बचपन की सैर
कल मुझे मिल गया भूत
का आईना,
जिसमें तस्वीर बचपन
की मुझको दिखी।
और बचपन के मिले
मुझे दोस्त भी।
पहने निक्कर,
बच्चों की टोली मिली।
वो मुहल्ला ,
वो सड़कें वो बच्चे मिले,
पेड़ पीपल,
बिही, नीम चढ़कर दिखे।
कुछ थे कैंची से
सायकल चलाते हुए,
कुछ पुलिया पे
बैठे, गपियाते हुए।
कुछ थे लड़ते झगड़ते जमीं
पे लोटे
हुए,
कुछ गले मिल रहे थे
रोते हुए।
फुगड़ी लगाती बहनें
दिखीं
और फलों से लदी
टहनियाँ भी दिखीं।
कुछ थे भौंरा पटकते
जमीं पर वहाँ,
कुछ गड़ौला चलाए चले
थे कहाँ।
देखा, विनायक के
पंडाल को
और देखा, मोहल्ले के
चंडाल को।
था, माता के पूजा का
रेला वहाँ,
हर दशहरा को भरता था, मेला वहाँ।
था, बहुत ही बड़ा एक
झूला वहाँ,
खेल थे,
खाद्य थे , चाट, बोंडा-वड़े .
फूले गुब्बारे बिकते
थे, छोटे बड़े
एक गुड्डी खरीदी
बहना के लिए,
लिया इक गेंद मेरे
अपने लिए।
चप्पल मेरी,
टूटी मेले में जब,
माँ ने दिलवाई थी, मुझको चप्पल नई,
मैंने माँ को दिया, पीतल का सुंदर दिया
औ'
कहानी की पुस्तक थी माँ से मिली !
खेल-खाकर के सब थक
जब गए।
घर जाने को सभी हम
तत्पर हुए।
हाथ पाँव धोकर जो घर
में बढ़े।
मुझको लगा कब बिस्तर
चढ़ें।
बस थोड़ी देर में सब
सो गए।
देवी निद्रा की गोदी
में सब खो गए।
जब खुली आँख तो इक
नया दिन मिला।
मन खुशियों भरा चमन
सा खिला।
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