मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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सोमवार, 11 अप्रैल 2011

सरताज


सरताज

क्या काटते हो अंग अपना ?
सीखो दर्द का एहसास करना,
वरना अनभिज्ञ ही रह जाओगे,
फिर उन शिथिल अंगों को परखना।

कर भला किस पर रहे हो ? या
कर रहे एहसान किस पर ?
हाँ, सुनी शेखी तुम्हारी,
हाँकते हो जग में तिस पर।

दर्द अपने का तुम्हें एहसास है क्या ?
फिर क्यों लगोगे तुम समझने दर्द जग का ?
क्या पड़ी है !!
आप डूबे जाए और जग हँसेगा,
हँस सकोगे? जब डूबता सा जग दिखेगा ?
क्या नहीं डुबोगे जग संग ?
फिर रास्ता है कौन बाकी ?
दर्द की चीखें उठेंगी और
होगा मौन बाकी.

फिर रहे हो आज सर पर ताज लेकर ,
है खबर इसकी यह कल भी रहेगा ?
अंग से ही बेखबर तुम क्या करोगे ?
और ताज...मौका मिला कि ये खिसका।

कुछ करो गर ताज रखना चाहते हो,
गर ताज के हकदार खुद को मानते हो,
आप सँभलो फिर सँभालो तुम किसी को,
होगा नहीं सर तो ताज को क्या भागते हो ?
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