मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 4 जून 2022

पुस्तक समीक्षा श्रीमती रेणु बाला की पुस्तक "समय साक्षी रहना तुम" ।

 

पुस्तक समीक्षा

                                                                                                 समीक्षक : माडभूषि रंगराज अयंगर

                               दिनाँक – 04 जून 2022

पुस्तक का नाम         - समय साक्षी रहना तुम

रचनाकार                 - सुश्री रेणु बाला

विधा                        - कविता

प्रकाशक             - सरोज प्रकाशन, सोनीपत, 2021

पृष्ठ                           - 124

मूल्य                  - भारत में 150 रुपए ,                                             विदेशों में $ 7 रखा गया है।

बाइंडिंग                    - सख्त जिल्द (जैकेट रहित)

 

समय साक्षी रहना तुम श्रीमती रेणु बाला जी की पहली प्रकाशित कविता संग्रह है। इसमें कुल पाँच भागों में 65 कविताओं को संकलित किया गया है।

भाग 1 – वंदना  में सरस्वती वंदना से शुरू होकर आदरणीयों का वंदन प्रस्तुत है।

भाग 2 – रिश्तों का बंधन में विभिन्न आत्मीय रिश्तों के बारे में कविताएँ प्रस्तुत हैं।

भाग 3 – कुदरत के पैगाम में प्रकृति परिचय संबंधी कविताएँ प्रस्तुत है।

भाग 4 – भाव प्रवाह की कविताओं में मन से मन की प्रीत का भावोद्वेग प्रस्तुत है।

भाग 5 – समसामयिक और अन्य में विविध आयामों की कविताएँ संकलित की गई हैं।

 रचनाकार ने अपनी पहली कविता संग्रह को अपने सास – ससुर और माताजी को समर्पित किया है। मुखावरण  श्री राकेश कुमार, गुरुग्राम द्वारा चित्रांकित है। भूमिका वरिष्ठ साहित्याकार श्री विश्व मोहन जी द्वारा लिखी गई है। प्राक्कथन प्रकाशक सुश्री सरोज दहिया द्वारा प्रस्तुत है। रचनाकार रेणु बाला जी ने अपनी बात रखी है जिसमें मुख्यतः आभार व्यक्त किया गया है। सम्माननीय ब्लॉगर व साहित्यकार सर्व श्री /सुश्री कृष्णराघव जी, शशि गुप्ता जी, मीना शर्मा जी, श्वेता सिंह जी और श्रीमती कामिनी सिंहा जी ने पुस्तक के प्रति अपने उद्गार प्रस्तुत किए हैं।

 

भाग 1- पाँच कविताओं वाला यह प्रथम भाग पुस्तक की पहली कविता सरस्वती वंदना से शुरू होता है। कवयित्री कहती हैं -

हाथ उठा ना माँगा तुमसे, बैठ कभी ना ध्याया माँ ।

तुमने वंचित रखा न किंचित, करुणा ममता रस पाया माँ।

 

वह प्रार्थना करती हैं कि अहंकार दर्प से दूर रहकर निश्छल सद्भावों की संवाहक बन सके -

भावों में रहे सदा शुचिता, अहंकार तू हरना माँ। 

 

कविता गुरु वंदना में रेणु जी लिखती हैं -

सहजों ने नित गुरु गुण गाया, मीरा ने गोविंद को पाया,

रत्नाकर बनगए वाल्मीकि, ये गुरुकृपा कमाल गुरुवर !

 

कवयित्रि मेरे गाँव में अपने गाँव के लिए लिखती हैं –

तुमसे अलग कहाँ कोई परिचय मेरा,

.....

वंदन मेरा तेरे खुले आसमान को।

 

उन्होंने हिमालय वंदनमें हिमालय को तरह-तरह की उपमाएँ दी हैं। कहा है 

जीवन का विद्यालय हो तुम.....साहस का गंतव्य हो तुम....

राष्ट्र का अभिमान हो तुम........शत्रु का महाकाल हो तुम...

लौटा माटी का लाल में रेणुजी ने मातृभूमि को समर्पित शहीदों को श्रद्धांजली दी है। वे कहती हैं –

चुकाने दूध का कर्ज, पिता का मान बढ़ाने को !

लौटा माटी का लाल, मिट्टी में मिल जाने को !!

तन सजा तिरंगा।

 

दूसरा भाग - यह भाग 12 कविताओं का संग्रह है।

माँ का ममता को बेटी के जन्म के पर अनुभव करने का विस्तार देती हुई कविता माँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा ममतामयी है । कवयित्री कहती हैं –

तुम जो रोज कहा करती थी, धरती और माँ एक हैं दोनों,

अपने लिए नहीं जीती, अन्नपूर्णा और नेक हैं दोनों।

 

स्मृति शेष पिताजी में पिताजी की याद में कहती हैं –

माँ के सोलह सिंगार थे वो, माँ का पूरा संसार थे वो,

वो राजा थे, माँ रानी थी , छिन गया अब वो ताज नहीं है।

नवजात शिशु के लिए में वे लिखती हैं –

आशीष वसन में तुम्हें लपेटूँ, रखूँ दूर बलाओं से,

गर्म हवा भी छू ना पाए, आ ढक लूँ तुम्हें दुआओं से !!

इनके अलावा इस खंड में कवयित्री ने बेटी का लाड़, साजन के घर सजधज कर दुल्हन का आना, नन्हे बालक की अठखेलियाँ, बच्चों के शहर जाकर पढ़ने पर उनकी याद और उस पर उदासी, बाबा का आशीर्वाद और भाई का प्यार विषयों पर कविताएँ रची और संकलित की हैं।

इस खंड की रचना घर से भागी बेटी के नाम कुछ अलग-थलग पड़ी सी लगी। इसमें उन हालातों में पिता की उदासी का बयान है।

भाग 3 - यह पूरा 10 कविताओं की भाग  पर्यावरण और प्रकृति को समर्पित है। बादल , तितली, गिलहरी, पेड़-चिड़िया, बारिश शरद पूर्णिमा के शशि, फागुन का चाँद, मरुधरा,गाय बचड़ा इस कंड के प्रमुख विषय हैं।

ये श्वेत आवारा बादल में रचनाकार कहती हैं –

किसकी छवि पर मुग्ध मयूरा, सुध-बुध खो नर्तन करता ?कोकिल सु-स्वर दिग्दिगंत में, आनंद कैसे भर पाता ?

सुनो गिलहरी में वे कहती हैं –

पेड़ की फुनगी के मचान से, क्या खूब झाँकती है शान से,देह इकहरी काँपती ना हाँफती,निर्भय होकर घूमती स्वाभिमान से !

                        …..

फुदकती मस्ती में हो बड़ी सयानी,

बन बैठी हो पूरी बगिया की महारानी।

 

भाग 4 -  यह भाग पुस्तक का सबसे बड़ा भाग है जिसमें पुस्तक की 65 से 28 कविता समाई हुई हैं। इस भाग में कवयित्री ने मन से मन के प्रसंगो को संकलित किया है। आत्मीय और रूहानी रिश्तों की बातें इस भाग में भरपूर हैं।कविता तुम्हें समर्पित सब गीत मेरे  में वे कहती हैं -

मीत कहूँ , मितवा कहूँ, क्या कहूँ तुम्हें मनमीत मेरे,

नाम तुम्हारे ये शब्द मेरे, तुम्हें समर्पित सब गीत मेरे।


कविता फागुन में उस साल’ –

अचानक एक दिन खिलखिलाकर हँस पड़ी थी 

चमेली की कलियाँ,

और आवारा काले बादल लग गए थे- 

झूम-झूम कर बरसने,

देखा तो द्वार पर तुम खड़े थे, मुस्कुराते हुए।

 

तुम्हारी चाहत

अनंत है तुम्हारा आकाश, मेरी कल्पना से कहीं विस्तृत,

जिसमें उड़ रहे हे तुम और मैं भी स्वच्छंद हूँ,

सर्वत्र उड़ने के लिए !!

 

आई तुम्हारी याद

दूभर तो बहुत थी, ये उदासियाँ मगर,

आई तुम्हारी याद तो हम मुस्कुरा दिए

 

चाँदनगर-सा गाँव तुम्हारा

एकांत भिगोते नयन-निर्झर, सुनो! मनमीत तुम्हारे हैं,

मेरे पास कहाँ कुछ था, सब गीत तुम्हारे हैं।

....

....

तुम वाणी रूप और शब्द रूप, स्नेही मन – सखा मेरे,

बाँधे रखते स्नेह-डोर में तुम्हारे सम्मोहन के घेरे।

 

तुम्हारे दूर जाने से

अनुबंध नहीं की तुमसे, जीवन भर साथ निभाने का,

फिर भी भीतर भय व्याप्त है, तुम्हें पाकर खो जाने का,

समझ न पाया दीवाना मन , अपरिचित कोई क्यों खास हुआ ?

पथिक मैंने क्यों बटोरे ?’ -

कब माँगा था तुम्हें किसी दुआ और प्रार्थना में  ?

तुम कब थे समाहित, मेरी मौन आराधना में ?

आ गए अपने से बन क्यों बंद हृदय के द्वारे !!

 

जीवन में तुम्हारा होना  -

खुद को भूले बैठे थे, जीवन की तप्त दुपहरी थी,

जो साथ तुम्हें लेकर आई, वो भोर सुनहरी थी,

तुम आये खुशियाँ संग लाये, हर दर्द भुला दिया !!

 

सुन , ओ वेदना

जो हैं शब्दों से परे , एहसास जीने दो मुझे,

बन गया अभिमान मेरा, विश्वास जीने दो मुझे,

 

लिख दो, कुछ शब्द

जब तुम न पास होंगे, इनसे ही बातें करूँगी ,

इन्हीं में मिलूंगी तुमसे , जी भर मुलाकातें करूँगी,

शब्दों संग भीतर बस, मेरे साथी रूहाने रहो तुम !

 

उस फागुन की होली में

प्राणों में मकरंद घोल गया, बिन कहे ही सब कुछ बोल गया  !इस धूल को बना गया चंदन, सुवासित, निर्मल और पावन।

भाग 5 - इस भाग में पाँच कविताएँ हैं। इसमें - औरंगाबाद के दिवंगत श्रमवीरों के नाम, गाँव का बरगद,अवसाद ग्रस्त युवा केलिए, जोगी-जोगन और बुद्ध की यशोदरा – विषयों पर कविताएँ हैं ।

 

बुद्ध की यशोधरा

बुद्ध को संपूर्ण करने वाली, एक नारी बस तुम थी,

थे श्रेष्ठ बुद्ध भले जग में, बुद्ध पर भारी तुम थी।

 सुनो चाँद

बहुत भरमाया सदियों तुमने,गढ़ी झूठी कहानी थी।

थी वह तस्वीर एक धुंधली , नहीं सूत कातती नानी थी।युग-युग से बच्चों के मामा,  क्या कभी आए लाड़ जताने ? चाँद !

पुस्तक की अंतिम कविता समय साक्षी रहना तुम ही पुस्तक का शीर्षक बनी है। इस कविता में कवयित्री ने अपने जीवन-प्रवाह के क्षण प्रति क्षण में समय को साक्षी बनाया है।

कवयित्री की शब्द संपदा साहित्यिक व बेहतरीन है। कविताओं का शिल्प भी मूल्यवान है। यदा-कदा  प्रवाह और गेयता की कमी नजर आती है। तुकाँत और अतुकाँत दोनों तरह की कविताओं का समावेश इस पुस्तक में मिलता है। विषयों का चयन विविधता पूर्ण है। कवयित्री ने सभी विषयों से पूरा न्याय किया है। कवयित्री ब्लॉग जगत की जानी पहचानी व्यक्तित्व हैं। अर्थपूर्ण टिप्पणियाँ देने में इनका कोई सानी नहीं है।

 

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