मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

मेरा भारत महान


मेरा भारत महान

देखकर आँसू तेरे. दिल मेरा है रो रहा,
जो दूध पीता था यहाँ, आज खूं है पी रहा,
किस लिए किसके लिए ? इस धरा पर वह जी रहा,
समझ अमृत क्यों ये मूरख, प्याला जहर का पी रहा ?

दूध की नदियाँ कभी बहती थी, भारत देश में,
आज बहती खून की नदियाँ उसी परिवेश में,
भेड़िए ही घूमते हैं आज मानव वेश में,
इसानियत परिवर्तित हुई, क्लेश में और द्वेश में.

खून अपना देखकर क्यों उड़े हैं होश अब?
खून दूजे का बहाया, था वो कैसा जोश तब?
अब भी समय है सँभल जाओ, ओ नौजवानों देश के,
मातृ मंगल चरण चूमो, ले चलो संदेश ये  ---

देश मेरी माँ, सभी नागरिक परिवार जन
कैसे करूं मैं उनकी रक्षा ?तुम करो चिंतन गहन.
पूछ दुखियारी का दुख, दूर कर दोगे अगर,
कैसी समस्याएँ तुझे, सागर भी दे देगा डगर.

काश !!! फिर इस देश में, घी दूध की नदियाँ बहें,
इस देश के सब नागरिक दूधों नहा फूलें फलें,
भगवन करो ऐसी कृपा, इस देश का कल्याण हो,
देश के खातिर निछावर, हर नागरिक के प्राण हों.

आपस में मिल जुल कर रहें, कोई धनवान ना बलवान हो,
सर्व सम्मति से यहाँ, हर समस्या का निदान हो,
विद्वज्जनों और गुरुजनों का सर्वत्र ही सम्मान हो,
इस धरती पर सबसे प्यारा देश  ...
हिंदुस्तान हो.

एम.आर.अयंगर.

गुरुवार, 7 मार्च 2013

पूछो जी पूछो...


पूछो जी पूछो...

नयनों के कोरों से,
पवन के झकोरों से,
पूछो जी पूछो...

ये बात कहां से उड़कर पहुँची है तुम तक ?

कविता से छंद से,
फूल की सुगंध से,
पूछो जी पूछो...

ये साथ अपने लेकर क्या पहुँची है तुम तक ?

मँझधारों किनारों से,
धारों पतवारों से,
माँझी के इशारों से,
चंदा से, तारों से,
पूछो जी पूछो...

ये राज कहां से पाकर पहुँची है तुम तक ?

बलखाती राहों से,
लहराती बाहों से,
अनमोल अदाओं से,
रंगीन फिजाओं से,
पूछो जा पूछो...

ये बात कहां से उड़कर पहुँची है तुम तक ?

ये बात कहां से उड़कर पहुँची है तुम तक ?
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एम.आर.अयंगर. 8462021340
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मंगलवार, 5 मार्च 2013

स्वर्ण जयंति



( डायरी के पन्नों से एक पुरानी कविता )

स्वर्ण जयंति    

ऐ जवाहर,
तुम्हारे आधुनिक भारत के,
ये औद्योगिक मंदिर,
अब ढहने लगे हैं.
एक मंजिल की नींव पर,
तीन तीन मंजिले टिक नहीं सकती.

बदलती सरकारों की,
बदलती नीतियों के बोझ तले,
गरीबी हटाने और,
निरुद्योगियों का
औद्योगीकरण करने के लिए,
सामाजिक उत्थान के लिए,
विशेष रूप से निर्बंधित,
प्रेरित एवं प्रोत्साहित
ये मंदिर,
ये सार्वजनिक प्रतिष्ठान,
पल्लू पकड़े,
सरकार की छत्रछाया में
जीने के आदी हो चुके हैं.

अपने पैरों पर खड़े होने की,
जरूरत को,
महसूस ही नहीं किया,
न ही कभी प्रयास किया.
क्योंकि,
इनको इसकी अनुभूति ही नहीं थी.

तब आज कैसे अचानक,
सरकार ने अपना पल्लू खींच लिया?
क्या सरकार का सहारा हटा कर,
इन्हें माँ के आँचल से दूर किया जा सकता है ?

पचास सालों से,
सहारे पर चलते ये निकाय,
अब सही मायनों में बे-सहारा हो गए हैं.

पल्लू में पले ये निकाय,
अब लावारिस या अनाथ
होने की हालातों से गुजर रहे हैं.

बच्चे को भी
अपने पैरों पर खड़े होने कि लिए,
प्रयास, वक्त और खुराक चाहिए,
इनके पास कुछ भी तो नहीं है.
पचास की आयु में
यदि लड़खड़ाकर गिर गए ..  तो ?
टूटी टाँग शायद जुड़ भी न सके.


सरकार को
इससे सरोकार होना चाहिए.

ऐ जवाहर,
अब देखो,
अपने बनाए मंदिरों को,
ढ़हते हुए.

राम मंदिर बने न बने,
बने बनाए मंदिरों को,
ढहाने में,
यह सरकार जरूर कामयाब,
हो जाएँगी.


एम.आर.अयंगर. 

सोमवार, 4 मार्च 2013

बचपन


बचपन

बादलों के बीच से,
बचपन झाँकता है.

वसंत के नए अंकुर,
किसी बालक के,
चेहरे की खुशी को,
प्रतिबिंबित करते हैं,

कितना आनंद आता है देखकर,
मचलते कुत्ते के पिल्लों को,
या बिल्ली के कोंपलों को,

सत्यता है ,
कि किसी भी नवांकुरित को
देखकर,
एक विशेष आनंदाभास होता है

शायद अपने जीवनाभास के कारण.

ये सब दुनियादारी से दूर,
पवित्र नजर आते हैं. 
आज की अमानुषिकता,
एवं राजनीति की परछाईं से दूर,

ये नवीनतम जीव ही,
पवित्रता के मील पत्थर हैं,

कसौटी हैं,
अंधकार में रोशनी के रूप का.


अयंगर.
8462021340.