( डायरी के पन्नों से एक पुरानी कविता )
स्वर्ण जयंति
ऐ जवाहर,
तुम्हारे आधुनिक
भारत के,
ये औद्योगिक मंदिर,
अब ढहने लगे हैं.
एक मंजिल की नींव
पर,
तीन तीन मंजिले टिक
नहीं सकती.
बदलती सरकारों की,
बदलती नीतियों के बोझ तले,
गरीबी हटाने और,
निरुद्योगियों का
औद्योगीकरण करने के लिए,
सामाजिक उत्थान के लिए,
विशेष रूप से निर्बंधित,
प्रेरित एवं प्रोत्साहित
ये मंदिर,
ये सार्वजनिक प्रतिष्ठान,
पल्लू पकड़े,
सरकार की छत्रछाया में
जीने के आदी हो चुके
हैं.
अपने पैरों पर खड़े
होने की,
जरूरत को,
महसूस ही नहीं किया,
न ही कभी प्रयास
किया.
क्योंकि,
इनको इसकी अनुभूति
ही नहीं थी.
तब आज कैसे अचानक,
सरकार ने अपना पल्लू
खींच लिया?
क्या सरकार का सहारा
हटा कर,
इन्हें माँ के आँचल
से दूर किया जा सकता है ?
पचास सालों से,
सहारे पर चलते ये
निकाय,
अब सही मायनों में बे-सहारा
हो गए हैं.
पल्लू में पले ये
निकाय,
अब लावारिस या अनाथ
होने की हालातों से
गुजर रहे हैं.
बच्चे को भी
अपने पैरों पर खड़े
होने कि लिए,
प्रयास, वक्त और
खुराक चाहिए,
इनके पास कुछ भी तो
नहीं है.
पचास की आयु में
यदि लड़खड़ाकर गिर
गए .. तो ?
टूटी टाँग शायद जुड़
भी न सके.
सरकार को
इससे सरोकार होना
चाहिए.
ऐ जवाहर,
अब देखो,
अपने बनाए मंदिरों
को,
ढ़हते हुए.
राम मंदिर बने न
बने,
बने बनाए मंदिरों
को,
ढहाने में,
यह सरकार जरूर
कामयाब,
हो जाएँगी.
एम.आर.अयंगर.
बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक कविता है आदरणीय.
जवाब देंहटाएंमान्यवर आभार.
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