एक रात की व्यथा - कथा
बहुत मुश्किल से स्नेहा ने अपना तबादला हैदराबाद
करवाया था चंडीगढ़ से. पति प्रीतम पहले से ही हैदराबाद में नियुक्त थे.
प्रीतम खुश था कि अब स्नेहा और बेटी आशिया भी साथ रहने हैदराबाद आ रहे हैं. आशिया
उनकी इकलौती व लाड़ली बेटी थी. इसलिए उसकी सुविधा का हर ख्याल रहता था दोनों को.
स्नेहा भी खुश थी कि अब आशिया भी उनके साथ रहकर पढ़ाई कर सकेगी. आँखों के सामने रहेगी.
इस साल उसका इंटरमीडिएट पूरा हो रहा था. स्नेहा को पूरी उम्मीद थी कि आशिया के
नंबरों की वजह से उस को किसी न किसी अच्छे कालेज में प्रवेश मिल ही जाएगा. इसी
उम्मीद से आशिया की परीक्षाओं के तुरंत बाद उनका परिवार हैदराबाद शिफ्ट हो गया था.
परिवार के हैदराबाद शिफ्ट होने से प्रीतम सबसे
ज्यादा खुश था. वह बार - बार हैदराबाद से चंडीगढ़ आते जाते कंटाळ गया था. उसे अब
इस सरदर्दी से छुटकारा मिल गया था. इधर स्नेहा ने भी हैदराबाद में जॉइन कर लिया
था. सुबह के समय तीनों के तीनों अपनी - अपनी जल्द बाजी में होते. स्नेहा और प्रीतम अपने - अपने दफ्तर जाते और आशिया अपने
लिए साज - सज्जा के सामान खोजती फिरती आस पास के बाजार में और क्लब व पार्क में
जाकर देखती कि यदि कोई साथी मिल जाए? जिससे दोस्ती की जा सके. इन दिनों वह हैदराबाद में किसी को भी नहीं
जानती थी. जरूरतानुसार वह अगली कक्षाओं के लिए कॉम्पिटिटिव परीक्षाएं भी देती रहती
थी.
शाम को अक्सर तीनों मिलकर किसी संगी कर्मचारी के घर हो आते या पिक्चर
से होते हुए बाहर खाकर आते. कभी - कभार क्लब भी हो आते जिससे कम से कम आशिया का मन
बहलता रहता. इसी बीच आशिया का इंटर का परीक्षाफल आया और वह बहुत ही अच्छे नंबरों
से पास हो गई. कुछ ही समय में उसे हैदराबाद के ही एक अच्छे कालेज में दाखिला भी मिल
गया.
अब तो तीनों ही अपने - अपने मंजिल के लिए तैयार ही हो पाते थे सुबह के
वक्त. स्नेहा को तो सबके लिए नाश्ता – खाना का भी इंतजाम करना पड़ता था. शाम को सब
अपने - अपने समय पर ही आ पाते थे. कोशिश होती थी कि डिनर पर सब साथ रहें. पर आशिया
अक्सर अपने नए दोस्तों के साथ बाहर ही खाकर आती थी. जिस किसी दिन वह घर पर होती तो
स्नेहा लाड़ से कुछ न कुछ विशेष बना लेती थी उसके लिए.
चंडीगढ़ में पली आशिया के लिए हैदराबाद की यह नई जिंदगी भी कोई नई
नहीं थी. ऐसे एहसास व अनुभव उसे वहाँ भी होते रहते थे. देर रात बाहर की पार्टियाँ,
पिक्चर हॉल, क्लब उसके लिए कुछ भी नया नहीं था. यदि कुछ था तो बस नए संगी साथी और
नया शहर. जो दिन पर दिन पुराने होते जा रहे थे. यही नयापन उसे हमेशा व्यस्त रखता
था. वह नए को अच्छे से समझना चाहती थी. पूरा मजा ले रही थी वह इस नए माहौल का.
आजकल इन मेट्रो शहरों में अपनी गाड़ी से सफर करने से तो अच्छा है कि
ओला, उबेर या मेरु टेक्सियों से सफर कर लें. ट्राफिक इतना ज्य़ादा है और सबको जल्दी
होती है. पता नहीं सबको रोज - रोज कहाँ - कहाँ जाना होता है. ट्राफिक भी ऐसी कि चलाने
का मजा भी जाता रहे. बोरियत अलग.
बहुत जल्दी ही आशिया शहर के माहौल में घुल मिल गई. उसके नए दोस्तों
ने इसमें उसका बहुत साथ दिया. अब धीरे धीरे पापा मम्मी की जगह दोस्तों ने ले ली. आए
दिन पार्टियाँ होती रहती. कभी होली , कभी दिवाली तो कभी वेलेंटाईन डे या फिर कुछ
नहीं तो किसी दोस्त की बर्थडे पार्टी या कोई गेट-टुगेदर. मम्मी पापा को यह अब रास
नहीं आता था. उन्होंने आशिया को समझाने की भी कोशिश की कि यह सही नहीं है. कभी भी
किसी हादसे का शिकार होना पड़ सकता है ऐसी जिंदगी में. रोज देर रात घर लौटना अच्छी
आदत नहीं है. पर आशिया के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती थी.
एक बार ऐसा हुआ कि क्रिसमस (बड़ा दिन) की रात में आशिया अपने दोस्तों
के साथ पार्टी करने गई. देर रात 2 बजे तक भी नहीं लौटी. तब इधर पापा मम्मी परेशान. फोन
करते रहे - उसका और सब दोस्तों का फोन बंद मिला. सब को एक एक कर के फोन किया तो
कोई जवाब नहीं. सारे लड़कियों ने जब भी फोन लगा, तब तब बताया कि वे तो फलाँ की
गाड़ी से घर ड्रॉप ले चुकी हैं. यह भी बताय़ा कि आशिया पार्टी में बेहोश हो गई थी
और जोसफ की गाड़ी में थी. वह उसे घर छोड़ने वाला था. सब परेशान भी हो रहे थे कि अब
तक आशिया घर नहीं पहुँची. जोसफ का नंबर किसी से मिल नहीं रहा था. एक लड़के का फोन नंबर
मिला, कुछ लडकियों से. नंबर लगा तो उसने बताया कि वे साथ गए थे पार्टी में. वहाँ
से लौट रहे हैं. साथी लड़कियाँ सारी अपने अपने घर पहुँच गईं. आशिया पार्टी में
बेहोश हो गई थी. पापा ने उसे बताया कि सबने जब बात हुई बताया कि वह दूसरी गाड़ी
में जोसफ के साथ गई है. उसने बताया कि वह भी उनके साथ जोसफ के घर पर ही रुका है
ताकि जब भी होश आ जाए तो आशिया को उसके घर
छोड़ा जा सके.
अब क्या ? पापा को काटो तो खून नहीं. बिटिया बेहोश. रात के 2.30 बजे, किसी के घर चले गए वे.
अब सोचें - कैसी बीती होगी वह रात उन माता – पिता की ??? दोस्त
कहते हैं चिंता न करे - सुबह घर आ जाएगी या हम घर छोड़ देंगे. हम उसके दोस्त हैं.
पर ऐसी हालातों में कैसे विश्वास करें. बेहोश लड़की किसी लड़के के घर पड़ी है, इधर
रात पूरी पड़ी है. वह तो इज्जत है उनकी - समाज में, परिवार
में. लाड़ली है सब की हर जगह.
जोसफ के ठिकाने का पता लेकर रात उसी समय जनक दोनों
निकले गाड़ी लेकर, इलाका जानकर खोजते हुए – हैदराबाद में, जो उनके लिए
भी एक नया शहर था. परेशानी में खोजते हुए रात चार बजे वे बच्ची के पास पहुँचे और
करीब 6 बजे सुबह बेहोश हालत में लड़की को लेकर घर पहुँचे.
बड़ा रिस्क था. रिस्क? क्या बचा था दाँव पर लगने को ?
इज्जत आबरू सब तो दाँव पर लग गया था । सुबह जब आशिया जागी तो नहा
धोकर तैयार होने पर, खिलाने पिलाने के बाद प्यार से पूछा माँ ने - रात की बात. तो
कहने लगी मम्मी पार्टी में मैंने तो केवल एक ग्लास बीयर ली थी. एक ही गिलास पिया
था - टेस्ट करने के लिए. हो सकता है किसी ने कॉकटेल पंच किया होगा. पर कैसे हुआ पता
नहीं, पर मम्मी को विश्वास कैसे होता? जो साथी उसकी बीयर में इस तरह छुप कर काकटेल पंच
कर सकते हैं, वे क्या कुछ और नहीं कर सकते? क्या पता उस काकटेल पंच का इरादा ही बेहोशकर कुछ
करने का ही हो शायद. उसने बिटिया की हालत देखी थी। सुबह सवेरे बेहोशी वाली. माँ को
तो सिहरन हो गई.
पापा मिलिटरी का मेजर जनरल, शौकिया पीने वाला. एहसास तो था
पीने का और उसके असर का.
आज कल के बच्चे इन सबको गलत भी तो नहीं मानते. वे
तो प्रिमेरीटल सेक्स के फेवर में जिरह करते हैं. लिविंग इन रिलेशनशिप की बात तो
खुल कर करकते हैं. पापा रूठे ऐसे कि बात ही नहीं किया. पूछा भी नहीं कि क्या हुआ. बिटिया
थी लाड़ली, सहम गई डर गई, पर पापा कठोर. दिन गुजरते गए. करीब 15
दिन बाद, एक रात, करीब 1000 - 1030 बजे, आशिया ने अपने प्रभात अंकल को फोन किया. प्रभात उन दिनों गुजरात में
था. आशिया बात कर नहीं पा रही थी . फोन पर रो ही रही थी. प्रभात बहुत प्यार करते
हैं उससे. बहुत लगाव था. वह जानती थी कि पापा इनकी ही बात मानते हैं और मम्मी भी. जब
दो चार बार प्रभात ने प्यार से पूछा कि
रोने की क्या बात है तब बात खुली.
उसे सब मंजूर था, पर मुख्य सवाल था कि पापा बात
क्यों नहीं कर रहे? वह था मुख्य सवाल. उसे उसके दोस्तों पर
पूरा भरोसा था. कहती थी न वो वैसा कर सकते हैं, न ही वैसा
हुआ है. पर उसके पास इस सवाल का जवाब तो नहीं था कि ऐसे दोस्तों में से किसने उसके
बीयर में काकटेल पंच किया और क्योंकर ? वह कहती, यदि
कोई अनहोनी हुई होती तो मुझे मालूम पड़ता ना बाद में सुबह ही सही. पर पापा तो बात
ही नहीं कर रहे कैसे बताऊँ? सोचें मानसिक यातना ... सब तरफ.
कई बार पैरेंटस यही गलती करते हैं बच्चों को
अपने मन की कहने का मौका भी नहीं देते. अपनी परेशानी में बाल मन को इतना परेशान कर
देते हैं कि बच्चे सँभल भी नहीं पाते और कई तो गलतियों पर गलतियाँ कर बैठते हैं.
उनकी जिंदगी तबाह हो जाती है. प्रभात ने पहले चुप कराया कि “मुझ पर भरोसा है तो साफ - साफ कहो, रोओ तो मत”. फिर उसकी पूरी सुना. समझाया कि पापा तो इससे
ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते. मम्मी तो बात करती है ना.
आप शांत रहो. कम से कम अगले 6 माह तक कोई ईवनिंग आऊटिंग मत
प्लान करो. कोई ड्रिंक पार्टी नही करनी. फ्रेंड्स को घर पर बुला लिया करो. बताया
कि आप हिम्मत रखो - तीन महीने में सब नार्मल हो जाएगा.
उन्हें समाज को भी सँभालना है. इसलिए वह ऐसा ही करेंगें. अब आशिया का बड़ा सवाल कि
तीन महीने क्यों? इसके जवाब उस बच्ची को बताना बहुत तकलीफ दायक
था. पर उसे संभालना भी जरूरी था. वह उस समय कोई 21-22 साल की
थी. खतरनाक उम्र. सब कुछ जानने का एहसास, पर जिंदगी के हर पहलू में अपरिपक्व.
प्रभात ने लिबर्टी ली और आगे बढ़ गया यह सोचते
हुए कि वह आशिया को समझा पाएगा. क्योंकि वह भी सुलह चाहती थी, वियोग नहीं. सब
समझाया कि तीन महीने में कैसे और क्या फर्क पड़ेगा. वह कहती अंकल ऐसा कुछ नहीं है.
मन तो मानता था, पर शक भी होता था कि अगर गलत हुआ हो तो? प्रभात उससे यही कहता रहा कि आप
पापा के बदले रोज मुझसे बात करते रहा करो. कोई भी खास बात होगी तो मैं सँभाल
लूँगा. पापा से कुछ कहना भी होगा तो मैं देख लूँगा.
ऐसा ही चला कुछ समय. फिर धीरे धीरे पापा को भी
मनाना रंग लाया. तीन माह बाद पापा का रवैया बदला. धीरे धीरे वातावरण सुधरता गया. आज सब
नार्मल है. बेटी को प्रभात पर आज भी उतना तो क्या, कहीं ज्यादा ही भरोसा है.
एक रात की व्यथा - कथा अब जाकर चार छः माह बात लौटकर
अपने यथा स्थान आई. इस दौरान आशिया को भी दुनियाँदारी समझ में आने लगी. जानकारी
हासिल कर उसने अपनी गलतियों का एहसास किया. हालात सुधरने पर एक दिन उसने मौका
देखकर शांत मन से पापने किए की माफी माँगी और कभी भी न दोहराने का वचन भी दिया.
पापा मम्मी भी आशिया को इस व्यवहार से बहुत
प्रसन्न हुए और अनुपम सहारे को याद करते हुए अपना फर्ज और कर्ज समझकर, शाम को सबने
मंदिर जाकर परिवार की खुशी और सुरक्षा के लिए भगवान को प्रसाद चढ़ाया.
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