मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 12 दिसंबर 2015

स(विष)मताएं.

(विष)मताएं.
(http://www.hindikunj.com/2015/12/oddities.html)

सन 1990 के दशक में ही दिल्ली के आई टी ओ पर सिग्नल लाल होने पर रुक रहने के बाद, उसके हरा होने पर आँखें लाल हो जाती थीं. उस समय एल एन जी वाली गाड़ियाँ दिल्ली में आई नहीं थीं. एल एन जी के आने पर इसमें सुधार हुआ और हर तरफ से एल एन जी का गुण गान शुरु हो गया. मुझे लगा कि दिल्ली की हवा पहले से बेहतर श्वसन योग्य हो गई है. बाद में एकाध बार जब वहाँ जाना भी हुआ तो ज्यादातर समय नोएड़ा में ही बीता.  इस दौरान वायु में विषता कम महसूस हुई. अब जब हायतौबा मच रही है. तब लोग परेशान हो गए हैं और तो और कोर्ट ने भी इस पर टिप्पणी दी है. हो सकता है कि इस बीच गाड़ियों की संख्या बहुपत बढ़ गई हो या फिर गड़ियों के पोल्यूशन चेक वाले वैसे ही सर्टिफिकेट बाँट रहे हों.

अब लगता है अरविंद सरकार में कुछ हलचल मची है. आकस्मिक सभा के उपराँत उसने सम – विषम योजना का प्रस्ताव दिया. पहले तो कहा एक जनवरी सो लागू होगा. फिर बोले यह तो केवल एक प्रयोग है यदि इससे दिल्ली वासियों को तकलीफ होती है तो वापस ले लिया जाएगा. 

मुझे लगता है कि अरविंद की दिशा ठीक है. अब तो हर घर में दो या ज्यादा चौपहिया हो गए हैं. दुपहियों की गिनती ख्तम हो चुकी है. दो कीक्या कहं तीन कहीं चार भी हैं. हो सकता है कि कुछ के पास सम – विषम दोनों नंबर की गाड़ियाँ हों. यदि नहीं होगे तो वे गाड़ियों का अदला बदली कर सकते हैं – आपस में. या फिर (यदि जरूरी हो तो एक गाड़ी बेचकर) दूसरी सम या विषम जैसे जरूरी हो खरीद सकते हैं. जिनके पास केवल एक ही गाड़ी है और दूसरे की सोच रहे थे वे अब जल्द निर्णय लेंगे किंतु शर्त होगी कि नई गाड़ी का नंबर पुराने से अलग हो यानि सम - विषम सापेक्ष में.

इस तरह से चौपहियों वाहनों की बिक्री भी बढ़ेगी. गाड़ियों का धंधा बढ़ेगा. सरकार को टेक्स के रूप में आमदनी होगी.

दूसरा यह कि जब सम संख्या की गाड़ियाँ चलेंगी तो विषम संख्या वाले गाड़ियों के मालिक सम संख्या वाले कारों में समाने की कोशिश करेंगे. जिससे पूलिँग विधा का पुनःप्रतिपादन होगा. सरकार अपने बात पर टिकी रह सके तो निश्चय ही पूलिंग बढ़ेगी. हो सकता है कि पूलिंग के दौरान गाड़ियाँ कुछ ज्यादा कि.मी. चलें, किंतु पहले से कम ही रहेंगी. गाड़ियों की मरम्मत व सर्विसिंग के लिए समय मिल जाया करेगा जिससे उनके रखरखाव में बेहतरी हो सकती है. स्वाबाविक है कि इससे ईंधन की खपत कमेगी और सवारियों को बेहतर सुविधा प्राप्त होगी. लोग जल्दबाजी में ज्यादा पैसे देकर करवाने वाले काम अब आसानी से हो जाया करेंगे. बल्कि वह पैसा टोक्सियों पर खर्चने में उन्हें आनंद मिलेगा.

तीसरा जिन्हें सम – विषमताओं के कारण कार निकालनी नहीं है और जिन्हें पूल भी रास नहीं आ रहा हो तो वे टेक्सियों में या फिर बसों में सफर करेंगे. जिससे इनका भी धंधा बढ़ेगा.

सरकार को चाहिए कि इसके साथ साथ पोल्यूशन कंट्रोल की चेकिंग पर भी ध्यान दे. सरप्राईज चेक करने पर पाए हद के बाहर जाने वाले वाहनों पर भारी भरकम जुर्माना लगाया जाए ताकि कोई ऐसा करने की हिम्मत न कर सके. यदि चेक का सर्टिफिकेट 15 दिनों या एक महीने के अंदर का हो तो चेकिंग एजेंसी को एक चेतावनी देकर दूसरे बार उसका लाईसेंस ही रद्द कर दिया जाए. ऐसे में गाड़ियाँ सही मायने मे पोल्यूशन चेक कराकर ही सड़क पर निकलेंगी. अब तो चेक कराने के लिए समय ही समय होगा. ईंधन भरते समय भी पोल्यूशन चेक की सुविधा दी जाए और वहीं निरीक्षकों द्वारा औचक चेकिंग की जाए.

इस संबंध में यह भी उचित होगा कि डीजल गाड़ियों पर भी कड़ी पाबंदी की जाए. दिल्ली का प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए जरूरी होगा कि यह सब नियंत्रण नेशनस केपिटल रीजियन पर लगाए जाएं न कि सिर्फ दिल्ली पर. अन्यथा पास पड़ोस के शहरों- इलाकों से प्रदूषण दिल्ली का तरफ आएगा. जितना ज्यादा इलाका नियंत्रित रहेगा... मध्य तक उतना ही कम प्रदूषण पहुँच पाएगा. दस या पं0रह साल पुरानी गाड़ी से कोई फर्क नहीं पड़ता बशर्ते कि उसका प्रदूषण नियंत्रण सही रहे. लेकिन समस्या तो यह है कि प्रदूषण नियंत्रण के सर्टिफिकेट तो ऐसे ही मिल जाया करते हैंय. उन पर कठोर नियंत्रण पर ही प्रदूषण पर सरही नियंत्रण पाया जा सकेगा. इन सबसे प्रमुख यह कि दिल्ली में दिल्ली के प्रदूषण नियंत्रक चेकिंग वालों के स्टिकर ही मंजूर किए जाएं. 

सरकार ने मात्र महिलाओं की गाड़ियों पर इस कानून को लागू नहीं करने का इरादा किया है. शायद यह लिंग भेद के दायरे में आए. हाँ इकलौता महिला के लिए छूट देना, सामाजिक सुरत्रा के दायरे में ली जा सकती है. जहाँ हम लिंग भेद को समाप्त कर बराबरी की बात करते हैं वहाँ इस तरह की विशिष्टता शोभनीय नहीं है.  

बस एक बात गले नहीं उतरी कि यह समता – विषमता सरकारी गाड़ियों के लिए क्यों मान्य नहीं है ? मुझे तो यही एक दोष नजर आता है. क्या सरकारी लोग जनता की तरह इस इंतजाम के बाद अपना पूरा कार्य़ कर पाने में सक्षम नहीं हैं ? उनसे भी इस प्रकार की माँग क्यों नहीं की जाती ? जब जनता से उम्मीद की जाती है कि इन सब बंधनों के बाद भी वे अपने कार्यालय समय से पहुँचें, आवश्यकतानुसार कार्य करें तो सरकारी लोग ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? उन्हें अतिरिक्त सुविधा की जरूरत क्यों आन पड़ी? ऐसे ही कारणों से सरकारी कर्मचारी निकम्मे होने का स्टाम्प पा जाते हैं. क्या अरविंद भी अपनी सरकार के लोगों को ऐसा ही समझते हैं. यदि हाँ तो उन्हें अपने प्रशासन में रही कमी को भी दूर करना होगा.

मैं तो चाहूंगा कि अरविंद सरकार अपने निर्णय पर बनी रहे और कार पूल की परंपरा को उजागर करे. कारों के बिक्री का धंधा बढ़ाए. लोगों को टेक्सी व बसों में जाने के लिए प्रेरित करे. कठिन तो है किंतु इससे पर्यावरण में बहुत कुछ सुधार होने की सभावना है. वैसे भी दो एक दिन में तो असर नहीं दिखेगा, कम से कम एक साल तो ऐसा चलाना ही होगा ताकि असर का आकलन किया जा सके.
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एम.आर.अयंगर.
7462021340.
वेकटापुरम, सिकंदराबाद
तेलंगाना, 500015
laxmirangam@gmail.com

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

राष्ट्र गान का आदर

राष्ट्र गान का आदर

हाल ही में एक खबर पढ़ने को मिली – बेंगलूरु में एक सिनेमा हॉल में चार लोगों को अन्य दर्शकों ने हॉल के बाहर खदेड़ दिया क्योंकि वे चारों राष्ट्र - गान बजने के समय खड़े नहीं हुए. बात तो साफ है कि राष्ट्र - गान का हर भारतीय को आदर करना चाहिए. उसका आदर न करना देश से प्रेम न दर्शाने के समतुल्य है.


बाद में तहकीकात पर बताया गया कि उनमें से एक व्यक्ति के घुटनों में तकलीफ थी. माना कि उनकी बात में सचाई है फिर भी वह व्यक्ति तो सिनेमा हॉल के भीतर तक तो बैठे - बैठे नहीं आया होगा. बाकी तीनों के पास क्या जवाब था 
? इसके बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं है.

राष्ट्रीय गान केवल 52 सेकंड का होता है, एक मिनट से भी कम का. जो व्यक्ति पार्किंग से सिनेमा हॉल की सीट तक चल कर आ सकता है वह एक मिनट से भी कम के राष्ट्रीय गान के लिए खड़ा नहीं हो सका, अजब बात है. चलो हालातों के दायरे में यदि उसे बख्शा भी गया तो बाकी तीनों क्यों नहीं खड़े हुए? यह एक भारी भरकम सवाल है.

मुझे याद आ रहा है कि पहले भी कम से कम एक बार तो यह मुद्दा उठा था. तब भी सिनेमा हॉल में ही राष्ट्रीय गान के निरादर की बात थी. उन दिनों सिनेमा के अंत में राष्ट्रीय गान बजाया जाता था. बाहर निकलने की बागमबाग वाली भीड़ में परेशानी तो थी ही. जवान छोकरे उस भीड़ में युवतियों के साथ बदतमीजी भी करते थे. इस भीड़ की तकलीफसे बचने के लिए, खास कर जो लोग इसे दूसरी या ज्यादा बार देख रहे हों, सिनेमा खत्म होते ही या कुछ लोग सिनेमा खत्म होने के पहले ही उठ कर चलने लगते थे कि भीड़ में फंसने से बच जाएं, और उसी समय में राष्ट्र गान बजने लगता था. लोग भीड़ से बचने के लिए सीधे गेट की तरफ चले जाते थे. जब कुछ सहृदयों ने इस पर सवाल उठाया तो सिनेमा हॉल में राष्ट्र गान बजाना बंद कर दिया गया. न जाने कब फिर यह शुरु हो गया और फिर वही हालात उभरने लगे. बस फर्क इतना है कि पहले राष्ट्र गान सिनेमा के बाद बजता था, अब पहले बज रहा है.

राष्ट्र गान चाहे कभी भारतीयों को और भारत में रह रहे विदेशी या पर्यटकों को, खड़े होकर उसका आदर करना ही चाहिए. आजकल तो स्कूलों में भी सुबह सुबह राष्ट्र गान गाया जाता है. हर गली मोहल्ले में स्कूल खुल गए हैं. रिहाईशी इलाकों में भी लोग घरों में स्कूल खोल चुके हैं. इससे घर के हर कोने में राष्ट्र गान सुनाई देता है. यह एक मुसीबत की जड़ सी हो गई है. घर में आदमी कहीं भी हो उसे खड़ा तो होना चाहिए, किंतु घरों में ऐसे कोने भी होते हैं जहाँ बैठा हुआ आदमी खड़ा हो नहीं सकता. उसकी मजबूरी दोनों तरफ हो जाती है. यह राष्ट्र गान की बेइज्जती नहीं बल्कि गलत तरीके सा राष्ट्र गान बजाने के दायरे में आना चाहिए.

अधिकारियों को चाहिए कि इस तरफ भी ध्यान दें और राष्ट्रगान को गलत तरीके से बजाने पर कुछ पाबंदियों का प्रावधान किया जाना चाहिए. वैसे सिनेमा हॉल में भी लोग मौज – मस्ती की मानसिकता से आते हैं. इसलिए मेरी राय होगी कि सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजाने पर पाबंदी लगा दी जाए. लेकिन जब तक यह पाबंदी नहीं होती और राष्ट्रगान बजाया जाता है तो हरेक भारतीय को और यहाँ पर रह रहे या आए विदेशियों और पर्यटकों को हमारे राष्ट्रगान का आदर करना चाहिए. हमारे देश में तो राष्ट्रगान पर भी विवाद खड़े किए गए हैं लेकिन आज तक तो यह राष्ट्रगान है.

आज कल तो लोगों में फेशन सा चल पड़ा है कि कोई भी गाना, भजन, वैदिक श्लोक, यहाँ तक कि गायत्री मंत्र व महा मृत्युंजय मंत्र को भी चौपहिया वाहनों के रिवर्सिंग हॉर्न सा लगा लेते हैं. जय जगदीश हरे का भजन रिवर्सिंग हॉर्न के रूप में कितना गंदा लगता है. भगवान ना करे कि कोई इसी लय में कभी राष्ट्रगान का भी प्रयोग करे. यदि अधिकारी इस पर ध्यान न दें तो ऐसी गंभीर समस्या भी सामने आ सकती है.

मेरा विनम्र निवेदन होगा कि सरकार इस विषय पर गंभीरता से सोचे विचारे और राष्ट्रगान के अनादर व दुरुपयोग पर आवश्यक पाबंदी लगाए.
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एम आर अयंगर,
वेंकटसाई नगर, वेस्ट वेंकटापुरम
सिकंदराबाद 500015
मों 8462021340.

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

पत्रकारिता - किस ओर

आज की पत्रकारिता पिछले पचास सालों में न जाने कितनी बदल गई है कि आपस में तुलना करना ही मुश्किल सा हो गया है.

उस जमाने में पत्रकारिता का पहला काम था देश, विदेश व प्रदेश की खबरों को निष्पक्ष भाव से आम जनता तक पहुँचाना. उनका किसी राजनैतिक दल से या किसी औद्योगिक अनुष्ठान से कोई नाता नहीं होता था. हो सकता है कि किसी औद्योगिक संस्थान के पास उस समाचार पत्र का मालिकाना हक रहा होगा, किंतु इसका कोई भी असर खबरों के खुलासे पर नहीं होता था.

समाचार पत्रों में होड़ लगी होती थी कि कौन सबसे पहले जनता तक खबर पहुँचाएगा और किसकी खबर कितनी सही होती थी. इसीलिए सारे खबरनवीस अपने - अपने खबरचियों को भेजकर सही खबर जुटाने का प्रयास करते थे. भाषा इतनी सुंदर होती थी कि पढ़ने का मन करता था. बहुतों के लिए तो यह भाषा सीखने का माध्यम भी होता था. मैंने अखबार में फिल्मी कलाकारों के नाम पढ़-पढ़ कर बंगाली सीखी है. गुजरात में स्थानाँतरण पर ऐसे ही गुजराती भी सीखी. किंतु क्या अब वैसा संभव है?

भाषा की शुद्दता की तो बात ही गजब थी. दि हिंदू, टाईम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समेन, हिदुस्तान टाईम्स यहाँ तक कि हिंदी अखबार नव भारत, नवभारत टाईम्स, महाकौशल, से भी बच्चे भाषा सीखते थे. हर उम्र के लिए अखबार में कुछ न कुछ होता था. बच्चे बूढ़े स्त्रियाँ सभी अखबार पढ़ने को आतुर रहते थे. कई तरह की मनोरंजक कथाएं, बाल कविताएं,  पकाइए-खाईए और खिलाइए जैसे लेख, संपादकीय में उत्कृष्ट भाषा - अखबार के मुख्य आकर्षण होते थे. खबर तो अखबार का मुख्य मुद्दा ही था. 

घर - घर में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएँ आया करती थी. जिससे कि घरवाले फुरसत की घड़ियों में पढ़ सकें और सीखें. खास कर गर्मियों में बच्चों को धूप से दूर रखने का यह एक सही उपाय था. बच्चे गर्मी से बचते भी थे और साथ ही साथ सीखते भी थे. ज्ञान का ज्ञान और साथ में भाषा भी. अब बच्चों के पास भी कंप्यूटर गेम खेलने व सामाजिक पोर्टलों पर सर्फिंग करने के अलावा समय ही कहाँ है. वे जानते ही नहीं कि मैदान में कैसा खेला जाता है. वे देखना जानते हैं – वाडियो क्लिप पर.

जैसे पहले खबर हुआ करती थी  ट्रक के टक्कर से एक की मौत”. आज वही खबर अनियंत्रित ट्रक ने दलित को चपेट में लेकर कुचला लिखी जाएगी. यह है खास परिवर्तन. सामाजिक पहलू पर जोर देकर खबर को भड़काऊ बनाया जाएगा. जैसे बूढे को पीटा, स्त्री पर ताकत दिखाया, जाति की खबर देकर अत्याचार किया – सा लिका जाएगा. पहले खबर होती थी कि भारत ने पाकिस्तान को 8 विकेट से करारी शिकस्त दी. अब  लिखा जाता है भारतीय वीरों ने पाकिस्तान को कुचल डाला या रौंदा.

भाषा में विशेष तौर पर भड़काऊ अंदाज आ गया है. खबर होगी ट्रेन पटरी से उतरी और झोपड़ी में घुसी. यदि पटरी के बगल में झोपड़ी बना ली गई हो, तो की क्या करे. कोई सरकार की तो सुनता नहीं है और वैसे भी जबरन जगह घेरने की परंपरा हमारे देश में बहुत ही प्रचलित है. कुछ सालों बाद नेता लोगों की सहायता से इन्हें नियमित करा दिया जाता है.
आज पत्रकारिता में भाषा के स्तर की बात करना ही बेमानी है. इससे भाषा सीखी तो नहीं जा सकती, हाँ सीखी सिखाई भाषा को यह खराब जरूर कर देगी. हर जगह भड़काऊ वक्तव्य मिलेंगे. वैसे हमारे नेता भी भड़काऊ वक्तव्य देने लगे हैं. जिनके मुँह जो आए जिसे जो भाए कहता रहता है. दूसरों पर वह किस प्रकार का असर करेगा, यह सोचना उनके लिए जरूरी नहीं है. वैसे ही पत्रकारिता में प्रयुक्त भाषा का जनमानस पर क्या प्रभाव होगा, इसकी चिंता करने की किसी को जरूरत महसूस ही नहीं होती.    

हमारी टीम एक मैच जीत लेती है तो भारतीय खिलाड़ियों के बारे सातवें आसमान से बातें करते हैं. तारीफों के ऐसे पुल बाँधते हैं कि पढ़ने वाले को भी शर्म आ जाए. लेकिन यदि वो अगला मैच हार जाती है तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश समझे जाने वाले, वे ही हफ्ते भर में नकारा हो जाते हैं. उनके बारे में भद्दी-भद्दी टिप्पणियाँ शुरु हो जाती हैं. या तो हम सर पर बिठाएंगे या कदमों तले रौंद देंगे. गले लगाने वाली परंपरा तो कभी की खत्म कर दी गई है.

हाल ही के एक दास्ताँ में एक कलाकार के वक्तव्य पर पत्रकारिता ने इतना बवाल मचाया कि ऐसा लगा - मानो देश के टुकड़े ही कर दिए गए. उसने अपनी राय दी और कुछ ने उसका विरोध किया. उन सब वक्तव्यों पर नमक मिर्च छिड़क कर पत्रकारों ने उसे अपने समाचार पत्रों की बिक्री का जरिया बना डाला. चेनलों का टीआर बढ़ाने का जरिया बना डाला. सही है कि पत्रकारिता में भी अब व्यापार आ गया है, लेकिन इस हद तक कि मानवीयता को भूल जाया जाए?

कल जब परदेश में देश के प्रधानमंत्री कह आए कि कल तक भारतीयों को भारतभूमि पर जन्म लेने की बात पर शर्म आती थी – तब तो समाचार पत्र ऐसा बवाल नहीं मचा पाए... शायद इसलिए कि प्रधानमंत्री के पास बहुत अधिकार होते हैं और वे चाहें तो मिनटों में क्या चुटकियों में समाचार पत्र का खात्मा तक कर सकते हैं. और हाँ आजकल हर समाचार पत्र किसी न किसी औद्योगिक घराने से ताल्लुक रखता है और इसी कारण उसे पत्रकारिता में भी घराने के व्यापारिक लाभ – हानियों का भी ध्यान रखना पड़ता है. एक ही खबर को अलग - अलग समाचार पत्र और टी वी चेनल अलग - अलग ढंग से दिखाने का भी यही कारण है.
एक जमाना था जब पत्रकारिता को समाज का आईना कहा जाता था. उसी दौर में सिनेमा को भी समाज का दर्पण कहते थे. लेकिन अब न तो पत्रकारिता वैसी रह गई है और न ही सिनेमा. दोनों पूरी तरह व्यापारिक संगठन हो गए हैं. पैसा कमाना ही एक मात्र ध्येय रह गया है दोनों का.

ये सामाजिक पोर्टल सबके लिए उपलब्ध हैं. जिसे जो चाहे लिख सकता है. समाज के सदस्य ही उस पर अपनी टिप्पणियाँ करते हैं और आपस में बाँटते रहते हैं. जब इतने से नहीं होता तो समाचार पत्र इन सामाजिक पोर्टलों के खींचा-तानी को अखबार में छापते हैं ताकि जन मानस में नमक मिर्च लगाकर अपना अखबार बेचा जा सके. शायद उनके पास कोई विशेष समाचार नहीं होता इसीलिए वे नाहक खबरों से पत्र को भर लते हैं. जिनके पास सामाजिक पोर्टल की पहुँच नहीं भी हैं उनको भी इस कीचड़ में घसीटा जाता है, इन खबरनवीसों द्वारा. खास कर जिन वक्तव्यों में भड़काऊ मसाला है, उसमें में तो इनकी चाँदी - चाँदी हो जाती है.
आज आप एक प्रतिष्ठित अखबार उठाइए. मुख्य खबरों पर नजर डालने में आपको दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा. अब आएँ आपके पसंदीदा खबरों पर - उनको पढ़कर अखबार परे करने में आपको शायद पाँच से दस मिनट लग जाएंगे. रही बात संपादकीय की तो वह खाली वक्त में ही पढ़ा जा सकता है. जब भी पढ़ना शुरु करेंगे - या तो आप उसे दो लाईन पढ़कर छोड़ दोगे या फिर पाँच मिनट में पढ़लोगे. इस तरह एक प्रतिष्ठित अखबार ज्यादा से ज्यादा आपका एक घंटा साथ दे सकता है. यही अखबार पिछले दशकों में पूरे दिन पढ़े जाते थे. सुबह खास खबरें देखी और जरूरी एक दो खबर पूरी पढ़ ली. पंद्रह मिनट लगाए और दफ्तर की तैयारी में जुट गए. शाम लौटकर थकान पूरी की, कोई बाजार का काम हो तो किया या फिर किसी के घर बैठने जाना है तो हो आए और फिर घुस गए अखबार में. अब अखबार पूरी तरह पढ़ा जाता था. रात होते – होते समाचार तो पूरे पढ़ लिए जाते थे, किंतु संपादकीय रह जाता था, जो अक्सर छुट्टी के दिनों मे या रविवार को पढ़ा जाता था. रविवार को सारे सप्ताह के अखबारों में छपे नए शब्दों के अर्थ शब्दकोश से खोजकर रख लिए जाते थे. इसी तरह भाषा ज्ञान में उन्नति होती थी.
एम.आर. अयंगर.
8462021340
वेंकटापुरम, सिकंदराबाद,
तेलंगाना -500015
Laxmirangam@gmail.com


शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

Rangraj: SWACHH BHARAT

Rangraj: SWACHH BHARAT: SWACHH BHARAT During my service period about 15 years back I have constructed a house in a remote locality with my house being the las...

सोमवार, 9 नवंबर 2015

सफर में सफर

सफर में सफर

इस बीच एक बार भुवनेश्वर जाना तय हुआ. चाँपा स्टेशन से एलटीटी – भुवनेश्वर एक्सप्रेस में एसी ।। की टिकट मिली. रात सवा नौ बजे छूटती है – चाँपा से. मैं पौने नौ बजे चाँपा स्येशन पहुँच गया. गाड़ी करीब 2120 बजे आई. बहुत लंबी थी और एसी के बोगी आखिरी में लगे थे. बी 4-3-2-1 और फिर एसी ।।. गाड़ी केवल दो मिनट रुकती थी चाँपा में. बोगी तक जाते - जाते तक ही गाड़ी रुक चुकी थी. बोगी के पहले दरवाजे पर कोई नहीं था. वह अंदर से बंद था. दूसरे दरवाजे पर गया तो देखा लोग सामान धरकर दरवाजे के साथ मजे में बैठे हैं और किसी को दरवाजा खोलने की सुध भी नहीं हो रही है. जब ज्यादा खड़काया तो इशारे से कहा – सामान है नहीं खुल सकता. मैं परेशान और तनावग्रस्त हो गया.

अंततः हार कर पास की बोगी में चढ़ गया कि भीतर ही भीतर निकल जाएंगे. पर हाय री किस्मत – वह जनरल बोगी निकला. बीच का रास्ता बंद था. मेरे चढ़ते ही गाड़ी चल पड़ी.

मैं सोच में पड़ गया कि अब क्या किया जाए. अगला स्टॉप एक घंटे के बाद रायगढ़ था और वहाँ भी गाड़ी दो मिनट ही रुकनी थी. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. एक विचार यह भी आ रहा था कि यदि रायगढ़ में दरवाजा नहीं खुल सका, तो आगे सफर ही न किया जाए और किसी अगली लौटती ट्रेन से वापस हो लिया जाए. पर कोशिश तो करनी ही थी.

सोचते - सोचते विचार आया कि आज कल रेलवे ने कई नए नंबर निकाले हैं यात्रियों की सुविधा के लिए. क्यों न उन्हें आजमाया जाए. साथ ही याद आया - टी वी में दिखाया जाने वाला वह विज्ञापन - जिसमें एक लड़की खिड़की के पास बैठी है और कुछ लोग चढ़कर उन्हीं बर्थों पर बैठ जाते हैं. गाड़ी चलने पर शराब की बोतल खोलकर सेवन करने लगते हैं. तभी एक और महिला बोगी मे चढ़ते ही यह देखती हैं और आभास करती है कि लड़की सहमी - सहमी सी बैठी है. वह तुरंत बोगी के अंत में जाकर, वहां के विज्ञापनों में देखकर एक नंबर डायल करती है और थोड़ी ही देर में पुलिस आकर उन शराबखोरों को दबोच लेती है. साथ ही एक संदेश भी देती है. इसके साथ ही मैंने बोगी की दीवारों पर नजर फेरा. वहां ऐसा कोई भी विज्ञापन नहीं था. मुझे लगा कि ऐसे विज्ञापन तो जनरल  बोगी में ज्यादा होने चाहिए. फिर सोचा टिकट पर बहुत कुछ लिखा होता है शायद इस बारे में भी कुछ लिखा होगा. किंतु हाय मेरी तकदीर – मेरे पास टिकट का मोबाईल मेसेज था. परेशानियाँ तो बढ़ती ही जा रही थीं.

थोड़ी देर में खयाल आया कि वापसी की टिकट तो कागजी है शायद उस पर कुछ हो. गाड़ी की मद्धिम रोशनी में बड़ी मुश्किल से टिकट पढ़ पाया. उसमें कुछ नंबर दिए थे. एक - एक कर के मैंने सारे नंबरों (139 व 138 भी उसमें थे) पर फोन लगाया. बहुत कोशिश पर लगा तो किंतु किसी नें उठाया ही नहीं, अंत में आखरी में लिखा नंबर 182 लगाया, जो यात्रियों के साथ आई असामान्य परिस्थितियों के निवारण के लिए था. मेरा अहोभाग्य किसी ने फोन उठाकर अपना परिचय दिया. मैं दिमाग को ठंडा रखकर उसे हालात से अवगत कराया. उसने तो पहले मेरा नाम पता पूछा. फिर गाड़ी संख्या व नाम पूछा.  फिर मेरे टिकट के बारे में जानकारी ली. मैंने अपनी परेशानी बताई कि एक घंटे बाद गाड़ी रायगढ़ में दो मिनट के लिए रुकेगी और यदि बोगी का दरवाजा नहीं खुला तो मुझे रात भर एसी ।। के टिकट के साथ जनरल बोगी में सफर करना पड़ जाएगा. उनने आश्वासन दिया कि मैं परेशान न होऊँ और वह रेलवे पुलिस फोर्स (आरपी एफ) और कमर्शियल विभागों से बात करके इसका कोई रास्ता निकालेंगे. मुझे थोड़ी बहुत साँत्वना तो हुई लेकिन पहली बार से हालातों में फँसने की वजह से कोई निश्चित भरोसा नहीं हो रहा था कि काम होगा या नहीं. समय तो गुजारना ही था.

एक घंटे के बाद ज्यों ही गाड़ी रायगढ़ में रुकी, मैं अपना ब्रीफकेस व पानी की बोतल के साथ उतरा. बगल के एसी ।। बोगी का दरवाजा खुला और टीटीई नीचे उतरते हुए मुझे देखकर पूछ पड़े ए - 1 – 10 ? मेरी हाँ सुनते ही वे कह पड़े – सर आपका बिस्तर लगवा दिया है, आप आराम कर लें. मैंने भीतर जाते - जाते ही कहा, भई पैसेंजर के जॉईन करने के लिए दरवाजे खुलवा भी नहीं सकते. मैं भीतर जाकर अपने बर्थ पर चढ़ गया. शायद अन्य यात्रियों को मेरे समय पर न आने की खबर नहीं थी. हो सकता है कि टी टी ई ने बर्थ इसीलिए किसी दूसरे को नहीं दिया कि फोन पर हाजिर व्यक्ति ने कहीं कोई खबर कर दी थी. मैं तो मन ही मन उनका शुक्रिया अदा कर रहा था. सुबह 7 बजे भुवनेश्वर में उतरना था.

सुबह अटेंडेंट आया और बिस्तर समेटते हुए चाय - पानी माँगने लगा. पहले तो मैं निश्चिंत था कि वह कम से कम मुझसे नहीं माँगेगा क्योंकि उसे रात की मेरी तकलीफों का पता होगा. लेकिन उसने दूसरी बार मेरी ओर मुखातिब होकर माँगा. अब बात साफ थी कि उसे मुझसे कुछ उम्मीद थी.  मेरा गुस्सा फिर उभरने लगा. मैंने उससे पूछा किस बात के लिए चाय - पानी भई – पेसेंजर के लिए दरवाजे भी खोलते नहीं हो. इस ट्रेन में एसी फर्स्ट क्लास तो है नहीं एसी ।। के लिए आपका यह रवैया है फिर औरों के साथ क्या होता होगा. वह बोल पड़ा सर वो तो टीटीई साहब कहीं चले गए थे. वह जानता नहीं था कि मेरे परिवार की तीन पीढ़ियाँ रेल्वे में काम कर रही हैं. आज भी मेरे सगे रेल्वे में हैं. उससे मैंने पूछा – टीटीई के पास तो तीन चार एसी बोगी होंगी टिकट चेक करने के लिए – मुझे रोककर उसने बोला - इसी लिए तो वे कहीं और रह गए थे. मैं आगे बढ़ा – लेकिन तुम एटेंडेंट लोगों के पास तो एक ही बोगी होती है – तुम दरवाजे पर क्यों नहीं थे. आप लोगों के पास पेसेंजर चार्ट भी होता है. यह तो सरासर अपनी ड्यूटी से भागना है. उसकी तसल्ली नहीं हुई – कहा मैंने ही आपका बिस्तर लगाया था. मुझे लगा कि चाय पानी के लिए वह मुझे अपने किए का एहसान जता रहा है. मैं रुक नहीं पाया बोला आपने बिस्तर इसलिए लगाया है कि मैं कहीं अपनी नाराजगी आप पर न दर्शाऊं. गलती तो आप लोगों ने की है और उस पर सेक्यूरिटी को फोन करने पर आपने दरवाजा खोला रायगढ़ में. वह सहम गया – क्या आपने सेक्यूरिटी को फोन कर दिया. सर हमारे तो 2000 रुपए कट जाएंगे. मैने फिर कहा ठीक ही तो है. जिस ड्यूटी की आपको तनख्वाह मिलती है वही जब नहीं करेंगे तो किस लिए तनख्वाह. केवल दो हजार ही तो कटेंगे (मैं जानता था कि रु.2000 तो नहीं हो सकता है कि रुपए200 कट जाएं.  कम से कम अगली बार ऐसा नहीं करोगे.

यह तो फिर भी सँभल गया कि मैं चल फिर रहा था. यदि मेरी पीठ और कमर का दर्द उभरा हुआ होता तो और मुश्किल हो जाती. यदि कोई मुझसे भी बुजुर्ग होता या कोई महिला बच्चों के साथ होती तो उनकी तो हालत खराब ही हो गई होती. बात का बतंगड़ बन चुका होता. और इधर मेरी की गई कोशिशों के बाद ही सही, नंबर लग गया और उधर से जनाब ने सही सहायता की. अन्यथा मैं भी रायगढ़ प्रतीक्षालय से ही लौट गया होता.

मैं रेलवे की दी गई नई सुविधा की सराहना करते - करते - करते भुवनेश्वर पहुँच गया. जहाँ मेरा पुराना साथी प्लेटफार्म पर ही इंतजार कर रहा था. उससे मिलने की खुशी में मैं रात के हिंदी सफर में मिले, अंग्रेजी सफर के एहसासको भूल चुका था.
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बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

उच्चारण


किसी भी भाषा को सीखने में उसके उच्चारण का बहुत ही ज्यादा महत्व होता है. 

सामान्यतः किसी भी भाषा को सीखने का पहला अध्याय, उस भाषा को बोलने वालों के 

साथ रहकर उनका उच्चारण सीखना होता है. माना आप इसके लिए विशेष प्रयास नहीं 

करते किंतु साथ रह रहकर आपका ध्यान तो उस ओर आकर्षित हो ही जाता है और 

धीरे धीरे आप गौर करने लगते हैं कि इसे ऐसा नहीं, ऐसा बोलना चाहिए. कुछेक बार 

तो साथी भी इसमें सहायक होते हैं. चाहे वो मजाक बनाकर बोलें, या अच्छे से 

समझाएं. पर ध्यान तो आकर्षित कर ही देते हैं कि यहाँ गलती हो रही है. सुधारना-

सुधरना आपका काम है यदि आप गौर करेंगे और फिर लोगों से सही गलत की 

जानकारी लेते रहेंगे, तो एक दिन जरूर सही हो जाएगा. इसमें चिढ़ने व गुस्सा करने 

का कोई कारण नही होना चाहिए. आप सीखना चाहते हैं. बिना किसी मूल्य के – यह 

असंभव है.  और पाना है तो हाथ नीचे ही रखना ही पड़ेगा. चाहे वह कोई वस्तु हो या 

फिर ज्ञान ही क्यों न हो.


बहुत बार तो ऐसा हो जाता है कि कई बार गौर करने के बाद भी, उच्चारण पकड़ में 

नहीं आती. उस वक्त हमें बेशर्म होकर उस व्यक्ति से पूछ ही लेना चाहिए कि इसे कैसे 

उच्चरित करते हो. सीखने में शर्म की तो सीख ही नहीं पाओगे.

किसी ने कहा भी है-

गीते नाद्ये तथा वृत्ते, संग्रामे रिपुसंकटे,
आहारे च व्यवहारे, त्यक्तलज्जा सुखी भवेत्.

सीखते वक्त आप गलती करेंगे, इसकी पूरी - पूरी संभावनाएँ हैं. इससे बचने की 

कोशिश एक हद तक ही की जा सकती है. बिना गलती किए कोई भी ज्ञान पाना 

नामुमकिन सा ही है. इसलिए गलती करने से परहेज ना करें बल्कि गलती करने पर 

संगी साथी से पूछें कि यह ठीक था कि नहीं . यदि नहीं तो जाने कि ठीक क्या था. 

आपको सीखने के लिए शर्म तो त्यागना ही पड़ेगा. शर्मागए तो सीखने से चूक जाएंगे.

इन चक्करों में कभी बहुत बड़ी - बड़ी गलतियाँ भी हो जाती हैं. लेकिन यदि अगला यह
समझता है कि व्यक्ति सीख रहा है तो बड़े - बड़े गलतियाँ भी आसानी से माफ कर दी 

जाती हैं.


गुजरात में एक कैंटीन के मालिक से मैं कहता था  – चा आपो भाई.  जिसका मतलब 

होता है चाय दो भाई. वह चुपचाप चाय लाकर देता था. हमारी जोड़ी ऐसे ही चलती रही. 

एक दिन जब मैंने ऐसे ही कहा तब एक गुजराती भाई ने समझाया. आप उसको ऐसा 

क्यों बोल रहे हैं. वह तो कैंटीन का मालिक है. मैंने पूछा कि इसमें क्या गलती है तब 

उनने बताया कि चा आपो का मतलब होता है चाय (लाकर) दो. आपको कहना चाहिए 

चा मोकलियावो, यानी चाय भेजो. मैंने अपनी भाषा में सुधार कर लिया. ऐसे ही भाषा 

सीखी जाती है. साथी अच्छे होंगे, हमउम्र होंगे, तो जल्दी सीख जाओगे और नहीं तो 

कुछ देर लग जाएगी लेकिन हिम्मत हार गए तो गए. कुछ भी सीख नहीँ पाओगे.


बच्चों की भाषा पर आएँ तो प्ले स्कूल, केजी, पहली से पाँचवीं तक के बच्चों को 

उच्चारण पर शिक्षकों को विशेष तौर पर ध्यान  देना चाहिए. दक्षिणी परिवार का बच्चा 

अपनी भाषा के कारण क, ग, च त ट तो उच्चरित कर लेगा लेकिन जहाँ ख, घ, छ, झ 

जैसे वर्ण आएँगे वह जोर नहीं लगा पाएगा. शिक्षकों को चाहिए कि इसी वय में उन्हें 

मेहनत कर करा कर सिखा देना चाहिए. अन्यथा बड़ी उम्र में सीखना बहुत ही 

तकलीफ दायक होता है और बहुत लोग तो सीख भी नही पाते. बिहार-बंगाल व यह पी 

के इलाकों में र व ड़ के उच्चरण आपस में बहुत ही बार टकराते हैं रबड़ जैसे शब्दों का 

उच्चरण तकलीफदायक होता है. यदि बचपन में ही ध्यान दिया जाए, तो हमेशा - 

हमेशा के लिए सिरदर्दी खत्म हो जाती है.


भाषा, पहनावा, बोली व खानपान का सीधा संबंध नजर आता है. उत्तर में ठंडे मौसम 

की वजह से हाजमा बहुत अच्छा होता है. वो मेहनत कर पाते हैं और फलस्वरूप शरीर 

सौष्ठव भी अच्छा होता है. गर्म खाद्य़ के आदि होते हैं. उनका तन गठीला होता है साथ 

साथ जुबान भी कम लचीली होती है. अर्द्धाक्षर  के उच्चारण में उनको तकलीफ होती है. 

इसी लिए शायद गुरुमुखी में अर्द्धाक्षर का प्रावधान ही नहीं है. इनके लिए दक्षिण की 

भाषाएं सीखना बहुत ही कठिन काम होगा.


मध्यभारत के लोगों को मौसम में ठंड उत्तर के बनिस्पत कम तथा गर्मी व बरसात 

ज्यादा होती है. इसलिए उनकी मेहनत करने की क्षमता उत्तरी लोगों से कम होती है. 

इन क्षेत्रों के लोग मेहनत करने से दक्षिण की भाषाएं सीख सकते हैं किंतु उनके लिए भी 

यह आसान नहीं होता. उत्तर की भाषाएं सीखना इनके लिए आसान होता है. इसका 

राज मात्र यही है कि इनके रहन सहन व खान पान की आदतों के कारण इनकी जुबान 

बनिस्पत उत्तरी लोगों के पतली और ज्यादा लचीली होती है. इस कारण यहा के लोगों 

के लिए उच्चारण पर ध्य़ान देना अत्यावश्यक है. अन्यथा ये प्राँतीय भाषाई उच्चारण 

करते रहते हैं और दूसरी भाषा के शब्दों का उच्चारण भी अपनी भाषा की तरह करते हैं. 

इसी कारण मराठी भाषी हिंदी में ह्रस्व व दीर्घ मात्राओं में गड़बड़ी करते देखे जा सकते 

हैं. यदि उच्चारण पर सही ध्यान देने वाले शिक्षक हों तो यहाँ के बच्चे कोई भी भाषा 

बड़ी अच्छी तरह से सीख सकते हैं.
एम.आर.अयंगर

दक्षिण के लोगों में पाचन शक्ति बाकियों की अपेक्षा कम होती है 

इसीलिए यहाँ जल्दी व कम मेहनत से पचने वाला खाना खाया 

जाता है. ज्यादा बार, किंतु हल्का खाया जाता है. खट्टा खाने की 

प्रवृत्ति होती है जिससे जुबान फड़फडाती है बारीक से बारीक फर्क 

की ध्वनियाँ भी वे आसानी से निकाल सकते हैं. केरल की भाषा 

मळयालम में ऐसे बहुत से शब्द मिलेंगे (कुछ तो तमिल में भी हैं किंतु मळयालम से 

कम) जिनका उच्चारण उत्तर भारत के लोग कर ही नहीं पाते हैं. यदि उच्चारण पर 

ध्यान दें, तो दक्षिण भारतीय जन को किसी भी भाषा में महारत हासिल हो सकती है. 

लेकिन दुविधा वहीं आकर होती है कि बचपन में उच्चारण पर खास ध्यान नहीं दिया 

जाता. दक्षिण भारतीय यदि किसी मध्यभारत या उत्तर भारत के शहर में पढ़े तो 

उसकी भाषा में प्रवीणता होती है. इसका कारण उसके उच्चरण की क्षमता है. यदि सही 

उच्चारण कर पाएँ तो लिखने में भी गलतियाँ होने की संभावना घट जाती है.



किसी भी शब्द का उच्चारण  उसमें सम्मिलित अक्षर व मात्राओं पर निर्भर करता है. 

यदि उच्चरण सही नहीं हुआ तो सुनकर लिखते वक्त गलत हिज्जे लिखे जाएंगे. आप 

गौर कीजिए -  काबिलियत, कवयित्री – शबदों को बहुत से लोग गलत लिखते होंगे.
महाराष्ट्रियों में लघु व दीर्घ मात्राओं में त्रुटि का मुख्य कारण यही है. वैसे ही दक्षिणी 

लोगों में कठोर व्यंजनों में गलती करने का कारण भी उच्चारण ही है. साथ ही 

पंजाबियों का धर्मेंद्र को धरमिंदर कहने का कारण भी यही उच्चारण है.



हिंदी में इसके अलावा भी गलतियाँ होती हैं जैसे लिंग, वचन इत्यादि के किंतु उनका 

उच्चरण से कोई सीधा संबंध नहीं है. उसके लिए उन्हें लिग का बोध होना चाहिए. वैसे 

हिंदी में लिंग बोध भी अपने आप मेँ एक जटिल विषय है. 


यह समय शिक्षक दिवस व हिंदी पखवाड़े के बीच का है. मौके का फयदा लेते हुए, 

गुरुओं को नमन करते हुए खासकर भाषा के शिक्षकों से अनुरोध करता हूँ कि छोटी 

कक्षाओं के विद्यार्थियों के उच्चारण पर विशेष ध्यान दें. इससे उनकी भाषा सुधरेगी 

और यह उनके जिंदगी भर का साथ होगी. आपका यह छोटा धैर्य और त्याग किसी 

विद्यार्थी को जीवन भर के लिए एक सशक्त भाषा दे सकेगा.



इस लेख में मैंने हिंदी के बारे मेंही जिक्र किया है लेकिन उच्चरण संबंधी सारी बातें 

करीब करीब सभी भाषाओं पर लागू होती हैं.

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शनिवार, 26 सितंबर 2015

हार्दिकी..


हार्दिकी...


आज गुजरात में जो हो रहा है, इसकी कल्पना कम से कम मुझे तो बरसों पहले थी. हमारे 

देश में आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिसके खिलाफ उठी आवाज को दबाना बहुत ही आसान है. 

इसके लिए जनता को एक हद तक दुखी होना जरूरी था और मरता क्या न करता – की हालत  
में आकर यह कदम उठाया जाना था. मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि यह कदम इस माहौल 

में इस राजनीतिक तरीके से उठाया जाएगा. इस अनशन में भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जा रही  
हैं. हाँ इतना जरूर कहूँगा कि मुद्दा उछला यही एक बड़ी बात है. सिंह जी ने तो मंडल कमीशन 

की रिपोर्ट अपनाकर सामान्यों की तो कमर तोड़ ही दी. आरक्षण जिसने भी सोचा – उसने 

ऐसा तो नहीं ही सोचा था. चाहे आप गाँधी का नाम लें चाहे अंबेडकर का.दोनों ही दूरदृष्टा थे. 

उनमें दलितों या कहें निस्सहायों को ऊपर उठाने की मंशा या कहें लालसा थी, लेकिन देश की 

कीमत पर नहीं. निस्सहायों की सहायता करना और उनको मुख्य धारओं में लाना उनका 

उद्देश्य रहा. लेकिन जिस तरह से इसे हमारे राजनेताओं ने अपनाया वह बड़ा ही दर्दनाक व 

भयंकर हुआ.उस वक्त के हालातों में अनुसूचित जातियाँ व अनुसूचित जनजातियाँ बहुत ही 

गंभीर  समस्या को झेल रही थीं यह कहना गलत नहीं होगा कि उनमें से एकाध ही समाज 

की मुख्य धारा में रहा होगा. इसलिए आरक्षण का कोई भी आधार होता  तो वे सब उसमें 

शामिल हो ही जाते. यदि निर्धारण की अवधारणा सही होती तो उनके साथ दूसरी जाति के वे 

लोग, जो अनुसूचित जाति / जनजातियों की तरह ही निरीह थे, वे भी शायद फेहरिस्त में आ 

जाते. आज राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री साँसद विधायकों जैसे संपन्न व बड़े - बड़े ओहदा 

रखने वालों के परिवारों के अलावा देश के जाने माने व्यवसाई  व धनिक लोगों के परिवार को 

आरक्षण की सुविधा केवल इसलिए है कि वे अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के हैं या 

अन्य पिछड़ी जातियों से हैं. एक सामान्य जन जिसके पास अवलंबन का सहारा नहीं है उसे 

आरक्षण केवल इसलिए नहीं मिलता कि वह जाति के आधार पर आरक्षण पाने योग्य नहीं है. 

यह तो विचारणीय गंभीर मामला है कि आरक्षण की अवधारणाएं कितनी सही और 

कितनी गलत हैं. जैसे कभी अंग्रेजी साप्ताहिक ब्लिट्ज़ लिखा करता था कि गरीबी हटाओं के 

नाम पर गरीब हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. उसी तर्ज पर जातियों के नाम अवधारणा 

बनाकर, यह सुनिश्चित किया गया कि वे पिछड़े ही रहें, इकट्ठे रहें और उन्हें पीढी दर पीढ़ी 

सुविधाएँ मिलती रहें. किंतु कोई भी जाति समूह से बिछड़े नहीं. यही एक मात्र कारण साफ 

झलकता है... वोट बैंक. और वह दूसरा कुलीन गरीब अवलंबन को तरसता मर गया, किंतु उसे 

आरक्षण की सुविधा नहीं ही मिली. क्या यह उसका दोष था कि वह अनुसूचित जाति

जनजाति परिवार का हिस्सा नहीं बन सका. क्या उसने चाहकर सांमान्य वर्ग की जाति में 

जन्म लिया था. फिर उस पर  दुर्भावना क्यों ? उस पर गाज क्यों गिरे?


चाहिए तो यह था कि किसी भी जरूरत मंद को सहायता दी जाती कि वह सभी के समकक्ष 

आ सके. किसी को पुस्तक चाहिए. किसी को ट्यूशन चाहिए. किसी को मकान चाहिए, किसी 

को गाँव से स्कूल तक आने जाने का साधन चाहिए.  और इन सबके लिए पहले पैसा चाहिए। 

केवल पैसे दे देने से आरक्षण की सुविधा का दुरुपयोग होता रहा और अंततः इसी काऱण वे
जातियाँ इतने वर्षों में भी उभर नहीं पाय़ी. ऐसी गलत आदतों को रोकने के लिए ही समय 

सीमा तय थी, लेकिन हमारे राजनेताओं ने अपनी बनाने के लिए उसमें पूरी खुली छूट ही दे 

रखी है.


कुछ लोग कहते हैं कि सामान्य वर्ग ने उन्हें उठने नहीं दिया. यह सरासर गलत है. जरा 

जानिए कि इस वर्ग के जितने लोग उठे हैं, उन्होंने अपने साथियों के लिए क्या किया? – 

सेवाभाव से. सच्चाई सामने आ जाएगी. यदि किसी ने किया है तो अपने रिश्तेदारों के लिए 

या फिर अपने वोट बैंक के लिए. सामान्य रूप से कहा ही जा सकता है कि किसी ने 

सर्वसाधारण समाज के लिए कुछ नहीं किया  यदि यह बात उन दिनों कही जाती जब 

आरक्षण शुरु हुआ था तो शायद मानी भी जाती, क्योंकि तब कुलीन लोगों का ऊँचे ओहदे पर 

जमाव था किंतु अब तो आरक्षित जाति वर्ग के बहुत से लोग अच्छे अच्छे संस्थानों में ऊँचे – 

ऊंचे और प्रमुख ओहदो पर विराजमान हैं – अब इस तरह के कथनों को मानना मुश्किल ही 

नहीं बेमानी होगी.


उस पर यह भी देखिए कि जो लोग सुधर सँवर गए हैं वे और उनकी बाद की पीढ़ियाँ आज 

भी आरक्षण का फायदा ले रहे हैं. किसलिए? अब उन्हें किस कारण से सहायता चाहिए. सर्व 

सुख संपन्न हैं. एओकड़ों में खेत हैं, कारखाने हैं. नेताजी हैं, घर में धन धान्य की ही नहीं – 

किसी तरह की कोई कमी नहीं है. बस आरक्षण इसलिए चाहिए कि हमें जातिगत आधार पर 

मिला है. छोड़े क्यों? मोदी जी गैस सब्सिड़ी छोड़ने के लिए बार बार सुझाव देते हैं इश्तिहार 

छपवाते हैं – वे इन्हें आरक्षण छोड़ने की विनती क्यों नहीं करते? वे साँसदों से संसद की 

अवाँछित सुविधाओं को छोड़ने की विनती क्यों नहीं करते? और देखना यह है कि यदि वे ऐसा 

करते भी हैं तो कितने लोग उनकी विनती स्वीकारते हैं?


पिछले वर्षों में जब मुझे डिपेंडेंट ऑफ डिफेंस परसोनल के आधार पर इंजिनीयरिंग में 

दाखिला मिला, तो पहले ही दिन (दाखिले के पहले) प्रिंसिपल ने बुलाया और कहा बेटे - आप 

तो अपने नंबरों के आधार पर वैसे ही सीट पा जाओगे, किंतु आप एक आरक्षित सीट रोक रहे 

हो. यदि सीट मिलना ही आपका आधार है, तो एक पत्र प्रिंसिपल के नाम लिख दो कि सीट 

मिलने की अवस्था में मैं डिपेंडेंट ऑफ डिफेंस परसोनल की तरफ से आरक्षण नहीं चाहूँगा. 

इससे एक आरक्षित बच्चे को सीट मिल जाएगी. मुझे यह बहुत अच्छा लगा और मैंने तुरंत 

मानकर वाँछित पत्र उनके हाथ में सौंप दिया. पता नहीं वह आरक्षित सीट किसको मिली, 

कौन था या थी वह – यह  मैंने जानने की भी जरूरत नहीं समझी. किंतु मैं निश्चित तौर पर 

कह सकता हूँ कि यदि वही आज हुआ होता तो सच मानिए, मैं पत्र देने से मना कर दिया 

होता. क्योंकि आज सामान्य वर्ग की वह हालत हो गई है, जो कभी अन्यों की थी. सामान्य 

वर्ग के लोग कालेजों  में सीट व नौकरियों के लिए तरस रहे हैं. दर-दर भटक रहे हैं. उनके 

अच्छे नंबरों से पास होने का कोई लाभ ही नहीं. उनको अच्छे नंबर केवल इसलिए लाने होते 

हैं कि यह उसकी मजबूरी है या दुर्भाग्य है क्योंकि उनने एक कुलीन परिवार में जन्म लिया 

है यह उसकी (?) गलती है और आज की यही विडंबना है. पर उन्हें सजा तो मिल ही रही है. 

मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूँ कि आज कुलीन समाज की वही हालत हो गई है, जो 

कभी अनुसूचित जाति – जनजाति के लोगों की हुआ करती थी. समाज के विभिन्न वर्गों को 

विशिष्ट स्थान, अधिकार  व सुविधाएं देते हुए हमने आज सामान्य वर्ग को कटघरे में खड़ा 

कर रखा है.


एक गरीब परिवार में जन्मा बच्चा या बच्ची को मुफ्त शिक्षा दी जाए. उसे पढ़ने के लिए 

कापी किताब दी जाएँ. स्कूल की यूनीफार्म व अन्य खर्चों के लिए छात्रवृत्ति या अन्य किसी 

नाम से कुछ पैसे दिए जाएं. किंतु साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि वह स्कूल में पढ़ने में 

नियमित तौर से आ रहा या रही है. जरूरत पड़े तो मुफ्त कोचिंग - ट्यूशन भी दिया जाए. 

ताकि वह अन्य सम्पन्न छात्र- छात्राओं के समकक्ष आ सकें. पैसा खुद मंजिल नहीं अपितु वह 

विभिन्न मंजिलों के लिए सुविधा है. 


यह सब छात्र विभिन्न कक्षा की सभी परीक्षाओं में सबके साथ भाग लें और निर्धारित 

योग्यताओं के अनुसार ही उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में जाए. इससे विद्यार्थियों में शिक्षा का 

स्तर बना रहेगा. आज के अखबारों सी खबरें नहीं छपेंगी - कि तीसरी कक्षा के छात्र अक्षर भी 

पहचान नहीं पाते. आठवीं के छात्र छोटे - छोटे गणित के सवाल हल नहीं कर पाते. और तो 

और हाल ही में उत्तरप्रदेश में हुए निरीक्षण की तरह कोई यह नहीं कहेगा (कहेगी) कि उत्तर 

प्रदेश का मुख्यमंत्री राहुल गाँधी है. ऐसी हास्यस्पद स्थितियों से बड़े आराम से बचा जा सकेगा.

आरक्षण प्रणाली का नाजायज फायदा उठाने से रोकने के लिए सुविधाओं की एक समय सीमा 

तय की जाए, जिससे लोग मुख्यधारा में जुड़ने के लिए आवश्यक मेहनत भी साथ - साथ 

करें. संविधान में आरक्षण की समय सीमा का भी आधार शायद यही रहा होगा.

क्या एक सामान्य वर्ग के बच्चे ने तय किया था कि उसे किस कुल, जाति, परिवार में जन्म लेना है? यदि नहीं तो परवरदिगार के किए की सजा उसको क्यों? कौन सा कोर्ट ऐसा निर्णय दे सकता है? यदि समाज में बराबरी लाना ही मौलिक उद्देश्य था या है तो आर्थिक तंगी वालों को सुविधाएं दी जाएं चाहे वो पटेल हों, गूजर हों, जाट हों या पाँडे. सब में मानव देखिए. जान देखिए, जात नहीं. अन्यथा झेलिए जो झेल रहे हैं. किसी दिन अन्य जातियाँ भी एक - एक करके यही काँड करेंगी, जो आज पटेल कर रहे हैं. कल गूजरों और जाटों ने किया था. यदि देश की हालत पर किसी को चिंता है तो योग्यता में कोई कटौती मत कीजिए. दीजिए सारी संभव सुविधाएं ताकि वे योग्य बन सकें. लेकिन कोई राजनीति से ऊपर उठकर निर्णय ले सके, तब ही यह संभव हो पाएगा.

बीच में कुछेक बार गुर्जरों ने भी आरक्षण का मुद्दा उठाया था, इसके तहत रेलें भी रोकी गईं 

थी. कुछ समय पहले ही जाटों ने भी आरक्षण का मामला उठाया था और सरकार मानने ही 

लगी थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ और ही फैसला दे दिया. अंततः जाटों को आरक्षण 

नहीं मिल सका.


आज के इस पटेलों के आँदोलन में पटेलों ने तो आरक्षण चाहा है लेकिन दबे मुँह यह भी कहा 

गया है कि हमें आरक्षण दो या देश को आरक्षण मुक्त कराओ. यदि गुजरात में पटेलों की 

हालातों को सही मायने में आँका जाए तो किसी भी कोने से नजरिए से ऐसा नहीं लगता कि 

उन्हें (पटेल जाति वर्ग को) आरक्षण की आवश्यकता है. लेकिन हाँ यह कहना भी गलत होगा 

कि सारे ही पटेल संपन्न हैं. जो आर्थिक तौर से विपण्ण हैं, उन्हें तो आरक्षण का लाभ 

मिलना चाहिए - जायज भी है. लेकिन आँदोलन को देख कर लगता है कि जोर इस बात पर 

कम है कि पटेलों को आरक्षण चाहिए किंतु इस पर ज्यादा है कि देश को आरक्षण मुक्त 

कराओ. उधर आरक्षण की जंग में वापस लाने के लिए जाटों व गूजरों से भी संपर्क साधा जा 

रहा है. इनमें जाटों को भी पटेलों की तरह जातिगत - आरक्षण सुविधा की जरूरत नहीं 

महसूस होती – केवल गरीब तबकों के लिए ही इसकी आवश्यकता है.


आज अखबारों में, ब्लॉगों में तरह तरह के लेख पढ़ने को मिल रहे हैं. सब तरह के तक - 

वितर्क एवं कुतर्क दिए जा रहे हैं. जिसको जो भाए समझ ले. कुछ ने तो आँकड़े भी दे रखे हैं 

कि जनसंख्या का कितना भाग अजा, अजजा या अपिजा हैं और सामान्य वर्ग कितना है. 

इसके अनुसार 50 प्र.श. आरक्षण को वे कम ठहरा रहे हैं. कहते हैं कि सामान्यवर्ग 18 से 20 

प्र.श. है और उनके लिए 50 प्र. श. स्थान रख दिए गए हैं.


जहाँ तक मुझे इसका ज्ञान है आज भी सैद्धान्तिक तौर पर तकलीफ कम और कार्यान्वयन 

तौर पर ज्यादा हैं. सामान्य वर्ग के साथ योग्यता के आधार पर चुने गए अजा, अजजा व 

अपिजा के लोगों को उनके प्र. श. में नहीं गिना जाता. योग्यता के अनुसार चुने गए लोगों को 

छोड़कर, उनको निश्चित प्र, श. स्थान दिया जा रहा है. इसके फलस्वरप उनकी उपस्थिति 

जरूरत से ज्यादा हो जा रही है. उनके लिए उम्र में छूट है, योग्यता के प्राप्तांकों में छूट है, 

फीस माफ है, लाईब्रेरी व अन्य विभागों में फीस माफी के अलावा सुविधाएं भी बहुत ज्यादा है. 

उनकी सुविधाओं से किसी को परहेज नहीं होना चाहिए. तकलीफ हो तो केवल योग्यता की 

घटती स्तर से हो. सब कुछ है. सब मंजूर है, लोकिन योग्यता के प्राप्तांकों की छूट नाजायज 

है. केवल इसलिए कि वह योग्यता के स्तर को कम कर देता है. क्या यह समझा जाता है कि 

कम योग्यता से आया यह व्यक्ति पूरी य़ोग्यता के साथ आए व्यक्ति के समतुल्य टिक सकेगा? 

लेकिन फिर भी पदोन्नति या नौकरी के लिए चुनावों में फिर उसे ही प्राथमिकताओं के साथ 

चुन लिया जाता है.


अभी अभी दो एक दिनों में भागवत जी का वक्तव्य पढ़ने को मिला, कुछ साँत्वना हुई . उनने 

कम से कम पुनर्विचार की बात तो की. बहुत अर्से बाद किसी ने इतनी हिम्मत की. उनके 

वक्तव्य में निहितार्थ नेताओं को दूर रखने का संदेश भी समाया हुआ है. जहाँ तक जातिगत 

समस्याओं का दौर है वह तो स्वतंत्रता के तुरंत बाद भाषायी राज्यों के निर्माण से ही शुरु हो 

गया. आरक्षण भले ही उन्हीं लोगों को मिलता किंतु इसे जातिगत न रखकर केवल आर्थिक 

मुद्दे पर किया गया होता तो हालात बहुत ही सुधर गए होते और संपन्न अपने आप इससे परे 

हो गए होते. हमारे नेताओं ने ऐसी गलती कर उसे भुनाया और अब भी भुना रहे हैं.


जरूरत है लोगों को सक्षम बनाने की और बैसाखियों से बाहर लाने की. हम तो उन्हें बैसाखी 

ही दिए जा रहे हैं नए नए तरह के ताकि उनको बैसाखियों से प्रेम हो जाए और चलने में 

सुविधा हो, यानी आप हमारे जेब से बाहर मत निकलो.


कुछ लोगों का मुद्दा है कि हार्दिक के अनशन के पीछे कौन है? मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि 

कोई भी हो इससे क्या फर्क पड़ता है? लोग यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि हार्दिक की मांगें 

कितनी उचित या अनुचित हैं? यह उन्हीं लोगों का काम है जो हार्दिक को मोहरा बनाकर, यह 

आंदोलन करवा रहे हैं ताकि लोगों का मुख्य मुद्दे से ध्यान भंग हो जाए, ध्यान बँट जाए और
मुद्दा अपने आप ही मर जाए। यह कला हमारे राजनीति में बहुत ही कामयाब रही है और हर 

नेता ने अपने दौर में कम से कम एक बार तो इसका प्रयोग किया ही है.


शाय़द हार्दिक को भी पता होगा कि पाटीदार समाज, कम से कम गुजरात में जातिगत 

आरक्षण का हकदार नहीं है. हाँ कुछ आर्थिक तौर पर पिछड़े परिवारों को आरक्षण चाहिए. 

यानी जातिगत नहीं, आर्थिक नीतिगत आरक्षण की मांग हो रही है. साथ पुछल्ला यह भी कि 

हमें आरक्षण दो या देश को आरक्षण मुक्त करो. इसी में आर्थिक नीतिगत और जातिगत 

आरक्षणों की विवेचना भी शामिल है.


एक सोच यह भी है कि जातियों के आधार पर समाज को विभाजित कर सबको आरक्षण का 

बँटवारा कर दिया जाए कि इतने प्रतिशत अनुसूचित जाति, इतने अनुसूचित जन जाति, इतने 

अन्य पिछड़ी जातियाँ और इतने प्रतिशत कुलीन समाज के लोगों को मिलेगा. लेकिन क्या 

इसके बाद भी वर्गों के अंदर का बँटवारा फिर सर नहीं उठाएगा??? बाँटते बाँटते सरकार का 

सर खराब होने की पूरी संभावना है.


मैं तो इतने ही विकल्प देखता हूँ.


अब आते हैं कि इससे किस किस का फायदा है. है? यदि है, तो

1.   काँग्रेस का कि भाजपा के गढ़ गुजरात में सरकार के खिलाफ उन्हीं के नुमाईँदों से 

टकराव करवा दी. क्या यह संभव लगता है?  यदि हाँ तो काँग्रेस की इस जीत पर मैं उन्हें 

बधाई देना चाहूँगा  अब भी उनमें इतना दम-खम बचा है.


2.   केजरीवाल का इनकी भी हालत काँग्रेस जैसी ही है बल्कि इस विषय पर उससे भी 

बदतर है क्योंकि यह ए ई पार्टी है और इसकी पकड़ फिलहाल बहुत ही कम है. इन्हें 

ज्यादा शाबासी देनी होगी.


3. संघ का संघ बहुत समय से प्रस्तुत आरक्षण के खिलाफ रहा है.  लेकिन वह भाजपा 

का विरोध क्यों करेगा?  यदि ऐसा हो रहा है तो भाजपा से संपर्क जरूर साधा गया होगा

और साथ ही मोदी की मान्यता ली ही गई होगी.


इन सब में मुझे जो ज्यादा समझ आती है वह है तीसरी बात. यानी हो सकता है कि इस मुद्दे 

में भाजपा व संघ हार्दिक के साथ हों. हाँ यह मेरा मन भी मानता है कि हार्दिक तो मात्र 

मोहरा है. बन गया तो हीरो नहीं तो जीरो. वैसे भी वह भाजपा के एख नेता का ही पुत्र है. 

उसका राजनीतिक जीवन दाँव पर लग गया है. यही लोग ध्यान भटकाने के लिए विरोधियों 

के नाम फैला रहे हैं. यही तो राजनीति है. अन्यथा भागवत जी को इस पर, इस तरह, इसी 

समय कहने की क्या जरूरत थी? क्या यह केवल एक अनूठा समंजस्य था? क्या ऐसा हो 

सकता है?


अब मेरी भी सुन लें जातिगत आरक्षण में अब पिछड़ी हर तरह की जातियों में अमीरों के 

जमाव के कारण व्यवस्था चरमरा गई है. जो लोग आरक्षण के जायज हकदार हैं उनके 

बदले अमीर लोग और ऊँचे ओहदे पर बैठे लोग मलाई खा रहे हैं. पिछड़े लोग भी अपनों को 

बढ़ावा दे रहे हैं और पिछड़ी जातियों के जरूरत मंगद व वाँछित लोग कुछ नहीं पा रहे हैं. 

इसलिए जातिगत आरक्षण के बदले, आर्थिक परिस्थितिगत (नीतिगत) आरक्षण लागू होना 

अब उचित होगा.

दूसरा, कि आरक्षण के लिए योग्यता को कम करना अनुचित है. जरूरतमंदों को जैसी चाहे 

सहूलिय दी जाए, किंतु परीक्षाओं में, पदोन्नतियों में योग्यता को दर किनार करके देश के 

भविष्य को उजाड़ा न जाए. बाकी जनता, नेता व सरकार की सोच व निर्णय पर निर्भर करता 

है.


भाजपा यदि सही में इससे जुड़ी है तो उसे बहुत ही सँभलकर चलना होगा . इसीलिए शायद 

वह खुद सामने न आकर हार्दिक को सामने ला रही है. यदि सँभल न पाए, तो इससे भाजपा 

को भी बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है.


इसी मंच पर किसी ने टिप्पणी भी की है कि चौधराहट भी चाहिए और पिछड़ी जातियों के 

तहत आरक्षण भी. बहुत ही सही फरमाया है. यही हालत उन लोगों की भी है जो संपन्न तो 

हो गए हैं किंतु जातिगत आरक्षण छोड़ना नहीं चाहते हैं.


आज की हालातो  में यदि कुलीन वर्ग व पिछड़े वर्ग आरक्षण के तहत आपस में अदला – 

बदली कर लें तो कुलीन वर्ग धन्य हो जाएगा. उनके बच्चों का भाग्य फिर जाएगा. वैसे भी 

कुलीन परिवारों के लोग अजा-अजजा व अपिजा के परिवारों से संबंध जोड़ने लगे हैं ताकि उन्हें 

भी आरक्षण मिल सके. जहाँ बुजुर्ग ऐसा करने से रोक रहे हैं वहाँ तो युवा फर्जी प्रमाणपत्र भी 

बनवाने पर आमादा हैं.ऐसे हालात भविष्य में बहुत ही घातक सिद्ध हो सकते हैं.


सरकार व समाज के पास यह एक सुनहरा मौका है. समाज के प्रतिष्ठित लोग व सरकार 

मिलकर आरक्षण की विभिन्न नीतियों पर पुनर्विचार कर सकते हैं.पुनर्विचार के निर्णयानुसार  

नीतचियों में आवश्यक परकिवर्तन कर समाज में फैल रहे केंसर का हल ढूँढा जा सकता है. 

जिसका मकसद केवल व केवल यही होना चाहिए कि देश के पिछड़े लोगों को चाहे वह किसी 

भी जाति या तबके का हो, संसाधन न होने पर उन्हें उपलब्ध कराकर उन सबको देश – 

समाज की मुख्य धारा में जोड़ा जाए. मुख्यधारा में जुड़ने के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं 

मुहैया कराई चाएं. हाँ देश – समाज की योग्यता के साथ समझौता कर उन्हें न बिगाड़ा जाए 

जिससे देश की साख में किसी तरह की आँच न आने पाए.


एम. आर. अयंगर.
8462021340
विद्युत अभियंता, आईओसीएल में कार्यरत, प्रस्तुतः कोरबा (छग) में निवास, हिंदी में लेखन, पत्र पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित, ब्लॉग laxmirangam.blogspot.inेखन.
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