प्रेम
प्रेम का पवित्रतम रूप – एक तरफा प्रेम ।
अगला प्रेम करे या न करे, इस से
परे अपना प्रेम जारी रखना ही सच्चा और एक तरफा प्रेम है।
यह प्रेम वह रोमंटिक प्रेम नहीं जो आज की युवा पीढ़ी करती है। उनका मकसद अपने प्रेमपात्र को अपना जीवनसाथी बनाना होता है। उसे अपनी ओर झुकाने के लिए वे तरह-तरह के करतब करते हैं। उसे मँहगे तोहफे देते हैं। जो कपड़े, गहने और अन्य पसंदीदा वस्तुओ के रूप में हो सकता है या फिर घुमाना-फिराना, खिलाना-पिलाना और कई तरह के होते हैं जो प्रेमपात्र के पसंद के हों। प्रेमपात्र को तोहफे देने में कोई गलत बात नहीं है, बशर्ते उसका मकसद उसे बरगलाकर, बहला-फुसलाकर अपना बनाना न हो। यदि ऐसा है तो फिर इसमें स्वार्थ निहित है , यह निःस्वार्थ प्रेम तो नहीं हुआ। इसे स्वार्थी प्रेम या फिर वासना या भी कहा जा सकता है।
आज के युवा प्रेम की परिणति परिणय में मानते हैं और चाहते भी हैं।
सच्चा प्यार त्याग करता है, पाने की इच्छा नहीं रखता । वह निःस्वार्थ त्याग व समर्पण करता है। प्रेमपात्र की खुशी के लिए वह निस्वार्थ कुछ भी कर सकता है। प्रेमपात्र की खुशी, तसल्ली, सहायता में वह अपनी निजी खुशियों को भी लुटा देता है। प्रेमपात्र की खुशी में ही वह खुशी पाता है, सुख अनुभव करता है। उसे इस बात का गम नहीं होता कि उसका प्रेमपात्र किसी और से प्रेम करता है। पवित्र प्रेम को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता । वह इन सबसे विचलित भी नहीं होता।
प्रेम अपनी चरम सीमा में भक्ति का रूप धारण कर लेता है। भारत रत्न श्रीमती एम एस सुब्बालक्ष्मी द्वारा प्रस्तुत आदि शंकराचार्य कृत भजन ‘भज गोविंदम’ के प्रारंभ में चक्रवर्ती श्री राजगोपालाचारी ने भी यही कहा है – “ज्ञान अपनी परिपक्वता पर भक्ति का रूप धारण कर लेता है, अन्यथा वह ज्ञान का सही स्वरूप नहीं है, बेमतलब है, व्यर्थ है”।
भक्ति निःस्वार्थ एवं बेशर्त-अपनापन, प्रेम और समर्पण का ही दूसरा नाम है। यही एक तरफा प्यार प्रेम का चरम है और एकदम पवित्र है। किसी भी तरह की चाह सम्मिलित हुई तो समझिए प्रेम दूषित हो गया।
भगवद्भक्ति में भी मन्नत माँगने की रीति उसे स्वार्थी प्रेम की परिभाषा में
ला खड़ी करती है। मन्नत का मतलब तो लेन-देन की बात हो गई यानी आप मेरा काम करो मैं
आपका करता हूँ - आदान – प्रदान। इसमें
भक्ति कहाँ और ईश्वर से प्रेम कहाँ ? यह
तो धंधा हो गया।
दंपति बच्चे का आवाहन यह सोचकर नहीं करते कि यह बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेगा। उसका मनस्फूर्ति से पालन-पोषण करते हैं। उसकी परवरिश में हर संभव कोशिश होती है कि वह एक अच्छा नागरिक बने। जब तक वह आत्मनिर्भर नहीं हो जाता , उसकी जिम्मेदारी का बोझ खुद उठाते हैं। तत्पश्चात यह बच्चे की मर्जी कि वह माता पिता का एहसान माने या न माने। मजबूरी न हो तो कोई भी अभिभावक अपनी संतान के आगे हाथ नहीं फैलाता। जब ऐसी मजबूरी आन पड़ती है, तब हालातों के आगे निःस्वार्थ प्रेम में स्वार्थ का आगमन होता है। इस समय प्रेम दूषित तो होता है किंतु तब तक का प्रेम निःस्वार्थ था जो किसी पूजा या साधना से कम नहीं आँका जा सकता।
प्रेम के कई रूप हैं। माँ की ममता प्रेम है। भाई-बहन का प्यार राखी प्रेम का ही धागा है। पिता-पुत्र के बीच का अपनापन प्रेम है। पति-पत्नी के बीच का रिश्ता प्यार है। मित्रता भी प्रेम का एक रूप है। ईश्वर की निष्कपट भक्ति भी प्रेम है।
मूल रूप में देखा जाए तो प्रेम तो बस प्रेम है। उसे निःस्वार्थ विशेषण की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस घोर कलियुग में सत्य के भी रूप निर्धारित हो गए हैं। यह तो आज के कलियुग का कमाल है कि वह सत्य में भी भेद करता है - वास्तविक सत्य और काल्पनिक सत्य। सत्य तो परम है. कहा गया है कि साँच को आंच नहीं। जैसे मैं रोज सुबह उठकर एक शख्स को नमस्कार कहता हूँ, आज भी किया। किंतु आज रोज आने वाला जवाब नहीं आया। मैंने उसके नंबर पर फोन किया तो पता लगा कि रात हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो गई है। अब सच तो यह है कि मेरे संदेश भेजते वक्त वह जीवित नहीं था किंतु मैंने तो संदेश यही सोचकर भेजा तथा कि वह जीवित है। इसमें कहा गया है कि अटल (वास्तविक) सत्य है कि संदेश भेजते समय वह जीवित नहीं था। इसमें काल्पनिक सत्य यह है कि मेरी कल्पना में वह जीवित था इसीलिए तो मैंने उसे संदेश भेजा । इस कलियुग मे हर जगह सापेक्षता घर कर गई है। ऐसे ही प्रेम में निःस्वार्थ प्रेम को अलग-थलग खड़ा कर दिया गया है। आज प्रेम का साधारण अर्थ रोमांस से ही है। आज माँ का बच्चे से अपनापन ममता कहलाता है – प्रेम या प्यार नहीं।
यदि प्रेम के बदले में कोई किसी भी तरह की चाह रखे तो उसे सिर्फ स्वार्थ ही कहना काफी है। उसे स्वार्थी प्रेम नहीं कह सकते क्योंकि यह शब्द युग्म बेमतलब या कहिए अर्थहीन हो जाता है।
मूल रूप से प्रेम स्वार्थी नहीं होता, निःस्वार्थ ही होता है।
वैसे देखा जाए तो दुनिया का हर रिश्ता स्वार्थ की चादर में लिपटा है क्योंकि ईश्वर ने मानव को मूलरूप से स्वार्थी ही बनाया है। माता-पिता भी बच्चों को पालते हैं तो उनसे कुछ अपेक्षा जरूर रखते हैं। मित्र भी उम्मीद से बँधे ही होते हैं कि मुसीबत में मदद मिलेगी। जहाँ रिश्ता आ गया, वहाँ अपेक्षा और उम्मीद आनी ही है। इसीलिए मैं प्रेम की सिर्फ इस व्याख्या को सही मानता हूँ कि -
"सिर्फ अहसास है ये
रूह
से महसूस करो
प्यार
को प्यार ही रहने दो
कोई
नाम ना दो"
इन पंक्तियों से बेहतर और सरलतम व्याख्या प्रेम की, ना कोई थी और ना होगी।
इस अहसास के साथ जीने में जिस स्वर्गीय आनंद की अनुभूति होती है , उसे तो वही जानता है जो हर पल इसी अहसास के साथ जीता है। ये अहसास उसकी रूह का हिस्सा हो जाता है और ये रिश्ते रूहानी हो जाते हैं।
प्रारंभ में तो इस अहसास को जताने की आतुरता होती है कि कैसे मैं उसे समझाऊँ, दिखाऊँ, कैसे अभिव्यक्त करूँ ? जब यह भाव परिपक्व हो जाते हैं तब इस बात से कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि सामनेवाला भी उसे चाहता है या नहीं ।
इसी भाव में डूबकर प्रेम दीवानी मीरा गा उठती है -
जो तुम छोड़ो कान्हा, मैं नाहीं छोड़ूँ रे !
इस स्तर पर आकर प्रेम अब भक्ति में बदल चुका होता है।
कोई
चाह नहीं, कोई उम्मीद नहीं, कोई लालसा नहीं।
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