हे राम कहूँ या हाय राम,
इंसां की कैसी नादानी,
समझा तुमको बहु आयामी,
तुम कहलाते अंतर्यामी.
देखो इंसां के हौसले, आज
वह आज दे रहा फैसले,आज
कहते रब की जगह कहाँ है,
कहे राम का धाम वहाँ है.
मानव आज अमानव कैसा,
निलय तेरी तय करने जैसा,
करता तय अनंत की सीमा,
सोचा खुद की कोई सीमा ?
रचना रचनाकार को बाँधे,
औ’ आकार अनंत का साधे,
जीवन बीत रहा जप जिसका,
राम कृष्ण सिया राधे राधे.
बेहद की सरहद बाँध रहा,
क्यों अपनी सरहद लांघ रहा,
जो अंतर्यामी है उसको,
इक चबूतरे बाँध रहा.
राम रहीम में कब थी लड़ाई,
गीता कुरान में किसकी बुराई,
हिंदू मुस्लिम जब भाई-भाई,
रहें संग क्यों करें लड़ाई.
मजहबों के रास्ते चाहे अलग
मंजिलें सबकी मगर हैं एक ही,
जब नहीं टकराव कोई आपसी,
संग रहकर दोनों क्यों हो ना खुशी,
अपने मजहब से बढ़के भी कुछ कीजिए,
दोनों का रस्में पूरी करे प्रण लीजिए
.................................................
03.10.10. राजकोट.
एम आर अयंगर.
https://laxmirangam.blogspot.com/ इस ब्लॉग की सारी रचनाएं मेरी मौलिक रचनाएं हैं। ब्लॉग पर आपकी हर तरह की टिप्पणियाँ आमंत्रित हैं।
मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS
बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
...मजहब से आगे....
Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
Can manage with Kannada, Tamil, assamese, Marathi .
Published Eight books in Hindi containing Poetry, Short stories, Currect topics, Essays, analysis etc. All are available on www.Amazon.in/books with names Rangraj Iyengar & रंगराज अयंगर
मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011
हिंदी दशा और दिशा
हिंदी दशा और दिशा
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है. कांग्रेस के एक अधिवेशन में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया. भारत में जगह जगह पर राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों ( व हिंदी प्रचार समितियों) का गठन किया गया. जिननें (केवल) हिंदी के प्रचार के लिए प्रबोध, प्रवीण एवं प्राज्ञ जैसी परीक्षाओं का आयोजन माध्यम बनाकर लोगों को, खासकर अहिंदी भाषियों को हिंदी में काबिल बनाने का यत्न किया.
भारत के संविधान में ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं है. वहां ‘राजभाषा’ व अष्टम अनुच्छेद की भाषाएं ही नजर आती हैं. हिंदी को संघ की राजभाषा नाम से संबोधित किया गया. आज कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रभाषा का निर्णय सारे भारत पर लादा जा रहा है. एसा आभास होता है कि राजभाषा का उत्थान हमारी समस्या नहीं है – हमें राष्ट्रभाषा हिंदी को विकसित करना है.
सन् 1963 में राजभाषा “हिंदी” अधिनियम जारी हुआ. लेकिन ताज्जुब इस बात का होता है कि 1973 में जब मैंने हिंदी भाषी राज्य छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्यप्रदेश) से हिंदी साहित्य विषय के साथ उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पूरी की, तब भी शालाओं मे राजभाषा के बारे कोई पढ़ाई या चर्चा नहीं होती थी.
सन 1983 - 84 के दौरान जब एक सरकारी दफ्तर में जाने का अवसर मिला तब वहां के प्रशिक्षण केंद्र में देखा – “ हिदी हमारी राष्ट्रभाषा ही नहीं अपितु हमारे संघ की राजभाषा भी है”. वहां का कोई उपस्थित सदस्य मुझे इसका अर्थ नहीं समझा पाया. बाद-बाद में किताबों से जानकारी मिली कि राजभाषा क्या है और राष्ट्रभाषा से किस तरह भिन्न है. इससे परिलक्षित होता है कि राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा में समुचित भेद है. जहाँ राष्ट्रभाषा हमारे देश जनता की आपसी संवाद की भाषा है , वहाँ राजभाषा संघ के कार्यकलापों के लिए नियत (ऑफिशियल) भाषा है.
क्या हम अपनी राजभाषा को परदे में सँजो कर रखना चाहते हैं?
यदि हिंदी का प्रयोग बढाना है और हिंदी को सही मायने में अपनाना है तो इसे खुली छूट देनी होगी. हिंदी के सारे नियम कानून जग-जाहिर करने होंगे. सारे उच्चस्तरीय अधिकारियों को जन समुदाय को प्रोत्साहित करने के लिए मजबूरन ही सही, अपने बच्चों को हिंदी माध्यम स्कूलों में पढाना होगा. अधिकारी इससे कतराते क्यों हैं इसका राज, राज ही है.... या उनकी समझ में भी अंग्रेजी ही शिखर की सीढी है.
50-55 साल के किसी बूढ़े को एक सप्ताह का प्रशिक्षण दे देने से वह हिंदी में पंडित नहीं हो जाता. इसके लिए आवश्यक है कि वह व्यक्ति इस भाषा से लगातार संपर्क में रहे. यह संभव तब ही हो सकता है जब भारत के सभी शालाओं में हिंदी अनिवार्य हो और इसमें 50 प्रतिशत अंक पाने पर ही उसे उत्तीर्ण घोषित किया जाए. शायद हमारे यहाँ सरकार बच्चों को हिंदी पढ़ाने में विश्वास नहीं रखती, हाँ, बल्कि बूढ़ों को सप्ताह भर में हिंदी में पारंगत कर देना चाहती है.
ऐसा नहीं है कि दक्षिण भारतीय हिंदी समझते नहीं हैं. यदि ऐसा होता तो हिंदी फिल्में दक्षिण भारत में चल नहीं पातीं – लेकिन माजरा यहाँ उल्टा ही है- दक्षिण भारत में हिंदी फिल्मों का क्रेज है. यह भी नहीं कि दक्षिण भारत में फिल्में नहीं बनतीं ... शायद हिंदी से ज्यादा फिल्में दक्षिण भारत में ही बनती हैं.
क्या हमारा हिंदी प्रचार-प्रसार का कार्यक्रम ऐसा ही है ?
यदि हम हिंदी की इतनी ही सेवा करना चाहते हैं, हिंदी के प्रति हमारा रुख – बर्ताव ऐसा ही होना था तो जो नतीजे आ रहे हैं उनसे दुखी होने का कोई कारण ही नहीं है. नतीजे ऐसे ही आने थे सो आए. नतीजे प्रयत्न के फलस्वरूप ही हैं… बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय !!!
यदि सही मायने में हम हिंदी के उपासक हैं और हिंदी को पनपता देखना चाहते हैं तो
सभी सार्वजनिक व सरकारी प्रतिष्ठानों में प्रवेश के लिए हिंदी अनिवार्य क्यों नहीं की जाती। ऐसी तो कोई मान्यता नहीं है कि हिंदी जानने वाला अंग्रेजी नहीं जान सकता. यदि किसी को ऐसा लगता है कि प्रगति के लिए अंग्रेजी जरूरी है तो वह अंग्रेजी सीखे और क्योंकि देश में पढ़ने के लिए हिंदी जरूरी है इसलिए हिंदी पढे. ऐसा प्रतीत होता है कि आज के समाज में हिंदी को अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ापन का पर्याय सा माना जा रहा है और अंग्रेजी व अंग्रेजियत फेशन के साथ- साथ स्टेटस सिंबल सी बनती जा रही है. हमारे देश में , हमारे लोगों द्वारा , हमारी भाषा का यह हाल किया जा रहा है और हमको तकलीफ का आभास तक नहीं होता. हम अब भी तमाशबीन बने बैठे हैं. इसमें किसी का क्या दोष. अपने गिरेबान मे झाँक कर देखिए ...???
स्वतंत्रता के साठ वर्षगाँठ मनाने के बाद भी आज हमें अपनी भाषा के बारे में यह सोचना पड़ रहा है, क्या यह दयनीय नहीं है ! शर्मनाक नहीं है ! पर क्या हम शर्मिंदा हो रहे हैं ? या हम बेशर्म हो गए हैं ? इनका जवाब ढूंढिए, कहीं न कहीं हमारी अपनी कमियाँ आँखें फाड़ कर हमारी तरफ ताकती मिलेंगी. जब हम उन गलतियों को सुधारकर खुद सुधरेंगे, तब कहीं देश या देश की भाषा को सुधारने की काबिलियत हम में आएगी. क्या हम इस सुधार के लिए तैयार हैं ?
सरकारी संस्थानों में अपने विभिन्न पैसे संबंधी दावे, आवेदन चाहे छुट्टी का हो या अनुदान का या फिर किसी सुविधा संबंधी अर्जी ही क्यों न हो,- हिंदी में देने के लिए क्यों नहीं कहा जा सकता. शायद कुछ सोच-विचार , चर्चा – परिचर्चा के बाद कम से कम हिंदी क्षेत्र में, हिंदी में भरे फार्मों को प्राथमिकता दी जा सकती है.
उसी तरह हिंदी की रचनाओं को प्रोत्साहन हेतु – हिंदी के लेख, निबंध, कविता, चुटकुले शायरी इत्यादि रचनाओं के लिए ज्यादा पारिश्रमिक दिया जा सकता है. कम से कम राष्ट्रीय पर्वों – 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2 अक्तूबर - पर व्याख्यान हिंदी में देने के लिए जरूर कहा जा सकता है.
हिंदी की प्रगति के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि हिंदी के नाम पर क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग न हो. 1963 का राजभाषा अधिनियम भी रोजमर्रा की, बोलचाल व संप्रेषण की संपर्क हिंदी को ही राजभाषा का दर्जा देता है. भाषा में जितना प्रवाह होगा, वह लोगों की जुबान पर उतना जल्दी चढेगी. भाषा रोजमर्रा के जितनी करीब होगी – लोगों का उसकी ओर आकर्षण उतना ही ज्यादा होगा और वह उतनी ही जल्दी अपनाई जाएगी.
हाल ही में टी वी चेनलों ने एक प्रायोगिक भाषा “हिंग्लिश” शुरु की. जो हिंदी व अंग्रेजी के सम्मिश्रण के अलावा कुछ नहीं है. इसके लिए पूरी तरह न हिंदी जाननें की जरूरत है, न ही अंग्रेजी जाननें की. इसलिए आधे अधूरे भाषायी-जानकारों को अच्छा मौका मिला और “हिंग्लिश” देखते ही देखते युवाओं के लिए वरदान साबित हुई और जवान पीढ़ी ने इसे देखते ही अपना लिया. आज “हिंग्लिश” युवा पीढ़ी की भाषा है.
आज की युवा पीढ़ी किसी एक से बँध कर नहीं रह सकती चाहे वह भाषा ही क्यों न हो. हर क्षेत्र की तरह वह भाषा के क्षेत्र में भी लचीलापन (फ्लेक्सिबिलिटी) चाहती है , जिसकी कसौटी पर हिंग्लिस खरी उतरती है. उनके लिए शायद पाँच मिनट एक भाषा में बोलना दूभर हो जाए, हिदी व अंग्रेजी कब कहाँ कैसे मिल जाएं इसका उन्हें शायद आभास भी न हो पाए.
मैं यदि मेरी कहूँ तो मुझे हिंदी से बेहद लगाव है. लेकिन जिस तरह से हमारे देश में हिंदी के प्रयोग पर या अपनाने पर जोर जबरदस्ती की जाती है उस पर मुझे कड़ी आपत्ति है. कहा जाता है कि हस्ताक्षर हिंदी में करें. कोई इन्हें समझाए कि क्या हस्ताक्षर की कोई भाषा होती है? यदि हाँ तो कल कोई मुझसे कहेगा – आप हिंदी में क्यों नहीं हँस रहे है? या कोई कहे – आप तबला हिंदी में बजाया करें. ड्राईंग हिंदी में बनाएँ – इत्यादि-इत्यादि. मुझे यह दिखावे के अलावा कुछ नहीं लगता.
अनाप शनाप अनावश्यक व बेमतलब के ये तौर-तरीके हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोगी नहीं, बाधक हो रहे है. कोई इनकी तरफ ध्यान दे व लोगों का सही मार्गदर्शन करे तो भी बात सुधर सकती है.
लोगों से जबरदस्ती मत कीजिए. मानव-स्वभाव है कि यदि आप जबरदस्ती करेंगे तो वह आपका विरोध करने को उत्सुक होगा. आपका जितना जोर होगा उसकी उतनी ही तगडी प्रतिक्रिया होगी. साधारण उदाहरण ही लीजिए - कोई पिक्चर “ए” सर्टीफिकेट पा गई हो तो बड़े देखें न देखें, पर बच्चे इसे जरूर देखेंगे कि इसमें ऐसा है क्य़ा ? आतुरता उत्सुकता उन्हें वहाँ खीच लाती है.
हम आए दिन प्रण लेते रहते हैं. लेकिन इन्हें राजभाषा पखवाड़े तक ही सीमित रखना हमारी आदत बन गई है. हमारी ऐसी आदतों को कभी मैंने ईस तरह कहा था , जो आज भी सामयिक है : -
साल भर हम सो रहे थे, एक दिन के वास्ते,
जागते ही ली जम्हाई, और फिर हम सो गए.
राजभाषा पखवाड़े तक सीमित हिंदी को अब असीमित करना होगा. इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हम अंग्रेजी की अवहेलना कर हिंदी को आगे बढाएं. जहाँ अंग्रेजी हिंदी का स्थान नहीं ले सकती, वहाँ निश्चित रूप से हिंदी भी अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकती. देनों भाषाओं का अपना अपना स्थान है. भारत में भारतीय भाषा – राजभाषा - का वर्चस्व होना वाजबी है.
आइए प्रण की सीमाओं को लाँघते हुए, अंग्रेजी को अपना स्थान देते हुए हम हिंदी को उसके मुकाम तक पहुँचाने का काम करे.
इसे प्रण तक सीमित न करें.
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एम. आर. अयंगर,
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड,
पश्चिमी क्षेत्र, गवरीदड़, मोरबी रोड,
राजकोट,गुजरात.
09428003626.
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