मन मेरे निराश न हो....
सन 1975, माह
जून- जुलाई. पहले ही से तापमान बढ़ा हुआ था. लोग बरसात का आँखएँ फाड़े इंतजार कर
रहे थे. उधर सर पर सूरज, इधर कालेज की फाईनल परीक्षाएँ थी और साथ था खतरनाक आपातकाल.
संवैधानिक प्राथमिक अधिकार भी छीन लिए गए थे. कोई चूँ तो कर नहीं सकता था. सरकार
के खिलाफ कुछ भी कहना अपराध था. जॉर्ज फर्नांडीस के रेल – हड़ताल ने सरकार की ईँट
से ईंट बजाकर रख दी थी, उसे तार तार कर दिया था. हर नागरिक सहमा - सहमा था.
इसी साल मानिक
ने आई आई टी – जे ई ई की परीक्षा में दाखिल हुआ था.
कुछ दिनों पहले
ही उसका भी नतीजा आया था. मानिक को आई आई टी खड़गपूर में इंटर्व्यू के लिए बुलाया
था - लिखा था कि साथ में इतने रुपए लाए
ताकि इंटर्व्यू के तुरंत बाद ही प्रवेश की कार्यवाही की जा सके. उस दिन माँ - पापा
बड़ी बहन को लेकर उसकी शादी के संबंध में ननिहाल जा रहे थे. घर से निकल चुके थे,
दो छोटी बहने घर पर थीं सारा मुहल्ला खुशी मना रहा था कि मानिक का आई आई टी मे
सेलेक्शन हो गया है. बहनों ने कहा समय नहीं है, तू भाग और स्टोशन पर पापा को यह
दिखा. मानिक सायकिल पर भागा. ट्रेन छूटने से पहले पहुँचा और पापा को पत्र दिखाया.
पापा देखे सोचे और बोले – मैं तुमको इस शहर से बाहर रखकर नहीं पढ़ा सकता. और इतनी
जल्दी इतनी बड़ी रकम आएगी कहाँ से? और तो और यह तो डिग्री में प्रवेश के लिए है. तुम तो फाईनल
ईयर में हो, आखरी पेपर है. उससे तुम्हें डिग्री मिल जाएगी. साथ में अंग्रेजी का एक
डायलॉग भी मारा – वन इन द हैंड ईज बेटर देन टू इन द बुश.
और कहा जाओ घर
जाकर आखरी पेपर की तैयारी करो, बहनों का सही ध्यान रखना ज्यादा देर घर से बाहर मत
रहा करना.
इधर मुहल्ले
में सारे लोग पापा के निर्णय से नाराज या परेशान थे. सबका मानना था कि आई आई टी
में मिले मौके को नकारना खुदखुशी करने के समान है. कुछ ने तो कहा मैं तुम्हें
पढ़ाऊंगा, तुम मेरे साथ चल पड़ो. कुछ ने कहा मैं तुम्हारे पापा से बात करता हूँ.
किंतु मानिक ने सबको रोका. कहा कि पापा ने कुछ सोचकर ही मना किया होगा. वो मेरे
बारे में गलत निर्णय नहीं लेंगे. कोई न कोई बात- मजबूरी नहीं होती तो वे मेरी
पढ़ाई के आड़े नहीं आते.
किसी तरह
परीक्षाएं पूरी हुईँ. अब नतीजों का इंतजार था. करीब सितंबर में नतीजे आए. लेकिन
क्या. पी जी बी टी कालेज सेंटर वालों के नतीजे ही नहीं निकले. समाचारों में पढ़ने
को मिला – इस सेंटर के सभी परीक्षाएं रद्द कर दी गईं हैं और पुनः विशेष परीक्षाएं
करवाई जाएँगी, जो शायद दिसंबर में होंगे. एक खासियत यह रही कि इस परीक्षा के दम पर
अगली कक्षा में या किसी अन्य कोर्स में दाखिले के लिए प्रवेश पत्र भरा जा सकता है.
लेकिन शर्त थी कि बाद में विशेष परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहने पर प्रवेश अपने आप
निरस्त हो जाएगा
बच्चे परेशान,
अभिभावक परेशान. सभी पतासाजी के लिए महाविद्यालय व विश्वविद्यालय की तरफ बार - बार
रुख करने लगे. परीक्षा की पूरी रस्म फिर से अदा की जानी थी. कईयों ने तो निश्चय कर
ही लिया था कि विशेष परीक्षाओं में बैठना ही नहीं है. अगले साल मई में फिर से
परीक्षा देंगे. लेकिन अभिभावकों को यह रास नहीं आ रहा था. कहते थे साल बरबाद हो
जाएगा – जैसे एक साल में किसी ने चाँद को धरती पर ला देना है.
मानिक भी इनमें
से ही एक था. उसे पूरी उम्मीद थी कि वह बी एस सी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो
जाएगा किंतु यहाँ तो परीक्षाएँ ही रद्द हो गईँ. बहुत निराश हो गया था. उसकी भी
सबकी तरह समस्या यही थी कि पापा परीक्षा की तैयारी करने को कहते थे किंतु पुस्तक
को छूने तक का मन नहीं करता था. उसे हर वक्त लगता यह तो अभी ही पढ़ा है, सब तो पता
ही है, फिर क्या पढ़ूँ? उसने अपने आप में निर्णय लिया कि पढ़ना तो मुझे है नहीं और
परीक्षा दूँ तो पास तो हो ही जाऊँगा भले अच्छे नंबर ना मिलें. वैसे भी विशेष
परीक्षा में अच्छे नंबरों का क्या मतलब?
सभी साथी हाथ
पैर मारते हुए अन्यत्र प्रवेश की खोज में थे. एक ने मानिक को सुझाया - यार चल
इंजिनीयरिंग का फार्म भरते हैं. प्रथम वर्ष के नतीजे पर तो प्रवेश हो ही सकता है
इंजिनीयरिंग द्वितीय वर्ष में. इससे प्रवेश रद्द होने का खतरा भी नहीं रहेगा.
विशेष परीक्षा में बैठ लेंगे पास हो गए तो ठीक, नहीं तो भी कोई बात नहीं
इंजिनीयरिंग तो कर ही लेंगे. मानिक को लोकल कालेज में इंजिनीयरिंग नहीं पढ़ना था
इसलिए उसने बात नहीं मानी. किंतु दोस्त भी तो इतनी जल्दी छोड़ने वाले नहीं थे.
बोले यार – तुम कोई खर्च मत करना सब मैं करूँगा, बस तुम केवल साथ रहना. मानिक की
शर्त थी कि उसे इंजिनीयरिंग यहाँ नहीं पढ़ना है इसलिए घर तक कोई खबर नहीं आनी
चाहिए. उनमें अनुबंध हो गया और मानिक ने भी दोस्तों के साथ इंजिनीयरिंग का फार्म
भर दिया.
विशेष परीक्षा
के पहले ही इंजिनीयरिंग के प्रवेश का फैसला आ गया. मानिक को तब पता चला, जब एक दिन
पापा ने बुलाकर पूछा यह क्या है .. तुमने इंजिनीयरिंग का फार्म भरा था ? उनके हाथ में प्रदेश के तकनीकी संस्थान से
आया हुआ पत्र
था. उसे लहराते हुए बोले जाओ - जाकर कल दाखिला ले आओ. मानिक की हालत खराब. दोस्तों
ने तो साथ दिया लेकिन तकदीर ने नहीं और प्रवेश मंजूरी की खबर सीधे डाकिए ने पापा
के हाथ धर दिया था. शायद डाकिए को बताकर न रखना उनकी भूल थी. वैसे भी इसकी जरूरत
नहीं समझी गई क्योंकि डाकिया जिस वक्त आता था, उस वक्त पापा ऑफिस जा चुके होते थे.
आज किसी कारण से वे लेट हो गए और डाकिया पापा को मिल कर वह पत्र दे गया.
मानिक ने लाख
सँभालने की कोशिश की कि मुझे कोई शौक नहीं है यहाँ इंजिनीयरिंग पढ़ने का (और अंदर
ही अंदर भुनता रहा कि आरपकोस शौक नहीं है आई आई टी मे पढ़ानेका) मैंने केवल तापस
के कहने पर फार्म भरा था, उसका साथ देने के लिए. सारा खर्च भी उसी ने किया है.
लेकिन पापा टस से मस नहीं हुए. बोले जो हो गया सो हो गया. अब तकदीर ने एक मौका
दिया है सँभलने का, साल खोने से बचाने का - उसे खोने में कोई अक्लमंदी नहीं है. बस
और कुछ नहीं सुनना. सुबह माँ से पैसे लो और जाकर दाखिले की कार्यवाई पूरी करो.
मामला फँस गया या कहिए खटाई में पड़ गया.
शाम को धूप
ढ़लते ही मानिक तापस के घर दौड़ा. उसे सारी बात बताई, तो वह निराश हो गया कि उसकी अर्जी
मंजूर नहीं हुई. उसने दो एक और दोस्तों से पूछा – कहीं से भी हाँ नहीं आ रहा था.
सबके सब निराश कि उनका दाखिला नहीं हो रहा है और मानिक इसलिए निराश था कि उसे
दाखिला लेना पड़ रहा है. देखें कैसी विडंबना है.
खैर मरता क्या
न करता, सुबह मानिक माँ से पैसे लेकर इंजिनीयरिंग कालेज गया. जब प्रवेश सहायक के
पास पहुँचा तो उनके पास पहले से आदेश रखा था कि इस शख्स को प्रिंसिपल साहब ने
बुलाया है. अजब बात थी – पहली बार तो कालेज आया था वह – किसी से परिचय भी न था फिर
प्रिंसिपल किस लिए बुला रहे हैं ? चलो जी मानिक प्रिंसिपल के कमरे में बा- तमीज दाखिल हुआ.
उनने मानिक की पूरी जानकारी ली और बोले बेटा तुमने डिफेंस डिपेंडेंट कोटा में
अर्जी दी है ? मानिक
ने हाँ में जवाब दिया तो प्राचार्य बोले – देखो बेटा तुम्हारे नंबर तो इतने अच्छे
हैं कि सामान्य कोटा से तुहें प्रवेश मिल सकता है. यदि तुम सामान्य कोटे से जुड़
जाओ तो किसी मजबूर को डिफेंस डिपेंडेंट कोटा की जगह मिल जाएगी. लेकिन तुम्हे
सामान्य कोटा मंजूर होने की खातिर एक पत्र देना होगा. मानिक को लगा इससे एक का भला
हो जाएगा और उसने तुरंत आवश्य पत्र लिख कर
प्राचार्य को सौंप दिया. उसने यह नहीं सोचा कि इससे एक सामान्य अर्जीधारी की जगह
मारी गई. रक्षकों के प्रति उसके मन में आदर ने उससे यह करवा लिया. इसके बाद मानिक
का बड़ी आसानी से सारे काम हो गए और शाम
तक प्रवेश की सारी कार्रवाई पूरी हो गई. अब इंजिनीयरिंग पढ़ना मानिक की
मजबूरी हो गई, वह फँस गया था. फिर भी उसने दिल लगा कर पढ़ाई की.
उधर विशेष
परीक्षा और उसकी की तैयारी के लिए मानिक ने करीब 20 -25 दिन इंजिनीयरिंग कालेज से
छुट्टी कर ली. विशेष परीक्षा के अंतिम दिनों में मानिक बीमार पढ़ गया किंतु मजबूरी
वश उसी हालत में परीक्षा देता रहा . अंजाम यह कि एक विषय में उसे सप्लिमेंटरी आ
गई.
छुट्टियों के
फलस्वरूप अभियाँत्रिकी मे उसकी हाजिरी कम हो गई और उसे 1976 के मुख्य परीक्षा में
बैठने से वंचित कर दिया गया. भरी मई- जून की गर्मी में मानिक को औरों के साथ अपने
घर से 14 किमी दूर जाकर क्लास करने पड़ते थे, ताकि हाजिरी पूरी हो जाए। भीषण गर्मी
मे यह किसी विपत्ति से कम नहीं थी, लेकिन फिर वही बात मजबूरी थी. इसी बीच विशेष
परीक्षा की सप्लिमेंटरी परीक्षा भी हो गई – जो मानिक ने मुख्य परीक्षाओं के दौरान
दे दिया.
अब 1976 पूरक
परीक्षा के दिनों में मानिक ने अभियाँत्रिकी द्वितीय वर्ष की परीक्षाएं दी. फिर
उसे एक विषय में सप्लिमेंटरी आ गई. अगले मुख्य परीक्षा 1977 में उसे यह
सप्लिमेंटरी व तृतीय वर्ष के पूरे पेपर भी देने थे. इसलिए मानिक जोर शोर से लग गया.
किंतु बदनसीबी ने साथ नहीं छोड़ा इसमें अभंयाँत्रिकी द्वितीय वर्ष का पेपर तो
क्लीयर हो गया किंतु तृतीय वर्ष के एक पेपर में फिर सप्लिमेंटरी आ गई. वर्ष 1977 की
पूरक परीक्षाओं में मानिक का वह सप्लिमेंटरी क्लीयर हुआ.
अब मानिक चौथे
वर्ष के लिए वह फ्रेश रह गया. विषयों को पढ़ने के लिए उसके पास पूरा समय था. उसने
चतुर्थ वर्ष एक बार में पास किया और अंतिम व फाइनल ईयर में प्रथम श्रेणी के अंक
लेकर पास हो गया.
मानिक ने एम
टेक पढ़ना चाहा, लेकिन पापा ने उसे यह कहकर मना कर दिया कि बड़े ने भी बी ई किया
है और तुमको भी बी ई करवा दिया है. अब बाकी अपने बूते पर करो. उसने आई ई एस की
परीक्षा देना चाहा, दिया और लिखित में पास हो गया, इंटर्व्यू में भी पास हो गया.
लेकिन मेड़िकल में उसके पुराने आपरेशन ने लँगड़ी मार दी. वह पापा से अपील करने की
बात करता तो वे नकार देते कहते मुझे किसी के एहसानों में नहीं जीना है. फेल हो गए
तो हो गए. बाद में निराश मानिक ने एक नौकरी पकड़ ली और खुशी से जीवन व्यतीत करने
लगा.
इस तरह मानिक
ने 1975 की मुख्य परीक्षाओं से 1977 की पूरक परीक्षाओं तक हर बार परीक्षा में
बैठा. हर बार कुछ न कुछ तरक्की करता गया. किसी भी परीक्षा में उसे पूरी सफलता नहीं
मिली. वह हिम्मत से लड़ता रहा और अंत में 1977 के पूरक परीक्षा में पास होने के
बाद उसे संतोष हुआ कि अब वह एक समान्य विद्यार्थी सा केवल चौथे बरस की पढ़ाई करेगा
और परीक्षाएं देगा. आज पापा बड़े खुश थे कि मानिक ने जी तोढ़ मेहनत करके अपना साल
बेकार होने से बचा लिया है. आज भी उसके
साथ के कई बच्चे विभिन्न विभागों में छोटे- मोटे पद पर कार्य़रत हैं जब कि अपनी
हिम्मत व लगन के कारण वह एक अभियंता है – अच्छे ओहदे पर आसीन है. आज उसके बहुत, से
साथी नहीं जानते कि वह बी एस सी में केवल पास है – बिना किसी डिविजन के और
अभियाँत्रिकी
के पहले दो वर्षों में उसे आँशिक सफलता ही मिली थी. उसका अभियाँत्रिकी का अँतिम
परीक्षाफल बहुत अच्छा था. उन दिनों 70 प्रतिशत पाना कोई मामूली बात न हीं थी. आज
तो लोगों को 100 में 100 भी मिल जाते हैं. उसके प्रथम श्रेणी मे इंजिनीयरिंग पास
करने से पुरानी सारी विफलताएं झँक गईं.
इसी लिए उन
नौजवानों का 10 वीं या 12वीं की परीक्षा में कम अंक मिलने या फेल होने के कारण
अपना जीवन बर्बाद समझना मूर्खता है. मेरा आग्रह है कि इससे सीखो और आगे की कक्षाओं
में बेहतर करके इस पर जिल्द चढ़ा दो. सभी आपको डिग्री का मान देंगे और अंतिम पड़ाव
के प्रतिशत का ही महत्व समझेंगे. इसलिए बीती बातों पर रोना धोना छोड़कर, आगे की
जिंदगी सँवारो और शान से सर उठाकर जिओ.
अच्छी लगन व
मेहनत से हो सकता है कि ऊपरी कक्षाओं में तुम बेहतर करो और मानिक जैसा सुखी जीवन
व्यतीत करो. हाँ लगन व मेहनत जरूरी है उसके बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता. आज यदि
बहुत अच्छे नंबरों से पास होने वाले छात्रों के फोटो अखबारों मे छापे जा रहे हैं
तो कल तुम्हारा भी नाम आएगा, शायद तारीफ में फोटो भी छापा जाए. जिंदगी हमेशा एख सी
नहीं रहती. मेहनत करने से इसके रंगरूप को जरूर बदला जा सकता है.
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अयंगर.