मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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सोमवार, 19 दिसंबर 2016


रिश्तों की मर्यादा

बचपन के मोहल्ले में रहने वाली एक मुँहबोली मौसी की बेटी स्वाति ने चिट्ठी  लिख कर सोनू को अपने घर बुलाया .. यह कहते हुए कि  मम्मी पापा को बताना मत कि मैंने बुलाया है और हाँ जल्दी आना. स्वाति ने सोनू को बताया कि घरवालों ने उसके लिए लड़का देख लिया है.

सोनू गिरते पड़ते पहुँचा. पता लगा  अभिभावकों ने लड़का पसंद कर लिया है और लड़के वालों की हाँ भी आ गई है. बस स्वाति की हाँ ना का इंतजार हो रहा है पिछले पखवाड़े से. सोनू पहले तो घबराया फिर सोचा कि "यदि हाँ या ना ही कहना है तो लड़की अपनी मर्जी बताए. मेरे लिए यह शादी खुशी की खबर है."-

स्वाति ने बहुत समय से इसे रोक रखा है, अब मुसीबत सर पर आ गई है. तो सुलझाने के लिए उसे सोनू चाहिए. क्योंकि उसका मानना है कि मम्मी पापा को मनाना है तो सोनू का होना जरूरी है. ऐसा उस परिवार के सभी मानते हैं.

स्वाति ने सोनू को लड़के से मिलाया और पूछा कि "तुम्हारी राय क्या है? स्वाति ने सोनू को भी अपने मन की बात नहीं बताई.

सोनू  ने कहा कि यदि मेरी राय चाहिए तो अमल करना होगा...ना नहीं चलेगा. मंजूर है तभी मैं आगे बढ़ूँगा. जब बात तय हो गई तो सोनू ने लड़के के साथ संपर्क किया, साथ में घूमे फिरे, लड़के को अपनी बारीकियों में परखा. दो दिन परिचय पाकर समझा और स्वाति को हाँ कहकर जवाब दे दिया.  दो दिन बाद सोनू अपने शहर वापस चला गया.

सोनू के लौट जाने पर, स्वाति ने मम्मी को हाँ में जवाब दे दिया. सब खुश तो हुए, पर मम्मी को एक शक हुआ. इतने दिनों से आनाकानी करने वाली लड़की ने आज अपने से हाँ कैसे किया?

मम्मी ने बहुत विचारने के बाद सोनू को फोन किया. खूब नाराज हुई उस पर. बोली बेटा, तुम लोग आपस में एक दूसरे को इतना पसंद करते थे तो एक बार हमारे कान में बात डाल देते. हम बाहर ढूँढते ही क्यों. अब क्या हुआ? तू यहाँ बिना बताए आया, दो.. तीन दिन के लिए आया था. क्या करने आया था. क्या किया. कुछ खबर नहीं, पर स्वाति ने, जो कि इतने समय से जवाब नहीं दे रही थी, तुम्हारे लौटने के बाद अब खुद अपने ही से जवाब दिया  -- वह भी हाँ में. तू क्या करके गया?

आदतन सोनू को  सच  बताना पड़ा. कि मौसी आप गलत विचार मन से निकाल दें. ऐसी वैसी कोई बात नहीं है. स्वाति नहीं चाहती कि हम उसकी शादी से बिछुड़ें. आपको पता है हमारे आपसी वात्सल्य का. इसीलिए वह चाहती थी कि उसका वर मात्र आपका ही नहीं, मेरे पसंद का भी हो और वह मुझसे जानना चाहती थी कि लड़का उसके लिए सही रहेगा या नहीं. मौसी का सोनू पर बहुत विश्वास और लगाव था. सोनू की बातों से उनकी आँखें भर आईं।

तब उनको लगा कि इनमें कितना गूढ़ आत्मीय संबंध है. शायद सब चाहते थे,  मौसी भी कि सोनू  स्वाति से ब्याह रचा ले. लेकिन उनके रिश्ते तो वैसे नहीं थे, वे उससे कहीं ऊपरी सतह की सोच पर थे.

हाँ बहुतों को ऐसा शक था लेकिन उन्होंने बहुत परिपक्वता दिखाई और सच बात बता दी सबको...

अब उस परिवार में सोनू की साख बहुत बढ़ गयी है. आज भी यदि उस परिवार में  कुछ भी तकलीफ हो, तो सोनू की राय ली जाती है. 
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हार का उपहार

 

     हार का उपहार

बरसों परवानों को, दीपक की
लौ में जलते देखा है,
शमा के चारों ओर पड़े
वे ढेर पतंगे देखा है.

कालेज में गोरी छोरी को
घेरे छोरों को देखा है,
खुद नारी नर की ओर खिंचे,
ऐसा कब किसने देखा है.

उसने क्या देखा, क्या जाने,
किसकी उम्मीद जताती है,
कहीं, ढ़ोल के भीतर पोल न हो,
यह सोच न क्यों घबराती है.

वह करती रहती नादानी,
आदर सम्मान जताती है,
इन सबसे भी खुश ही तो है
फिर मंद-मंद मुस्काती है.

वह दिल के एक मुहल्ले में,
अपना घर द्वार बनाती है,
वह इन अंजानी गलियों में,
अपनी पहचान बनाती है.

क्या देखे अपनी चाह में,
क्या है उसकी निगाह में,
खुद शमा जलती रहे,
रात काली स्याह में.

ऐ खुदा तू ये बता,
हैं यहाँ क्या माजरा,
शमा पतंगे क्यों ढूंढे
है तेरा ही बस आसरा.

एक ऐसा रिश्ता, जिसको वे
नाम नहीं देना चाहें,
इक दूजे को किए याद बिना
कुछ पल भी ना रह पाएँ.

एक ऐसा रिश्ता,
जिसमें प्यार हो,
ममत्व हो,
कच्चे धागों बंधन हो,
कोई भाभी हो, ना मासी हो,
कोई देवर ना, कोई साली हो,
बँधकर रिश्तों की मर्यादा में,
कोई शहजादा, ना शहजादी हो,
पर हर पल की खुशहाली हो,

वह रिश्ता जिसमें प्यार का हर
पाक-स्वरूप मिला जाए.
जो किसी भी जाने अनजाने
रिश्तों के हद में न रह जाए,

न किसी नाम में बँध पाए,
ना किसी नाम से बँध पाए,
अच्छा ही हो गर इसको,
कोई नाम नहीं जो दे पाएं.

कोशिश हो नाम दिलाने की,
गर दे पाए तो हार ही है.
इस जीत में उनकी हार सही,
इस हार में एक उपहार तो है.
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