसान है – पूरा भला ही भला है. क्या ऐसा समझा जाए कि यह हिंदी भाषियों का गुरूर या घमंड है जो उन्हें अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाने से रोकता है.

कबीरदास ने कहा ही है –

लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरि,
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर धूरि.

इसलिए हमें विनम्र होकर परभाषा शब्दों को अपनाना चाहिए.

वैसे भी पहले से ही हिंदी में कई भाषा के शब्द तो समाए हुए हैं. – अंग्रेजी, पश्तो, लेटिन, ग्रीक, उर्दू, संस्कृत इत्यदि भाषाओं के शब्द तो हिंदी में नजर आते हैं. हिंदी की इस विधा पर तो कई पुस्तक लिखे जा चुके हैं. शब्दों की तो छोड़ें- पुस्तकों की सूची भी देना यहाँ संभव नहीं है.

कई बार तो भाषा के शब्द उसे बलने वालों के रहन सहन पर भी निर्भर कर जाती है. जैसे माँग – हिंदी मे इसे अंग्रजी के DEMAND से जोड़ा जाता है. इसके अलावा बालों को बाँटने वाली रेखा को भी हिंदी में माँग कहा जाता है. अंग्रेजों में ऐसी आदत नहीं है इसलिए उनकी भाषा में यह शब्द नहीं है. शायद अब अंग्रेजी मे हिंदी के माँग शब्द को अपना लिया है. ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलेंगे.

अब जब हम पाश्चात्य सभ्यता को धडल्ले से अपना रहे हैं तो अनकी भाषाओं के कई शब्द हिंदी में जुड़ जा रहे हैं. कम्प्यूटर, फेशन व सेक्स संबंधी न जाने कितने शब्द अपने आप हमारी भाषा में समाहित हो गए.

वसुधैव कुटुंबकम् का सिद्धाँत यदि सही मायनें में लागू किया गया तो आपस में हिल - मिल कर, मिल - जुल कर कुछ अर्से बाद विश्व में केवल एक ही भाषा रह जाएगी. सारी भाषाएं दूसरी भाषाओं की ओर खिंचती हुई एकीकार होने लगेंगी. अंत में उत्पन्न भाषा न हीं हिंदी होगी और न ही अंग्रेजी या जर्मन.. यह एक नई भाषा होगी - जो सबको समाते हुए भी सबसे अलग होगी.

पर वह दिन अभी दूर है तब तक हम कछुए की,चाल से ही सही भाषा - एतर शब्दों को समाहित व आत्मसात् करते हुए, अपनी भाषा को समृद्ध  व प्रवाहमय़ी बनाए ऱखें एवं उसकी सार्थकता और जीवंतता में वृद्धि करते रहे तो हम सबके लिए बेहतर होगा.

आज हम पड़ोसी राज्य की भाषा को तो रोक नहीं पाते, उसी प्रकार कुछ समय प्रयोग के बाद पड़ोसी देश की भाषा के शब्दों को भी रोक नहीं पाएंगे. इसलिए अच्छा ही होगा कि हम मजबूरी वश नहीं, बल्कि सहर्ष इन्हें स्वीकार करें.

इससे पड़ोसी भी खुश होगा, भाषा भी खुश होगी, भाषा बोलने वाले भी खुश रहेंगे – सबसे बेहतर - भाषा, देश और विश्व हित की ओर - यह एक छोटा सा कदम होगा..

भाषा की समृद्धि बढेगी सो अलग.
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एम आर अयंगर.
ईमेल laxmirangam@gmail.com
सी 728, कावेरी विहार,
एन टी पी सी टाऊनशिप,
जमनी पाली, कोरबा.
छत्तीसगढ़ 495450
मों. 8462021340