राष्ट्रहित
अनुष्का शर्मा ने एहरान को डाँट लगाई कि वह कार से सड़क पर कचरा फेंक रहा था. भले ही लोग यह सोचें कि उसने सफाई वालंटीयर होने का फर्ज निभाया है, पर किसी ने यह सोचा कि क्या अनुष्का ने वालंटीयर बनने के बाद पहले पहल इसी शख्स को सड़क पर कचरा फेंकते देखा है?
हमारे देश में रोजाना ऐसे हजारों हादसे होते हैं इसलिए यह असंभव ही है. फिर अनुष्का का एहरान पर ऐसा रवैया क्यों ? बात साफ नहीं है. उसके ओहदे पर उसे चाहिए था कि कार का नंबर नोट करती और RTO से उसके संपर्क निकलवाकर उनको फोन करती या अधिकारियों से एक पत्र लिखवाती. सरे बाजार उसकी किरकिरी करना और वीडियो सामाजिक पटल पर डालना अनुष्का की अपनी लघु - क्षीण – तुच्छ मानसिकता का प्रतीक बन गया है. अब जरा उस एहरान की सोचिए क्या हालत बनाया है अनुष्का ने उसका. किसलिए... किस हक से ??? मैच के दौरान स्टेडियम में उपस्थिति के कारण मैच हारे ... ऐसे वक्तव्य पर अनुष्का के खुद पर क्या गुजरी, वे इतनी जल्दी भूल गई.
यदि समाज सुधार का इतना ही ध्यान था तो उन कानून के रखवालों पर पहले नजर
डालते जो खुद कानून बनाते हैं और खुद ही रोज तोड़ते हैं. वो नामचीन नेता, पुलिस
कर्मचारी जो सड़क किनारे मूत्रत्याग को रुक जाते हैं, जो दूसरों को चालान काटकर
खुद बिना हेलमेट के और तिकड़ी सवारी करते हैं. पर नहीं वहाँ इज्जत पर आँच आने का
खतरा है. इसीलिए एक आम आदमी को निर्लज्जता से सरे आम निर्लज्ज किया. वीडियो
सामाजिक पटल पर डाला.
उन नेताओं को नैतिकता का पाठ पढ़ाइए जो लड़की बचाओ के नारे लगाते हुए
लड़कियों की इज्जत लूटते हैं. उन कलाकारों व हस्तियों को तहजीब सिखाइए , जो चढ़ती
हेमलाइन व उतरती नेकलाइन से समाज में अश्लीलता फैलाते हैं. हाँ यह बिलकुल सही है कि पुरुषों में संयम कूट -
कूट कर भरा होना चाहिए. इतना कि निर्वस्त्र लड़की - स्त्री के सम्मुख भी उसका
उन्माद न जगे. पर जिस देश में इसी अश्लीलता पर सदियों से प्रतिबंध था वहाँ अचानक
अश्लीलता की बाढ़ हो तो वैसा ही होगा ना – जैसा कि एक बाँध के टूटने पर सारा इलाका
जलमग्न हो जाता है, बस जो टीले है वही सूखे रह पाते हैं.
हम बात परदेसों की करते हैं कि जब वहाँ के लोग संयम बरत सकते हैं तो यहाँ
क्यों नहीं ? बिलकुल सही. पर ये तो जानिए कि वहाँ ऐसी प्रथा कितने बरस
झेलने के बाद आई है. उतने या उससे कम समय में यहाँ भी आ जाएगी. आँकड़े देखें तो समझ आएगा कि परदेसों
में जनसंख्या कम होने के बावजूद भी हादसे यहाँ की अपेक्षाकृत ज्यादा हैं. वहाँ समय के चलते लोगों का मन भर चुका है,
तृप्ति हो गई है. अब केवल कुंठित लोग ही व्यभिचार करते हैं फिर भी वह संख्या हमारे
देश की व्यभिचारी हादसों की संख्या से बहुत ज्यादा है.
बेंगलूरू में जब गौरी लंकेश को गोली मारी गई तो किसी जनाब ने फरमाया –
अच्छा हुआ कुतिया की मौत हो गई. अभी दो दिन पहले किसी नेता ने कहा – “अगर
कर्नाटक में किसी कुत्ते की मौत हो जाए तो क्या प्रधानमंत्री को प्रतिक्रिया देनी
चाहिए.” सही कुत्ते की मौत पर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया नहीं
चाहिए है कि गौरी की हत्या पर “कुतिया की मौत हो गई” पर
चुप्पी भी असाधारण है. शायद ये लोग भूल रहे हैं कि सत्य के विरोध में बोलना और गलत
के विरोध में न बोलना दोनों ही अपराध की श्रेणी में आते हैं. ऐसे बहुत सी घटनाएँ
हैं जहाँ प्रस्तुत सरकार ने मौन स्वीकृति दी है. जैसे गोहत्या की आड़ में, गोमाँस
खाने की आड़ में की गई हत्याओं के संदर्भ में. नैतिकता कहती है चोरी नहीं करनी
चाहिए. करने पर पुलिस पकड़ती है, जाँच करती है, न्यायालय में सही गलत का फैसला
होता है, सजा होती है. यहाँ तो कुछ भी नहीं. पार्टी सदस्य किसी को भी कुछ भी कह - कर
जाते हैं. मुखिया चुप्पी साध लेता है. मौन सहमति में सब स्वीकृत हो जाता है. प्रमुख नेताओं का स्तर क्या इतना ही रह गया है
कि उन्हें समझ ही नहीं आता कि कहाँ कहना है और कहाँ चुप रहना है, कहाँ सहमत होना
है कहाँ असहमत.
एक कहता है कि लोगों के नजरों में आने के लिए, मुख पृष्ठ पर फोटो छपवाने के
लिए किसान आत्महत्या करते हैं. कितने मूढ़ हैं ये वक्ता? कितने तुच्छ विचार और नीच वक्तव्य है यह. पर आका
चुप है.
इसी देश में फूलन सिंह डकैत से साँसद बनी. नाथूराम गोड़से पूजनीय हो गए.
गाँधी नेहरू के बारे में जो कहा लिखा जा रहा है वह तो हद से बाहर ही है. सरकारी मद
में हम सबकी बेइज्जती ही कर सकते हैं, इज्जत कभी नहीं. कितना बढ़ियातंत्र है. हम
स्वतंत्र नहीं हैं यही स्व तंत्र है. देश ने दुनियाँ भर की हिंदूवादी संगठनों को खुली
छूट देकर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने
की ओर कदम तो बढ़ाया है, पर हम मूक हैं. देश के नियंत्रक हैं. या तो देश में हो
रहे गतिविधियों से अनभिज्ञ हैं या मौन समर्थन है. सबका अपना तंत्र है..हम स्वतंत्र
हैं.
हम अमरीका और चीन को धमकाने की बात करते हैं ... पर अपने देश में नक्सली
दौर को खत्म नहीं कर सकते है . दाऊद से बात होती है कि किन शर्तों पर वह देश लौटेगा.
इधर नीरव और माल्या जैसे लोग देश को लूट कर भाग जाते हैं हमें खबर ही नहीं
होती.
डिजिटल इंडिया के नाम पर सामाजिक पटल पर अश्लीलता भर गई है. कानून के रखवालों का मौन समर्थन प्रप्त है अश्लीलता फैलाने वालों को. शायद विशिष्टों की सेवा में बोलती बंद है.
जिन्होंने सालों साल देश के तिरंगे को न फहराया, न सलाम ही नहीं किया या
उसके सम्मुख नतमस्तक नहीं हुए, वे आज देशप्रेमी और देशद्रोही के सर्टिफिकेट बाँट
कर खुश हो रहे हैं. किसने दिया उनको ये अधिकार, यदि किसी ने नहीं तो कानून अंधा
बनकर मूक दर्शक क्यों बन बैठा है ?
किसीपर कोई कार्रवाई हुई ? अधिकार
इसलिए कि हमारी सरकार है , है ना इसीलिए...? शायद यही अराजकता है. जंगल राज है. जब एक
मुख्यमंत्री धरना देता है तो वह अराजक हो जाता है. जब सरकारी पक्ष का मुख्यमंत्री
धरने पर बैठता है तो बहादुरी है और जब प्रधानमंत्री
धरना दे तो ... बोलती बंद. वाह मेरे देश वाह !!!
हाल में जम्मू कश्मीर की सरकार गिरी.
भाजपा ने कहा कि देशहित में हमने महबूबा मुफ्ती के पीडीपी
पार्टी से गठबंधन तोड़ दिया है. जब तीन साल पहले यह गठबंधन की सरकार बनी थी
तब भी भाजपा के नेताओं ने यही कहा था कि देशहित में हमने महबूबा की पीडीपी से गठबंधन किया. शायद इन नेताओं को देश की
सही परिभाषा का पता नहीं है. वे अपनी पार्टी को ही देश समझ रहे हैं. इसी के तहत
उनका लोगों को देशप्रेमी या देशद्रोही कहना भी सही अर्थ पा जाता है.
हमारे प्रधान मंत्री की सोच की क्या कहें वे 18-19 मई 2015 को परदेश में कह
आए.. “पहले भारतीय अपने देश में पैदा होने की वजह से शर्मिदा
थे” फिर सफाई भी दी कि मेरे शासन से पहले भारतीय अपने देश
में पैदा होने की वजह से शर्मिंदा थे.“ इस पर भी वे देशद्रोही
नहीं कहलाए. पर वे सारे साहित्यकार देशद्रोही हो गए जिन्होंने साहित्यिक पुरस्कार
लौटाए थे. कारण सही हो या गलत..
प्रधान जी का सफाई संबंधी वक्तव्य बहुत ही मजेदार रहा कहते हैं "जहाँ
मैंने भारतीयों के शर्मिंदगी की बात की थी वहाँ केवल विदेश में बसे भारतीय ही थे." जैसे उनके वक्तव्य उस जनता से बाहर ही नहीं गए हों.
सही में मेरा भारत महान है. यहाँ सब, जिस किसी का चल सकता है, स्वतंत्र हैं.
अराजक वही हैं जिसका तंत्र नहीं चल पाता. चलती का नाम गाडी और जो न चले वह खोटा
सिक्का.
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