राजभाषा के लिए कुछ करें
अब हम आजादी के 75 वर्ष और अमृत महोत्सव / वज्रोत्सव मना रहे हैं । 14
सितंबर 1949 को हमने हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया। संविधान के साथ ही
राजभाषा भी पदासीन हुई। आजादी के अमृत महोत्सव या वज्रोत्सव में हिंदी के लिए कोई
विशेष कार्यक्रम होता नहीं दिख रहा है। कहने को फेसबुक और वाट्सएप पर हिंदी में
पोस्ट तो आते हैं किंतु हिंदी की बेहतरी के लिए पोस्ट नहीं आते।
भाषा संबंधी पोस्ट में भी ज्यादातर ऐसे होते हैं
जिसमें हिंदी की अंग्रेजी से तुलना होती
है। कहा जाता है हिंदी में चरण
शब्द के पर्यायवाची आठ नौ हैं पर अंग्रेजी में मात्र लेग या फुट (Leg or Foot) हैं। हिंदी में चाचा, काका, ताऊ, मौसा, मामा,
छोटे पापा, बड़े पापा के लिए अंग्रेजी में ही शब्द अंकल है और वैसे ही चाची,
ताई, मौसी, मामी के लिए आँटी।
इसलिए अंग्रेजी से हिंदी सशक्त है। बेहतर भाषा है। इनको यह समझ नहीं आता कि अनेक
पर्यायवाची होने की वजह से हिंदी के विद्यार्थी को अधिक शब्दों की जानकारी और उनके
लिंग, वचन व प्रयोग की जानकारी रखनी पड़ती है। इस कारण यही विशेषता उनके लिए भाषा
को जटिल बनाती है। अंग्रेजी में इतने पर्यायवाची न होने के कारण वे एक ही शब्द की
जानकारी से काम चला लेते हैं। यह भाषा को सरल बनाती है। मैं यह नहीं कहना चाह रहा
कि अंग्रेजी हिंदी से बेहतर है पर इसे भी मानने को तैयार नहीं हूँ कि हिंदी
अंग्रेजी से बेहतर है।
मेरी सोच में भाषाओँ की तुलना गलत है। मैं इसे
बेईमानी ही नहीं बेवकूफी भी कहना पसंद करूँगा। जरा सोचिए की यदि आपसे कहे – ‘मेरी माँ तुम्हारी माँ से अच्छी है।‘ तो आपको कैसा लगेगा ? आप इसे मान लेंगे
? नहीं ना! मेरी माँ आपकी माँ
से सुंदर हो सकती है, ज्यादा पढ़ी लिखी हो सकती है ज्यादा हृष्ट-पुष्ट हो सकती है, पर अच्छी नहीं कही जा सकती, क्यों कि अच्छी में इनके अलावा
भी अन्य कई बातें सम्मिलित हो जाती हैं।
उनका रिश्तेदारों , परिजनों , अड़ोसी-पड़ोसियों से व्यवहार और भी बहुत सी बातें
समा जाती हैं। वैसे ही किसी भी भाषा
के व्यक्ति को उसकी भाषा से दूसरे की भाषा को मानना स्वीकार्य नहीं होगा। इसीलिए
तो मैं कहता हूँ कि भाषा की तुलना बेईमानी ही नहीं बेवकूफी भी है।
अब देखिए हिंदी निदेशालय जो राजभाषा का स्वरूप निर्धारित करती है उसने
मानकीकरण व सरलीकरण के तहत निर्णय लिया कि अनुस्वार की जगह वर्ग के पंचम अक्षर का
प्रयोग हो सकता है। यह हो सकता है - वाक्याँश साफ कहता है कि जरूरी नहीं
हैं। लेकिन हिंदी के चहेते तो क्वोरा (quora) पर भी लिख रहे हैं कि हिंदी वर्तनी सही है और हिन्दी गलत।
ऐसे ही, और भी मानकीकरण के प्रयास हैं जो हिंदी के साहित्यिक स्वरूप को बिगाड़ती
हैं, पर भाषा को सरल बनाती हैं । लेकिन वह हिंदी साहित्य को नहीं बदलतीं । जो
हिन्दी वर्तनी को गलत ठहरा रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि हिंदी
निदेशालय राजभाषा का स्वरूप निर्धारित करती है, साहित्य का नहीं। कुछ तो सरलता के
लिए और कुछ तो टाईपराइटरों में सुविधा के लिए बदलाव मान लिए गए हैं। साहित्य में
आज भी हिन्दी ही सही वर्तनी है। इस पर गौर कीजिए, निदेशालय भी तो हिंदी को सरलीकृत
करने की ओर बढ़ रही है। अब यह तो कहा ही जा सकता है कि अंग्रेजी तो कुछ हद तक सरलीकृत
है ही। इस लिए अंग्रेजी को हिंदी से कमतर कहना असहनीय व अशोभनीय है।
हमारे हिंदी के चहेते जो हिंदी को देश के माथे की
बिंदी कहते फिरते हैं , जो हिंदी को विश्व भाषा के रूप में देखना चाहते हैं – वे
इन दिनों अंग्रेजी को हिंदी से नीचा दिखाने में लगे हैं। उन्हें चाहिए कि वे हिंदी
के उत्थान के लिए कुछ करें। हिंदी में कंप्यूटर के प्रोग्राम लिखें गूगल जैसा की
पोर्टल बनाएँ, ताकि कंप्यूटर अंग्रेजी के बिना केवल हिंदी के बल-बूते पर चल सके।
बुरा तो लगता है पर हमारी एक जुटता और क्षमता इतनी ही
है कि हम इन 70 - 72 वर्षों में हिंदी को सही ढंग से राजभाषा भी नहीं बना सके।
राष्ट्रभाषा की क्या कहें। आज हिंदी भाषाई राज्यों में भी सरकारी कामकाज पूरी तरह से हिंदी में नहीं होता है, फिर
दक्षिणी राज्यों की क्या कहें। ऐसी तुलना से भाषाओं में आपसी वैमनस्य ही होगा ।
किसी की भलाई नहीं होने वाली। हर माँ की तरह हमें हर भाषा का सम्मान करना होगा।
यह एक जटिल मुद्दा है। इस पर गंभीर चिंतन मनन की
जरूरत है। किसी को नीचा दिखा कर उसका अपमान कर सकते हैं, पर हम ऊँचे नहीं उठ सकते।