मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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गुरुवार, 29 मार्च 2018

वर्तमान शिक्षा प्रणाली




वर्तमान शिक्षा प्रणाली

भाषा देखें : घोड़ेकी आवाज उतना सुंदर नहीं था.
कई साल बाद बच्चों की शिक्षा व शिक्षा प्रणाली से पाला पड़ा. कहाँ दूसरी कक्षा के बच्चे पराग, लोटपोट, बालक, बालहंस, चंपक, चंदामामा, बालभारती जैसे साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक बाल सुलभ पत्रिकाएँ (पुस्तक) पढ़ते थे और कहाँ आज 5वीं के बच्चे को भी ककहरा सिखाने की नौबत आ रही है. बच्चे अक्षर नहीं पहचानते, मात्राएँ नहीं जानते, जोड़ घटाव सही नहीं आता, पहाड़ों के नाम पर 5वीं के छात्र को पहाड़े केवल 7 तक भी आते हों, तो कमाल है. ऐसी शिक्षा का क्या उपयोग होगा हमारे बच्चों के भविष्य के लिए. 

शिक्षा होती है ज्ञानार्जन हेतु, किंतु वह तो रख दिया गया है ताक पर आज से पचास साल पहले ही. फिर शिक्षा होने लगी नौकरी के लिए कि मार्कशीट और सर्टिफिकेट मिल जाए. अब तो वह भी गई. शिक्षा का मकसद ही गुम हो गया. न ज्ञान न नौकरी. और तो और इस समय के पाँचवीं का छात्र सही मायने में साक्षर भी नहीं बन पाता.

गणित को जाँचकर टीचर ने गुड दिया. जरा हल जाँच लें.
बुजुर्ग बताते थे कि पुस्तक के एक पाठ से पकड़कर लेखक या कवि की सारी रचनाएं पढ़ लिया करते थे. पुस्तक से लेखक – कवि का नाम व उनके लेखन का नमूना मिल जाता था. भैया के और हमारे समय में पाठ – कविता, लेखक या कवि की जिस पुस्तक से भी लिया गया है, उसे पूरा पढ़ लिया जाता था. इससे पाठ या कविता के प्रसंग व संदर्भ का भी पूरा ज्ञान हो जाता था.



फिर समय आया पाठ पढ़ लो और अंत के प्रश्नों के उत्तर पाठ में ही चिह्नित करके रट लो. सवाल उसी में से आएँगे. अब पाठ्यपुस्तक की कविता रटी होती है. रटी रटाई सुना देंगे पर पुस्तक देखकर पढ़ नहीं पाते.


कुछ और हल किए हुए सावाल
पता नहीं छात्र गणित व विज्ञान के विषय कैसे समझ पाता होगा. बिना ककहरा के कोई बालक विषयों के पाठ कैसे पढ़ पाता होगा. मुझे तो आश्चर्य होता है कि बच्चे को पाँचवीं तक की पहुँच कैसे दे दी गई होगी. इसका जवाब मिलता है कि पाँचवी तक तो कोई परीक्षा होती ही नहीं. यदि यही हाल रहा तो बच्चा पाँचवीं की परीक्षा कैसे उत्तीर्ण कर पाएगा ?
बच्चे गर्व से कहते हैं हमारी टीचर ने यहीं तक पढ़ाया है, आगे नहीं पढ़ना है. उनके जिद के आगे किसी की कुछ नहीं चलती. उनको इस बात का ज्ञान है कि टीचर ही पढ़ाएँगे. परीक्षा होगी तो वही लेंगे. नंबर वहीं देंगे. आप पढ़ो या न पढ़ो जो टीचर चाहेंगे वहीं होगा. फिर पढ़े क्यों. हाँ इसके लिए क्लास टीचर से ट्यूशन पढ़ना पढ़ता है. पढ़ना क्या हर महीने फीस देते रहना है. बाकी चिंता किसको होती है.


कुछ जाँचे गए सवाल
सही गलत का पता तब तक नहीं चलता जब तक स्कूली टीचरों के अंतर्गत ही परीक्षाएं होती हैं. जब बोर्ड की परीक्षाएं सिर पर आती हैं, तब हवा निकल जाती है. नकल का सहारा लेना पड़ता है. पकड़े जाते हैं तो हालत खराब. पार पा गए तो भगवान मालिक, वरना भी भगवान ही मालिक.

इधर बीच में बिहार के स्कूलों में शिक्षा अधिकारी के निरीक्षण के किस्से सामाजिक पटल पर आए थे. बड़ा फूहड़ सा प्रदर्शन था. मैंने सरसरी निगाह देखकर नकार दिया, कि सब बेतुकी है. पर अब लगने लगा है कि वह सही रहा होगा.

मेरे बचपन में (60 के दशक में) आँध्र प्रदेश के शिक्षा मंत्री व स्थानीय शिक्षा अधिकारी के आने पर एक नाट्यमंचन हुआ था. उसमें निरीक्षक ने एक विद्यार्थी से पूछा – हमारे देश के प्रधानमंत्री कौन हैं?  जवाब था – जयललिता. जयललिता उन दिनों तामिल और तेलुगु फिल्मों की सुप्रसिद्ध नायिका हुआ करती थी. हम सब इस वाकए पर बहुत हँसे थे. किंतु अब लग रहा है कि नाटककार बहुत ही दूरदर्शी था. अब हमारे शिक्षा की हालत कमोबेश ऐसी ही है. बच्चे कलाम को कम और केट्रीना को ज्यादा जानते हैं.


देखिए किस भाषा का प्रयोग है.
"ऋषि को तृण के समान समझकर..."
थोक के भाव में इंजीनीयर और डॉक्टर पैदा किए जा रहे हैं. गुणवत्ता पर से तो ध्यान हट ही गया है. ज्यादातर इंजिनीयर और डॉक्टर को अंग्रेजी बतियाने में संकोच होता है. वैसे हिंदी में भी कोई महारत हासिल नहीं है. हिंदी आती है तो अंग्रेजी क्यों ?” वाला सवाल उठाएगी जनता, पर डॉक्टर और इंजिनीयर को पेशे के अनुसार विदेशियों के साथ चर्चा परिचर्चा करनी पड़ती है, इसलिए उनको आनी ही चाहिए. दुनियाँ भर में हुए नए प्रयोगों और खोज से नई जानकारी नित दिन प्राप्त करना उनकी जिम्मेदारी बन जाती है . वरना वे औरों से पिछड़ जाएंगे. वैसे भी हमारी जनता तो हिंदी भी सही - सही बोल कहाँ पाती है ? बच्चों की क्या कहें ?

कक्षा में शिक्षक (शिक्षिका) का ध्यान कहाँ होता है, यह कहना मुश्किल है. कक्षा में 40-50 बच्चे तो पहले भी पढ़ते थे और शिक्षक हर बच्चे पर ध्यान दे पाते थे, पर आज नहीं. कहा जाता है कि इतने बच्चों में हरेक पर वैयक्तिक ध्यान कैसे दिया जा सकता है ? किस बालक (बालिका) पर कितना ध्यान देना है; किससे, किसको, कितना लाभ होगा; किस पर, किस विषय में ज्यादा ध्यान देना होगा - यह सब शिक्षक कक्षा में हो रहे सवाल जवाब से ताड़ लेते थे. अब शायद शिक्षकों में यह कला नहीं है. कहने में तो बुरा भी लग रहा है और गलत भी, पर आज के शिक्षकों में पहले वालों की तरह जिज्ञासा भी नहीं है. पहले जो समाज सेवा थी, वह अब ड्यूटी है. शिक्षक सेवा नहीं नौकरी करते हैं. वैसे ही उसी अनुपात में समाज में शिक्षकों की स्थिति पर भी फर्क पड़ा है.

'रात हो चुका था' - यह भाषा सिखाई जा रही है स्कूलों में
मजाल है ? कि यदि आज भी हमारे शिक्षक रास्ते में दिख जाएं तो अपने वाहन की सीट पर बैठे रहें – चाहे वह साईकिल हो, स्कूटर/ मोटर साईकिल हो या कार – साईड ही लगेगी, अभिनंदन होगा फिर बात होगी और उनके आशीर्वाद और आज्ञा से ही वहाँ से हिला जा सकेगा. वैसे ही शिक्षक हमारे अभिभावक को दिख गए, तो हमारी भी पूरी पूछताछ होगी. कहाँ है, क्या करता है. कितने बच्चे हैं परिवार में, कुछ सहायता करता है कि नहीं. घर आता जाता तो है ना... इत्यादि.


बूढ़े माता पिता को गाँव में छोड़कर, जिनके बच्चे अमेरिका जाकर स्थिर ही हो गए - वे उन शिक्षकों को क्या जवाब देंगे ? बच्चों की बुराई कर नहीं पाते, झूठ बोला नहीं जाता, इसलिए कुछ गोल मोल बोल जाते हैं. पर शिक्षक क्या अनपढ़ हैं? सब समझ जाते हैं. सोचते भी हैं कितना होशियार था, हर बार अव्वल आता था – देखो कितना नालायक निकला. आज के कितने शिक्षकों को इतनी परवाह है बच्चों की?

बच्चे घर पर खुद तो नहीं पढ़ते हैं. आदत ही नहीं है. खास तौर पर यदि दोनों अभिभावक नौकरी पेशा वाले हैं तो अभिभावकों को खुद हमेशा यह दर्द होता है कि वे बच्चे को समय दे नहीं पा रहे हैं. इसलिए जब भी समय मिलता है वे बच्चों के साथ मनोरंजन के लिए निकल पड़ते हैं. कभी सिनेमा देखने, तो कभी सर्कस देखने, तो कभी घूमने फिरने - किसी पर्यटक स्थल या पार्क में निकल जाते हैं. जब यह भी नहीं हो पाता तो बच्चों को अतिरिक्त तरह से मनोरंजन करने के लिए जरूरत से ज्यादा पाकेट मनी दे जाते हैं, ताकि बच्चे अपने दोस्तों के साथ किसी तरह मनोरंजन कर सके. किंतु किसी अभिभावक को फुरसत नहीं है यह जानने की कि किस तरह का मनोरंजन में पैसे खर्चे गए हैं. बच्चों को पूरी छूट है, कोई पूछताछ नहीं है. इससे उसमें धैर्य आ जाता है और पैसों का नाजायज फायदा उठाता है. गलत प्रयोग भी करता है.

बच्चे का मनोरंजन तो हो गया, पर पढ़ाई का क्या हुआ ? चिंता किसे है ? बच्चे को या अभिभावक को ? किसी को भी नहीं. तो बच्चा कैसे सीखेगा. उधर शिक्षक को चिंता नहीं है बच्चों की, इधर अभिभावकों को भी चिंता नहीं है, तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे औऱ क्यों ? कारण कुछ भी हो सकते हैं. मैं उनके जायज या नाजायज होने की बात कर ही नहीं रहा हूँ... पर नतीजा तो यही है कि बच्चों की चिंता न शिक्षकों को होती है और न ही अभिभावकों को. बच्चे तो चिंता करने योग्य ही नहीं होते.

अब जब शिक्षकों को भी ज्ञान हो गया है अभिभावकों की मजबूरी का, तो शिक्षक भी इसका नाजायज लाभ उठाते हैं. आँख बंद कर कापियाँ चेक करते हैं. मैंने कुछ बच्चों की कापियों से फोटो लिए हैं  जिनमें शिक्षक / शिक्षिका ने सही का निशान लगाकर गुड भी लिखा है, पर सवाल गलत हल किया हुआ है. वैसे ही पुस्तकों के फोटो हैं, जिसमें हिंदी जैसे विषय में भी व्याकरण व लिंगों का गलत प्रयोग किया गया है. फोटो लेख में ऊपर संलग्न किए गए हैं.

उन अभिभावकों को क्या दोष दूँ जो खुद ही पढ़े नहीं है या कम पढ़े है. पर जो शिक्षित हैं , उनका तो फर्ज बनता ही है ना कि जानें कि बच्चा स्कूल में क्या कर रहा है. पढ़ भी रहा है कि नहीं. शिक्षक अपना काम सही कर रहे हैं या नहीं. आज कल तो नए तरीके निकल चुके हैं. नियमित तौर पर शिक्षकों व अभिभावकों की मीटिंग (पेरेंट- टीचर मीटिंग) होती है, ग्रेंड पेरेंट्स डे मनाया जाता है. अभिभावक अपनी प्रतिक्रिया वहाँ दे सकता है. पर कितने इस उपाय का लाभ उठाते हैं. यह एक विचार का विषय है.

बच्चों द्वारा किए गए उच्चारण पर भी ध्यान देना जरूरी है. गलत उच्चारण, लिखने में गलती करवाएगा. उसी तरह सही उच्चारण की तसल्ली करने के लिए बच्चे को श्रुतलेखन भी करवाना जरूरी है. शिक्षक की जाँची हुई कापी के अवलोकन से पता पड़ जाता है कि कक्षा में शिक्षक बच्चों के प्रति कितने सजग हैं. जिसका जिक्र पेरेंट टीचर मीटिंग में किया जाना चाहिए.

बच्चा होम वर्क (गृहकार्य) कर रहा है कि नहीं और शिक्षक उसे सही तरह से जाँच रहे हैं कि नहीं इस पर भी अभिभावक की नजर रहनी चाहिए. यदि अभिभावक इस पर ध्यान देंगे, तो शिक्षक को मजबूरन सजग होकर काम करना पड़ेगा.

कभी बीमार की सेवा और पढ़ाई – चिकित्सा और शिक्षादान महादान रूप होते थे. शिक्षा तो अक्सर मुफ्त होती थी. ट्यूशन तो होते ही नहीं थे. कोई तकलीफ है तो किसी से भी पूछ लो. कोई दाम नहीं लगेंगे. पर आज यही दोनों निकायों में सबसे बड़े व्यवसाय होने लगे हैं. अच्छे स्कूलों में शुरुआती कक्षाओं के भर्ती के ही लाख रुपए लग जाते हैं. मेडिकल और अभियाँत्रिकी के खर्च का क्या कहना. बहुत तो पैसों के आभाव में पढ़ ही नहीं पाते.


यह चित्र आँध्र ज्योति दैनिक के 30 मार्च
के अंक से साभार लिया गय़ा है
एक बात और आज दसवीं बारहवीं का बच्चा बड़े गर्व से कहता है मुझे दस सीजीपीए (क्यूमुलेटिव ग्रेड पॉईंट एवरेज) मिले, जो सबसे ज्यादा है. यानी 90-100% से दायरे में नंबर मिले हैं. समझ ही नहीं आता कि भाषा में पकड़ के बिना (हिंदी, अंग्रेजी और स्थानीय) भाषा के विषयों सहित किसी को 98% नंबर मिल कैसे जाते हैं? जिज्ञासा वश जब झाँका तो पता लगा सारे प्रश्न ऑब्जेक्टिव होते हैं. उसमें विषय संबंधी लेख लिखे नहीं जाते.

सरकारों को चाहिए कि BE, MBBS, CA, ICWA, Ph.D  व भाषा विशारद जैसे क्षेत्रों में छात्रों को भेड़ बकरियों सा आभास मत दीजिए, उनमें गुणवत्ता लाइए. कम से कम शिक्षण के क्षेत्र में भ्रष्टाचार पूरी तरह से बंद करवाइए. जितनी नौकरियाँ उपलब्ध करा पाते हैं, उसी अनुपात में शिक्षा को भी नियंत्रित कीजिए. बेरोजगार पैदा मत करते जाईए.

अच्छी गुणवत्ता के साथ हमारे विज्ञों को बाहर परदेश जाने दीजिए .. मत रोकिए, ब्रेन ड्रेन के नाम पर. मत पीटिए सर कि आई आई टी से पढ़कर बच्चे देश की सेवा करने की बजाए अमेरिका जैसे देशों में सेवा देते हैं. क्या करेंगे बच्चे, यदि देश में उचित नौकरी उपलब्ध न हो तो ?

अधिकारियों को चाहिए कि वे इन समस्याओँ पर ध्यान दे. शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कुछ करें. परीक्षा बिना लिए लिए बच्चे को पाँचवीं तक निरक्षर बनाकर रखना किसी मुर्खता पूर्ण निर्णय से कम नहीं है. शिक्षको को अपनी नौकरी के लिए इतनी सुविधाएं दें कि वे इसे नौकरी नहीं समाज सेवा समझ सकें. वरना यह बेमतलब की शिक्षा व प्रणाली देश को डुबाने में पूरा सहयोग करेगी.
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GPA    :                  Grade Point Average.
CGPA  : Cumulative  Grade point Average.
SGPA  : Semester     Grade Point Average.
          : Sessional     Grade Point average
Grades A to F.
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