मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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रविवार, 10 मार्च 2024

सफेद सदाबहार

 

 

सफेद सदाबहार


इस बार जब मैं प्रवास पर गया तब छत्तीसगढ़ के एक गाँव कोरबी में मेरे एक दोस्त के घर मुझे सफेद फूल वाला सदाबहार का पौधा दिखा।

मैं बहुत समय से सफेद सदाबहार के पौधे की तलाश में था। मेरे पास जामुनी सदाबहार फूल का पौधा बहुत समय से है।

ऐसा सुना है कि इन पौधों की पांच पत्तियाँ या फूल चबाकर रोज सुबह खाली पेट खाने से डायबिटीज की बीमारी समूल नष्ट हो जाती है और मरीज को उस बीमारी से सर्वदा के लिए मुक्ति मिल जाती है। मैं भी डायाबेटिक हूँ, पर यह बात और है कि मैंने एक दिन भी इसे नहीं खाया। मैंने एक दो बार सफेद फूल के सदाबहार का पौधा लगाया पर बचा नहीं पाया। 



सफेद सदाबहार के पौधे को देखते ही मुझे लगा कि इसे ले जा सकूँ तो अच्छा रहेगा। मैंने नजर दौड़ाया कि उस बगीचे में ऐसा दूसरा पौधा है या नहीं। दूर एक कोने में इससे बड़ा एक पौधा नजर आया।

मैंने अपने दोस्त से उसे ले जाने की इच्छा जाहिर की। उसने कहा ले जाइए , ऐसे और भी पौधे हैं।

गाँव से लौटते समय पहला फरवरी को मैंने दोस्त से कहकर उस पौधे को मिट्टी सहित निकलवा कर एक पोलीथीन की थैली में नमी सहित ले लिया।

वहाँ से मैं सड़क मार्ग पर बिलासपुर आया और दो दिन रुका। इस बीच पौधे को बाहर हवा में रखा और नमी पर ध्यान देता रहा। साथ की मिट्टी पीली मिट्टी थी, इसलिए नमी कम पड़ते ही पौधे की जड़ से अलग हो जाती थी।

दो दिन बाद मैं वहां से ट्रेन की ए सी बोगी में नागपुर आ गया। पौधे की मिट्टी को नमी देने का पूरा-पूरा ख्याल रखा गया। पर पौधा कमजोर होता दिखा।

नागपुर पहुँचते ही मैंने पौधे को पोलीथीन से निकाल कर मिट्टी सहित वहाँ के एक गमले में रख दिया, रोपा नहीं। वहाँ मैं करीब आठ दिन रुका। हर दिन पौधे को पानी देता रहा, पर पौधे में जान आती नहीं दिखी, कम ही हो रही थी। अब मुझे डर सा लगने लगा कि क्या पौधा मेरे बगीचे तक सही सलामत जा पाएगा या बीच में ही दम तोड़ देगा?

डरते-डरते, पर पूरा ख्याल रखते हुए मैं फिर ट्रेन की ए सी बोगी में पौधे को हैदराबाद ले आया। अब तक पौधे की जान सूखती सी लगी। अब लगने लगा कि पौधे को बचाना मुझसे नहीं हो पाएगा। फिर भी मैंने बिना समय गँवाए पहुँचते ही पौधे को पोलीथीन से निकालकर, खाद डालकर तैयार रखे एक नए गमले में उसकी अपनी मिट्टी के साथ लगा दिया। अब उसको पानी देना एक नित्य कर्तव्य बन गया। हर दिन सुबह शाम देखा करता कि उसमें जान लौट रही है या नहीं। किंतु उम्मीदों पर पानी फिरता नजर आने लगा। मैं हिम्मत रखकर उसे बराबर पानी देता रहा और रोज देखता रहा। मेरी नजर कहने लगी कि अब पौधे में कमजोरी आनी कम हो गई है। फिर लगा कमजोरी रुक गई है। अब करीब 20 दिन बाद लगने लगा है कि पौधे में जान आ रही है। पता नहीं पौधे को सामान्य होने में और कितना समय लगेगा। आज 10 मार्च  को करीब  40 दिन बाद पौधे में पूरी जान आई और पहला फूल खिला। हालांकि पूल छोटा है पर है तन्दुरुस्त। 

इस पूरी दास्तान को अनुभव से मेरे मन में बात आई कि एक पौधा अपनी जमीन से अलग होकर पूरी शिद्दत से ख्याल करने पर भी सँभलने में इतना समय ले सकता है और इतनी तकलीफ झेलता है तो हाड़ माँस की बनी ईश्वर द्वारा दिलो दिमाग सहित बनाई बहू को बिदाई के बाद ससुराल मैं खुद को सँभालकर सामान्य होने में क्या क्या और कितना झेलना पड़ता होगा।

ससुराल में आने पर उनका विशेष ख्याल भी तो नहीं हो पाता।।


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बुधवार, 6 मार्च 2024

मैं और कैरम

 

मैं और कैरम

कैरम का रिश्ता मुझसे कब से है यह शायद मुझे भी नहीं पता। जब से मुझे खुद की खबर है, तब से कैरम मेरे साथ है। मुझे 1958-59 के वो दिन भी याद हैं जब हम दोस्त नैसर्गिक परिधान में ही कैरम खेलते थे। घर में कैरम पहले से था। कहाँ से आया इसका सही पता नहीं है। ऐसे सुना था कि वाल्तेयर रेल्वे स्टेशन पर दिन भर के इंतजार के बाद शाम को रेलगड़ी पर चढ़ने तक जब इसका कोई हकदार नहीं आया, तो हम इसे अपने साथ ले आए थे। किंतु भैया बताते हैं कि जब वे नानी के घर रहकर पढ़ते थे, तब पिताजी ने उन्हें यह बोर्ड खरीदकर दिया था। वह एक साधारण बोर्ड था बच्चों के लिए और वह बोर्ड उनके साथ ही हमारे घर बिलासपुर लाया गया था। उसी पर खेलकर मैंने कैरम सीखा। मेरे कैरम की इस यात्रा में लंबे समय तक मेरे बड़े भाई का बहुत अधिक साथ रहा। मेरे उस्तादों में सबसे पहले मेरे पिताजी का नाम आता है।

1966-67 के दैरान कोलकाता के गार्डेनरीछ के रेल्वे अस्पताल में फेफड़ों की तकलीफ के लिए भर्ती होना पड़ा था। उस दौरान मैं वहाँ सबसे छोटी उम्र का मरीज था । सबसे बहुत प्यार मिलता था। दिन भर यहाँ-वहाँ फुदकता रहता था। एक दिन वहाँ कहीं से कैरम आ गया। मैंने भी खेलने की इच्छा जताई। एक काकू (बंगाल में बड़े पुरुषों को काकू या दादू कहकर ही संबोधित किया जाता है) सहमत हुए किंतु बोले - मैं शर्त लगाकर ही खेलता हूँ। 

तब तक शर्तिया खेलों का मुझे ज्ञान नहीं था। उन्होंने मुझे समझाया। मेरे पास उस वक्त केवल 15 पैसे थे। वहाँ मुझे कुछ खरीदना नहीं होता था। अस्पताल से मरीजों को बाहर जाने की इजाजत भी नहीं थी। मेरी जरूरतों के लिए पिताजी ने एक अंकल को कह रखा था, जो प्रतिदिन सुबह शाम आकर मिलते थे और जरूरत का सामान दे जाते थे। इसलिए मुझे 15 पैसों की शर्त लगाने में कोई परेशानी नहीं हुई।

उन्होंने मंजूर किया कि मैं जीतूंगा तो वे चवननी दे देंगे, पर हारने पर मुझे मेरे पंद्रह पैसे उनको दे देने होंगे। उन्होंने मुझे बहुत डराया कि तुम  निल (शून्य) पर ही हार जाओगे, तुम बच्चे हो। पर मेरा आत्मविश्वास मुझे साथ दे रहा था कि मैं हारने वाला नहीं हूँ। खेल शुरु हुआ। अन्य सारे मरीज हम दोनों को घेरकर खड़े थे। खेल चला और अंततः मैं जीत गया। काकू भी मेरा खेल देखकर बहुत खुश हुए और शर्त के चार आने भी दिए । यह कैरम में मेरी पहली कमाई वाली जीत थी। उसके बाद अस्पताल के कई कर्मचारी और मरीज मेरे साथ कैरम खेलने वहाँ आने लगे।  मैं दो बार तीन-तीन महीने के लिए वहाँ भर्ती रहा। खेलते-खेलते मेरे खेल में भी निखार आता गया। अस्पताल से छुट्टी मिलते समय मेरा खेल बहुत ही सधा और सुधरा था।

196869 तक तो घर के उसी बोर्ड पर शान से खेले और तरह-तरह के शाट मारते थे। गर्मी के दिनों में दोपहर बिताने का वही एक सहारा था, हम बच्चों का। 1969 से जब रेल्वे स्कूल में दाखिला लिया , तब से रेल्वे इंस्टिट्यूट में जाकर खेलना शुरु किया।

वहाँ प्रैक्टिस बोर्ड होते थे। जो आज के मैच बोर्ड से बड़े होते थे। आउटर पाकेट ही होते थे पर आज के दो रुपए के सिक्के के आकार के। कैरम मेन (गोटियाँ) आज के एक रुपए के सिक्के से बराबर होते थे। इसलिए बल का नियंत्रित प्रयोग जरूरी था।स्ट्राइकर का साइज निर्धारित नहीं था। वैसे भी उस पाकेट में कोई स्ट्राइकर गिर ही नहीं सकता था। इससे मेरे स्ट्राइक की गति व निशाने में अत्यधिक नियंत्रण संभव हुआ।

वहाँ तरह-तरह के खिलाड़ी मिले और देख-खेल कर मैंने अपने खेल को और भी धार दिया। करीब-करीब रोजाना ही घंटा-दो-घंटा कैरम पर गुजरता था। धीरे-धीरे बड़ी कक्षा में आने पर रात भोजन के बाद मुहल्ले में ही चौपाल जमाकर कैरम खेलने लगे। गर्मी की रातों में बिस्तर भी बाहर लगाते थे और रात 1-2 बजे तक खेल चलता रहता था।

गर्मियों के दिन, जब भी मुहल्ले का कोई परिवार शहर से बाहर छुट्टी बिताने जाता था तब वे रखवाली के लिए हमें घर सौंप जाते थे।  बाहर के कमरे में हमारी चौपाल जमती थी। देर रात तक खेलकर वहीं सो जाया करते थे। यह तो एक जरिया ही बन गया था गर्मियों में कैरम को जगह-जगह ले जाकर खेलने का। 

शौक इतना बढ़ गया कि हर हारने वाली टीम से दो रुपए लगवाकर रात के किसी पहर में रेलवे स्टेशन (उस समय पास कहीं और चाय मिलती नहीं थी) से चाय-नाश्ता भी मंगवाया जाता था। किसी-किसी दिन आपस में पैसे जोड़ भी लेते थे। यदि किसी को नौ गोटियों से हार मिली हो तो उसे उसके अलग पैसे लगाने होते थे। हालांकि खेल में पैसे लगते थे किंतु कोई जीतता नहीं था। चाय नाश्ता में सभी शामिल होते थे। 

कुछ खिलाड़ी तो चाय पीकर ही सोने चले जाते थे और बाकी खेलते रहते थे। इस चौपाल के खेल में नए – नए शाट खेलने की आदत पड़ी। इसने खेल में एक नया मोड़ ला दिया। बोर्ड पर कहीं की भी गोटी मारने की महारत हासिल करने की तरफ बढ़ने लगे थे। इसी दौरान श्री चौधरी भास्कर कैरम में मेरे स्थायी साथी बने। दोनों की जोड़ी इतनी जमी कि मुहल्ले की कोई भी जोड़ी हमारा सामना करने से डरती थी। 1975 में इंजिनीयरिंग में भर्ती होने तक यह चौपाल चला। इसके बाद कैरम का सिलसिला रुक गया।

उन्हीं दिनों की बात है – एक दिन मेरे दोस्त के साथ उनके जीजाजी के घर गए थे। वहाँ कोई महोदय पहले से ही बैठे थे। दुआ सलाम होने के बाद चाय पीकर जब फुरसत मिली तो जीजाजी ने पूछा – राजू , इनके साथ कैरम खेलेगा, ये बहुत अच्छा खेलते हैं। जीजाजी को पता था कि मैं भी अच्छा कैरम खेलता हूँ। जब मैंने हामी भरी तो जीजाजी ने बताया कि ये बहुत अच्छा खेलते हैं, इसलिए सोच लेना कि हारने पर रोना धोना नहीं है। पता नहीं क्यों पर मेरा मन मानने को तैयार नहीं था कि मैं हार जाउंगा। हिम्मत पूरा साथ दे रही थी। खेल हुआ और मैं जीत गया। तब मुझे बताया गया कि हारने वाले जनाब मध्यप्रदेश के राज्यस्तर के खिलाड़ी हैं। न उस वक्त मुझे पता था कि कैरम में राज्य स्तर की प्रतियोगिताएँ भी होती हैं, न ही किसी ने इस बारे में सुझाया।

जब इंजिनीयरिंग कालेज में दाखिला हुआ तो वहाँ कुछ समय बाद ही स्पोर्ट्स मीट हुआ। मैंने भी कैरम प्रतियोगिता में भाग लिया । फाइनल तक तो पहुँच गया लेकिन फाइनल में 28-28 के स्कोर पर (तब गेम 29 पाइंट का होता था और लाल के पाँच अंक हुआ करते थे) मेरी बारी में मैंने अपनी गोटी डाल दी। मैं चहक रहा था कि मैं जीत गया, किंतु दर्शकों ने व निर्णायक ने कहा कि नहीं आपने पहले प्रतिद्वंदी के गोटी को टच किया है तो आप का ये फाउल हो गया। मेंने कहा भी कि ऐसा कोई नियम तो मैच शुरु होने के पहले बताया नहीं गया था, पर किसी के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। उन दिनों ए आई सी एफ नहीं था इसलिए कैरम में आयोजक अपने हिसाब से नियम बना लिया करते थे। प्रतिद्वंदी की गोटी को पहले या अकेले मारना नहीं है, बिगाड़ना नहीं है। थंबिंग की स्वीकृति नहीं है, इत्यादि। इससे मुझे निराशा हो गई और मैं फाइनल हार गया। इसके बाद इंजिनीयरिंग कालेज के दौरान मैंने वहाँ कभी भी कैरम नहीं खेला। 

1980 में बल्लारपुर पेपर मिल में मिली पहली नौकरी से वहाँ के क्लब में फिर से कैरम शुरु हुआ। यहाँ मुझे स्थाई साथी श्री संजय अदलाखे जी मिले। हम दोनों की जोड़ी ने वहाँ खूब धूम मचाया। स्टाफ और ऑफिसर्स दोनों क्लबों में खिलाड़ी हमारी जोड़ी संग खेलने से कतराने लगे थे। बल्लारपुर की नौकरी में तो कैरम भरपूर खेला। वहाँ का क्लब शाम 7 बजे से रात 12 बजे तक खुलता था। इस दौरान हम (मैं और मेरा साथी संजय) कैरम पर ही होते थे। हमने ऐसी महारत हासिल कर ली थी कि मैं बोर्ड शुरु करूँ तो वह पूरा करता था या वह शुरु करे तो मैं पूरा करता था। चौथे खिलाड़ी को खेलने का मौका ही नहीं मिलता था। शनिवार को क्लब शाम 7 बजे से रविवार रात 12 बजे तक खुला रहता था । साथ ही हम दोनों  भी पूरे वक्त क्लब में ही रहते थे। एक समय ऐसा भी आया कि खाली बोर्ड पर कहीं भी रखी गोटी को पाकेट करना बाएँ हाथ का काम था। स्टाफ व ऑफिसर्स क्लब में कोई भी जोड़ी हमारे साथ खेलने के लिए चार बार सोचती थी। 

1982 में मैं पेपर मिल की नौकरी छोड़कर इंडियन ऑयल में आ गया। यहाँ साक्षात्कार में ही पूछा गया - क्या आप कैरम खेलते हो ? क्या आप मेरे संग कैरम खेलना पसंद करोगे ? मैंने अपने आवेदन में ही कैरम के प्रति रुझान के बारे में बताया था।  मैंने तुरंत हामी भरकर कैरम का इंतजाम करने को कह दिया। मैंने तो इंटरव्यू बोर्ड के मुखिया को ही ललकारा था कैरम के लिए। खैर कैरम तो नहीं आया, पर मेरा चुनाव हो गया। 

वहाँ पालियों में ड्यूटी होती थी। तब खासकर शाम के समय 7 बजे से रात 11-12 बजे तक कैरम खेलते थे। रात की पारी में यदि काम का बोझ कम हो तो यथासंभव कैरम खेलते थे। इससे कैरम के शॉट्स पर पकड़ बढ़ने लगी। अंबाला में पहली नियुक्ति पर मुझे मेरे कैरम साथी सर्व श्री आलोक अग्रवाल, किशन गुलियानी, अमरीक सिंह मिले।

एक बार ऐसे ही जोश में शर्त लग गई कि इस आखरी गोटी को कैसे मारोगे?  मैंने अपनी तरकीब बताई। लोगों को लगा कि यह असंभव है। एक ने तो दाँव लगाने की भी कहा। मैं भी जोश में आ गया और शर्त मंजूर कर ली। अब सब शांत – इंतजार कि शाट का क्या होगा, कौन जीतेगा ? मैंने बहुत सावधानी से शाट मारा और तय तरह से गोटी पाकेट हो गई। शर्त के अनुसार उन दिनों (शायद 1984-85) में मैंने केरला-कर्नाटक सुपरफास्ट एक्सप्रेस के ए. सी. द्वितीय श्रेणी में अंबाला कैंट से बेंगलोर सिटी का आने – जाने का किराया जीता था, जो शायद रु.1300 के आस पास था। इसमें अंबाला कैंट से नई दिल्ली जाने का किराया भी जुड़ा हुआ था। यह उस समय मेरे एक महीने की तनख्वाह से भी ज्यादा थी। 

नौकरी के दौरान जब दिल्ली में जब नियुक्ति मिली तो देखा वरिष्ठ लोग कैरम खेल रहे हैं। मैं खड़ा - खड़ा उन्हें खेलते देखता-घूरता रहा लेकिन उन्होंने मुझसे कभी भी मेरे खड़े रहने का कारण भी नहीं पूछा। जब इस सम्भाग से कैरम खिलाड़ी कार्पोरेट टीम में चयन में जाने की बात मालूम हुई तो मैंने भी सेलेक्शन में जाने का निर्णय लिया, पर सेलेक्शन का पता ही नहीं चला। जब खिलाड़ी खेलकर आ गए तो मैंने प्रबंधन से सवाल जवाब किए और अगली बार ऑल इंडिया इंडिया कैरम फेडेरेशन के अधिकारियों को बुलवाकर आँतरिक प्रतियोगिता करवाया और उसे जीतकर मैंने 1993 में अपने संभाग का प्रतिनिधित्व किया। 

पहले लीग राउंड था फिर नॉक आउट। लीग राउंड के पहले मैच के पहले बोर्ड में मेरे 7 फाउल हुए क्योंकि मुझे फेडरेशन के नियमों की जानकारी नहीं थी। फिर भी मैं बोर्ड 10 पाइंट से जीता। नॉक आउट के पहले राउंड में इंडिया नंबर दो से भिड़ना हुआ और मैं हारकर बाहर हो गया। यही हाल 1994 में भी हुआ। 1993 में कैरम प्रतियोगिता के टूर से मिले भत्ते से मैंने रूलबुक और कैरम का हाथीदाँत का स्ट्राइकर खरीदा। आज वह स्ट्राइकर कानूनन निषिद्ध किया गया है। 

दिल्ली में नियुक्ति के दौरान वहाँ की कालोनी के क्लब में भी मैं कैरम खेलता था। प्रतियोगिताओं में भी शामिल होता था। पहले साल तो टूर्नामेंट खेलकर फाइनल जीता। दूसरे साल फाइनल के पहले कोई भी खिलाड़ी मुझसे खेलने नहीं आया। सबने वाक ओवर दे दिया। तीसरे साल तो गजब ही हो गया। पूरे टूर्नामेंट में शुरू से फाइनल तक भी कोई मुझसे खेलने बोर्ड पर नहीं आया । अधिकारियों ने मुझे विजयी घोषित कर सर्टिफिकेट भी देना चाहा  किंतु बिना बोर्ड पर एक भी गेम खेले जीतना मुझे नहीं भाया और मैंने सर्टिफिकेट लेने से इंकार कर दिया। 

जयपुर में तबादले पर मुझे कालेनी में तीन कमरों वाला घर मिला था। उसका हाल तो कैरम क्लब ही बन गया था । दिन रात वहाँ कोई न कोई कैरम खेलते हुए मिल जाता था। सामने ही मेस था तो खिलाड़ियों  को  घर के हॉल में ही चाय मिल जाया करती थी। उनमें सर्व श्री - पी के कश्यप , डी एन त्रिपाठी , आशीष गोखले, संजीव गुप्ता और आर एन धोलकिया  प्रमुख रहे। 

उन दिनों रात-बे-रात स्टेशन और बस स्टैंड जाकर कॉफी – चाय पीना, आइसक्रीम खाकर-लेकर आना तो एक दैनिक आदत सी बन गई थी। कुछ एक बार तो ऐसा भी हुआ कि कैरम से उठकर बाहर बरामदे में खड़ा था तो देखा एक भाभी जी डोलू हाथ में लिए लौट रही हैं। मैंने जिज्ञासा वश पूछ लिया - भाभी जी इतनी रात में कहाँ से? (मेरे अंदाज में डेढ़ - दो बज रहे थे।) जवाब मिला रात! भाई साहब सुबह के साढ़े चार बज रहे हैं - दूध लेकर आ रही हूँ। तब ध्यान आया कि खेल में संलिप्त होकर समय का ध्यान ही उतर गया और सुबह 4 बजे तक खेलते ही रह गए। 

गुजरात के द्वारका जी के पास प्रतिनियुक्ति पर वहाँ मुझे एक बना बनाया क्लब मिला। सहकारिता पूर्ण समाज मिला। वहाँ मैं कर्मचारियों और बच्चों में कैरम के प्रति शौक जगाने में सफल रहा और इससे हम सब के खेल में उन्नति हुई । कुछ लोगों ने तो वहाँ कैरम सीखा भी। साल भर किसी न किसी रूप में कैरम की प्रतियोगिताएँ होती रहती थीं और सभी उसमें भाग लेने के इच्छुक रहते थे। कुछ पुराने नामचीन खिलाड़ी भी वापस खेल की सुध लेने लगे। इससे मुझे बहुत उत्साह मिला। 

कुछ समय बाद वहाँ कांडला पोर्ट ट्रस्ट के खिलाड़ी भी आने लगे। हमने उनका स्वागत किया जिससे मेरे व अन्य कैरम खिलाड़ियों को विविधता मिली। जिस से हम सब के खेल में उन्नति हुई। 

नौकरी के अंतिम पड़ाव में छत्तीसगढ़ के कोरबा में नियुक्ति हुई। मेरे लिए कोरबा जाना- पहचाना शहर था। 1974 में जब मैं बिलासपुर (छ.ग.) में पढ़ रहा था, तब मेरे भैया ने कोरबा से ही कोल इंडिया में नौकरी शुरु किया था । तब मैं करीब महीने में दो बार तो वहाँ जाया करता था। उस दौरान बालको और एन टी पी सी के प्लाँट बन रहे थे। हम उसके अंदर जाकर घूम आया करते थे।

कोरबा रिहाइश के दौरान एन टी पी सी कालोनी में ही आवास मिला और फिर उनके क्लब में प्रवेश। मेरे कैरम से वहाँ के खिलाड़ी खुश हुए और बहुत सारे पुराने खिलाड़ियों ने क्लब में आना शुरु किया। उस क्लब में कैरम के खेल का दौर फिर चल पड़ा। कुछ राष्ट्रीय स्तर खिलाड़ियों व अंपायरों से संबंध बने। वहाँ सर्व श्री - विश्वेश्वर मिश्रा, सदानंद दुबे , बी. एम. धुर्वे, प्रेमलाल और संजीव मालपुरे विशेष साथी रहे। तब से ही मैं कोरबा कैरम संघ का आजीवन सदस्य हूँ। 

कोरबा के कैरम संघ के सचिव श्री आलेक गुहा को खबर लगी । उनसे मुलाकात हुई और उन्होंने मुझे कोरबा जिला कैरम प्रतियोगिता करवाने के लिए टूर्नामेंट डायरेक्टर घोषित कर दिया। मुझे इसके लिए अवकाश प्रदान करने हेतु उन्होंने मेरे कार्यालय को भी पत्र लिखा। 

टूर्नामेंट के वक्त जबलपुर निवासी श्री सतीश श्रीवास्तव जी, जो कोरबा कैरम संघ के अध्यक्ष थे और हैं, मिलने आए और उन्होंने टूर्नामेंट की सराहना की। टूर्नामेंट सफल हुआ देखकर सचिव ने मुझे अंपायर की हैसियत से आल इँडिया कैरम फेडेरेशन कप, रायगढ़ (छ.ग.) में आमंत्रित किया। यहाँ से मेरा कैरम में अंपायरिंग का सिलसिला शुरु हो गया। इस शृंखला में मैं राष्टीय कैरम प्रतियोगिताओं (नेशनल सब जूनियर, नेशनल जूनियर, डिस्ट्रिक्ट और स्टेट के रैंकिंग, हर स्पर्धा व फेडेरेशन कप के खेलों में भी अंपायरिंग कर चुका हूँ। एक दो स्पर्धाओं में मैं चीफ रेफरी और चीफ गेस्ट भी रह चुका हूँ।  इसी दौरान मैंने हिंदी भाषियों के लिए  लास आफ कैरम का हिंदी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया है जिसका विस्तृत उल्लेख इस पुस्तक में भी है। 

2015 अक्टोबर में मैं इंडियन आयल की नौकरी सेवाओं से निवृत्त होकर हैदराबाद में बस गया हूँ। अब भी साथियों के साथ करीब रोज घंटे – दो घंटे कैरम खेल लेता हूँ। यह मेरे दिनचर्या का एक अभिन्न अंग बन गया है।

उपर्लिखित सभी के सहयोग से ही कैरम में इतना आगे बढ़ पाया। इन सबके बिना मैं आज इस पुस्तक के बारे में सोच भी नहीं पाता। मैं अपने इन सभी आदरणीय साथियों का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ। 

हिंदी भाषा से प्रेम की वजह से मैंने अपनी हिंदी की कुछ पुस्तकें प्रकाशित की हैं। साथियों ने मुझे प्रेरित किया है कि में अपनी कैरम की जानकारी के साथ बच्चों के लिए एक पुस्तक तैयार करूँ।अब कोशिश है कि मेरा सीखा हुआ कुछ समाज के बच्चों व कैरम के नौसिखियों के लिए प्रस्तुत करूँ। इसीलिए अपनी अन्य प्रकाशनों की शृंखला में कैरम पर भी एक पुस्तक प्रकाशित करने जा रहा हूँ ।

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