मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

हिंदी दिवस 2017 विशेष - हमारी राष्ट्रभाषा




हमारी राष्ट्रभाषा.

परतंत्रता की सदियों मे स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एक जुट करने के लिए राष्ट्रभाषा शब्द का शायद प्रथम प्रयोग हुआ.

गाँधी जी खुद मानते और चाहते थे कि राष्ट्र को एक भाषा में पिरोने के लिए केवल हिंदुस्तानी ही सक्षम है और हिंदुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा  बनाया जाना चाहिए. अन्यों का समर्थन न पाने पर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में ही गाँधी जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के सभी इंतजामात कर लिए थे. इसकी पूरी रूपरेखा तैयार कर ली गई थी. लेकिन काँग्रेस में रहे नेताओं के अलावा अन्यों ने इसका समर्थन नहीं किया. उन्हें लगता था कि  भारत की सभी भाषाएं समान रूप से राष्ट्रभाषा बनने की अधिकारिणी हैं, खासकर तमिल, तेलुगु, मराठी और बंगाली जो साहित्य-संपन्न हैं. ऐसा तर्क दिया गया कि तेलुगु व तमिल भाषाएं तो हिंदी की अपेक्षाकृत ज्यादा पुरानी भी हैं. दक्षिण भारतीयों का मानना था कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने से हिंदी मातृभाषी लोगों को स्वाभाविकतः फायदा हो जाएगा तथा राजनीति के अलावा भी अन्य क्षेत्रों में हिंदी भाषी बाजी मार ले जाएंगे.

इस समय जो हालात बने उससे लगता है कि हिंदी को काँग्रेस का मोहरा मान लिया गया और राजनीतिक रंग चढ़ने के कारण आज राष्ट्रभाषा तो क्या हिंदी राजभाषा भी सही तरह से नहीं बन सकी.

इन सब कारणो से अहिंदी भाषियों ने, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम को, उन पर हिंदी थोपी जाने के रूप में देखा. इस खींचातानी के दौर में राष्ट्रभाषा शब्द के कई मतलब निकाल लिए गए. स्पष्ट ही नहीं होता कि कौन इस शब्द का किस मतलब से प्रयोग कर रहा है. प्रमुखतः  राष्ट्रभाषा के अर्थ बने


1        राष्ट्र में सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाली भाषा.
2        राष्ट्र में प्रयुक्त होने वाली एक (प्रमुख) भाषा.
3        राष्ट्र के प्रतीक चिह्न के रूप में राष्ट्रभाषा.

अलग - अलग लोगों ने अलग - अलग समय में इस शब्द का अलग - अलग अर्थों में प्रयोग किया. जिसका नतीजा यह हुआ कि लोग समझने लगे कि हिंदी भाषी खुद इस बात से भली - भाँति अवगत नहीं हैं कि राष्ट्रभाषा व राजभाषा में क्या भिनन्ता है.

महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा के लिए निम्न आवश्यक गुणों का होना जरूरी बताया था

1.  सीखने में आसानी.
2.  राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक-वाणिज्यिक व्याख्यानों को लिए उपयोगी.
3.  ज्य़ादातर नागरिकों की भाषा हो.
4.  यह एक निश्चित अवधि के लिए न होकर हमेशा के लिए हो.

इन सिद्दान्तों के आधार पर गाँधी जी की नजर में हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा के लिए सबसे उचित लगी. गाँधीजी ने अंत तक राष्ट्रभाषा के लिए हिंदी का नहीं बल्कि हिंदुस्तानी का ही साथ दिया. उनका कहना था कि हिंदुस्तानी - हिंदुओं एवं मुसलमानों दोनों को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य रखती है. लेकिन काँग्रेस के नेता केवल हिंदी चाहते थे. आज ऐसा लगता है कि यदि हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर होता, तो देश में बसे उत्तर व दक्षिण के मुसलमान भी साथ आते और राष्ट्रभाषा-राजभाषा  का पथ आज जैसै पथरीला नहीं होता.

कईयों ने तर्क दिया कि संस्कृत भाषा, हिंदी भाषी व तमिल भाषी दोनों निकायों को मान्य राष्ट्रभाषा होगी. पर इसमें मुश्किल यह थी कि यह दोनों निकायों के सदस्यों द्वारा बोली नहीं जा सकेगी. अंततः यह राष्ट्र के प्रतीक भाषा का रूप धारण कर जाएगी. राष्ट्रभाषा के लिए यह तो ठीक है पर राजभाषा के लिए यह अनुचित है. राष्ट्रभाषा का यह सुझाव हिंदी भाषियों को खास कर रास नहीं आया क्योंकि राष्ट्रभाषा के आड़ में वे हिंदी को राजभाषा भी बनाना चाहते थे या फिर उन्हें राष्ट्रभाषा व राजभाषा की भिन्नता का ज्ञान ही नहीं था. हालाँकि वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करते थे, किंतु राजभाषा बनाना चाहते थे.

स्वतंत्रता के बाद जब गाँधीजी ही नहीं रहे, तब हिंदुस्तानी का कोई पैरवीकार ही नहीं बचा. सब हिंदी के पक्षधर बचे. उर्दू होड़ से बाहर ही हो गई. बस हिंदी थी और अपने ही घर की तमिल. संविधान की भाषा समिति ने भी राष्ट्रभाषा शब्द के प्रयोग से परहेज किया और राजभाषा के रूप में एक नया शब्द ईजाद किया. इसका उनने भारत देश की राजकाज की भाषा के रूप में तात्पर्य दिया.

राजभाषा सचिवालय की पत्रिका राजभाषा भारती के एक अंक के अनुसार भाषा समिति के अंतिम निर्णय के समय तमिल व हिंदी के बीच टकराव हुआ और हिंदी नेहरूजी के अध्यक्षीय मत से विजयी हो गई. तब से हिंदी के प्रति तमिल भाषियों का विरोध जारी है. कालांतर में वह राजनीतिक रूप धारण कर गया जो अभी भी हावी है. सावधानीपूर्वक देश की अन्य प्रमुख भाषाओं को संविधान के अष्टम अनुच्छेद में एकत्रित कर उन्हें राज्य की राज भाषाएं कहा. यह भाषाएं अपने अपने भाषाई राज्य की कामकाजी भाषाएँ थीं या बनीं.




तमिल व हिंदी के बीच के टकराव के ही कारण शायद 1949 में निर्णीत राजभाषा को स्कूल कालेज की पुस्तकों से दूर रखकर हिंदी को राष्ट्रभाषा ही बताया गया.  1963 का राजभाषा अधिनियम जम्मू-कश्मीर के अलावा तमिलनाड़ु में भी प्रभावी नहीं है. अंग्रेजी जो पहले 15 साल तक अस्थायी रूप से हिंदी का साथ देने वाली थी, अब करीब स्थायी हो गई है. इस अधिनियम के अनुसार, सन 1965 में जब हिंदी को पूर्ण रूपेण  राजभाषा बनाने का समय आया तो इस बाबत अध्यादेश जारी हो गए थे. लेकिन तमिलनाड़ु भड़क गया और भभकने लगा. हिंदी का विरोध जोरों से हुआ. शायद अग्निस्नान की घटनाएं भी हुई. फलस्वरूप हालातों को सँभालने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद में वक्तव्य दिया कि जब तक सारे राज्य हिंदी को राजभाषा स्वीकार नहीं लेते तब तक अंग्रेजी हिंदी का साथ देते रहेगी. अब भी अंग्रेजी राजभाषा के पद पर हिंदी के साथ आसीन है. हालातों के मद्देनजर ऐसा लगता है कि अब अंग्रेजी हटने वाली नहीं है.

जो लोग 1980 तक भी स्कूल कालेजों में पढ़े हैं उन्हें भी राजभाषा के बारे में कुछ नहीं बताया गया. हिंदी राष्ट्रभाषा ही रही.

साराँशतः हिंदी न कभी राष्ट्रभाषा रही न अभी है. हिंदी राजभाषा मात्र है. संवैधनिक तौर पर हिंदी को राजभाषा का ही दर्जा दिया गया. लेकिन अब भी बहुत से हिंदी भाषी इस भ्रम में हैं कि संविधान हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देता है, क्योंकि यह देश के अधिकांश भागों में बोली और समझी जाती है। जबकि पूरे संविधान में राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं.

लोग मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है. संविधान में यह शब्द है ही नहीं.  “व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर हिंदी भाषी लोग हिंदी को ही राष्ट्र भाषा ही मानते है। भले ही यह संवैधानिक तौर पर लागू न हो अब तक। लोग मानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद किये गये प्रावधानों में यह लिखा जाना कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी राजभाषा (संपर्क भाषा) के रूप में चलती रहेगी और इसके बाद हिंदी को पूर्णतः राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया जाएगा। महज इसलिए प्रावधान स्वरूप रखा गया ताकि 15 वर्षों में अहिंदी भाषा क्षेत्र के लोग हिंदी सीख लेपर ऐसा नहीं हुआ और हम आज भी अपनी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मानजनक स्थान नहीं दिला पाए। हमारी राष्ट्रभाषा समिति में शामिल हमारे देश के कर्णधारों ने एक और बंटाधार संविधान के अनुच्छेद 343 (3) में कर दिया और यह उल्लेखित और कलमबद्ध कर दिया गया कि उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात भी संसदविधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का प्रयोग ऐसे प्रयोजनों के लिए कर सकेगीजैसा की विधि में उल्लेखित हो। 

किंतु प्रबुद्ध जनों का मानना है कि उनका यह दायित्व बनता है कि हम अपनी संपर्क भाषा के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखें। हिंदी तो ठीक से राजभाषा भी नहीं बन पायी हैअगर अपनी मातृभाषा के सम्मान में हम हिंदी राष्ट्र भाषा का संबोधन देते है तो क्या बुरा हैव्यक्तिगत तौर हिंदी भाषियों का मानना है कि हिंदी राष्ट्र भाषा है।


(अंततः इस लेख के लिए प्रेरक श्वेता सिंहा जी का मैं तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ.)


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रविवार, 10 सितंबर 2017

दीपा

दीपा

हर दिन की तरह मुंबई की लोकल ट्रेन खचाखच भरी हुई थी. यात्री भी हमेशा की तरह अंदर बैठे, खड़े थे. गेट के पास कुछ यात्री हेंडल पकड़े खड़े थे तो कुछ बाहर की तरफ झुके हुए थे. दैनिक यात्री रोजमर्रा की तरह लटकने का मजा ले रहे थे. लेकिन आज विशेष था कि मुंबई में पली बढ़ी दीपा पहली बार लोकल ट्रेन में चढ़ने अपने पति के साथ आई थी. पहली बार ससुराल से बाहर आई थी, वह मुंबई विश्वविद्यालय से एम ए का फार्म लेने. दीपा के विवाह को अभी एक महीना भी नहीं गुजरा था. बी एड करते समय ही सगाई हो गई थी और परीक्षा होते ही शादी. शादी के पंद्रह दिनों बाद बी एड रिजल्ट आ गया था. अच्छे नंबर थे. 

दीपा अपने ससुराल की बड़ी बहू बनकर आई थी. इसलिए उस पर वहाँ का बोझ पडना संभावित ही था. घर सँभालते हुए उस नए परिवेश में अपना परिचय देते हुए, अपनी साख बनाते हुए बाहर जाकर नौकरी करना दीपा के लिए असंभव सा था. वैसे भी दीपा को अपने घर से कालेज के अलावा कोई रास्ता भी तो पता न था. अकेली जाती तो भी कहीं कैसे. इन हालातों को देखते हुए फिलहाल उसने कहीं नौकरी का विचार नहीं किया. मन में तो बहुत सबल इच्छा थी कि वह अपने पैरों पर खड़ी होकर कुछ करे किंतु हालात साथ नहीं दे रहे थे. हालातों को समझते हुए उसने बीच का एक रास्ता चुना. घर पर ही ट्यूशन्स शुरु करने का सोचा और साथ ही एम ए करने का. 

आज वह अपने पति के साथ बाहर निकली थी. शादी के बाद पहली बार. घूमने नहीं, मुंबई विद्यापीठ से एम ए का फॉर्म भरने. लोकल ट्रेन की भीड़भाड़ की वह आदी नहीं थी. वैसे तो वह उसी शहर की थी. पर दीपा के अपने घर भी वही सब बंधन थे जो उस समय एक भारतीय परिवार में हुआ करते थे. जैसे अँधेरे के पहले लड़कियों का घर लौटना, लड़कों से संपर्क की मनाही, समय पर घर से निकलना व समय पर घर पहुँचना, अकेले दूर तक जाने की मनाही, इत्यादि. आज के जमाने से परखा जाए तो वह एक डरपोक परिवार था. फलस्वरूप दीपा मुंबई में पली - बढ़ी होने के बावजूद भी शहरी माहौल से अनभिज्ञ रही, वहाँ के रास्तों से अपरिचित रह गई. संक्षेप में कहें तो दीपा डरपोक रह गई. 

दीपा एम ए का फार्म भरकर वापस लौट रही थी. लोकल हमेशा की तरह खचाखच ही भरी थी. स्टेशनों को आते जाते भीड़ - भरी लोकल ट्रेन धीरे - धीरे खाली हो रही थी. गेट पर खड़े लोग भीतर खड़े होते जा रहे थे. जो बाहर लटक रहे थे, वे धीरे धीरे भीतर की तरफ हो रहे थे. कुछ जिनको जगह मिल रही थी सीटों पर बैठ रहे थे. ठाणे स्टेशन आते - आते दीपा व पति को भी बैठने को सीट मिल गई थी. तभी अचानक दीपा की नजर एक नीले शर्ट पहने लड़के पर पड़ी. वह इस चलती लोकल ट्रेन में से सिर बाहर लटकाकर खड़ा था. 

दीपा का माथा फिर गया. पता नहीं क्या हो रहा था उसे. शायद वह अपनी बीती जिंदगी में से कुछ याद कर रही थी. वह अपने आपको नियंत्रित नहीं कर पाई. झटके से उठी और सीधे उस लड़के के पास जाकर, बिना कुछ कहे, उसकी शर्ट पकड़कर, उसे अंदर खींच लिया. उस पर भी शायद मन नहीं भरा था दीपा का. दीपा ने उसे घूरते हुए, कड़े स्वर में डाँटते हुए, कहा अंदर खड़े हो जाओ समझे, जगह है ना, फिर बाहर क्यों लटक रहे हो. लड़का परेशान! ये कौन मेरी आजादी में खलल डालने चली आई. दूसरे यात्री आश्चर्य से व पति जलती हुई नजरों से दीपा को घूर रहे थे. वह सत्रह अठारह साल का लड़का भला क्यों उसकी बात मान ले ? वह तो फिर पहुँच गया वापस अपनी जगह पर. 

दीपा के पति, दीपा की इस हरकत पर नाराज हुए और पास जाकर दीपा को हाथ से खींचकर सीट पर लाकर बैठा दिया. दीपा ने पति की इस हरकत को अपने स्वाभिमान पर प्रहार सा महसूस किया. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि दीपा ने ऐसी हरकत क्यों की. दीपा को भी शायद पता नहीं था कि इस जन-वन में किसी को किसी की नहीं पड़ी है. भावनाएँ मर चुकी हैं. किसी के प्रति संवेदना उनके काम में दखल माना जाता है यहाँ. 

फलस्वरूप दीपा दोनों हाथों में मुंह छुपाकर फफक - फफक कर रो पड़ी. कमल, दीपा के पति को जैसे काटो तो खून नहीं. क्रोध उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था. पर वे सँभले हुए थे. हो सकता था कि उनको दीपा की मानसिकता का ज्ञान था. दीपा से इस प्रकार की प्रतिक्रिया का अंदाजा न उस लड़के को था, न दीपा के पति को और न ही अन्य मुसाफिरों को. 

पास बैठी एक बुजुर्ग महिला ने पर्स से पानी का बोतल निकाला और दीपा के सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा – ‘’क्या हुआ बेटा, चुप हो जाओ, पानी पी लो.’’ दीपा के पति से पूछा : अचानक इन्हें क्या हो गया? पति से उत्तर मिला - इनका सत्रह - अठारह बरस का भाई, आज से लगभग दो साल पहले, इसी तरह लोकल ट्रेन से घर आ रहा था. वह भी भीड़ के कारण बाहर लटककर सफर कर रहा था. एक जगह उसका सर किसी खंभे से टकराया और वह चलती ट्रेन से गिरा पड़ा. बस... ....

बाकी बात उनने जा इशारे से समझा दिया. सारे यात्रि जो अब तक दीपा के बारे कही जाने वाली बातें सुन रहे थे, यह सब जानकर अचानक भावुक हो गए. ओह !!! कहते हुए सभी यात्रियों में इसी विषय पर बातें चल पड़ी. वह लड़का भी बातों की भावनाओं में आकर अंदर की एक खाली सीट पर बैठ गया. बातों - बातों में अगला स्टेशन भी आ गया. दीपा ने देखा वह लड़का अंदर सीट पर बैठ गया था. 

उसने दीपा की हालत देखी थी, तो कुछ कह नहीं पाया था. जब पति के साथ दीपा उतरने लगी गाड़ी से - तब लड़के ने सिर्फ इतना कहा - दीदी - "आई एम सॉरी दीदी."
दीपा अभी अभी शांत हो पायी थी. लड़के की बात सुनकर उसकी आँखों की कोरें फिर भीग गई. दीपा ने ममता भरा हाथ उसके सिर पर फेरा और आगे बढ़ गई. 

सबने देखा दीपा को अपनी आँखों की नम कोरों को पोंछते हुए.

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