हिंदी पर राजनीति
आज हमारे देश भारत में किसी भी मुद्दे पर राजनीति संभव है। चाहे वह क्षेत्र
हो , भाषा हो, सवर्ण या दलित संबंधी हो, सेना हो या कोई व्यक्ति विशेष ही क्यों न
हो। यहाँ तो मुद्दे बनाए ही जाते हैं राजनीति के लिए । किसी भी मुद्दे का कभी भी राजनीतिकरण
किया जा सकता है। हमारे राजनेता चाहे वो किसी भी पार्टी के हों, इसमें विलक्षण
प्रतिभा रखते हैं। यहाँ तक कि भारत भू-भाग के दिशाखंड – पश्चिमी भारत, दक्षिणी
भारत या अंचल - विदर्भ, सौराष्ट्र, रॉयलासीमा, मराठवाड़ा जैसे क्षेत्रों के साथ भी
राजनीति जुड़ी हुई है। किसी भी मुद्दे पर जनता को बाँटकर उसे वोट में परिवर्तित
करने की राजनीति यहाँ प्रबल है। मैं न विदेश गया न जाने की तमन्ना है इसलिए वहाँ
के हालातों को बयाँ करना या उनसे तुलना करना मेरे लिए संभव नहीं है।
इस देश में राजनीतिक मुद्दे कुरेद - कुरेद कर निकाले व बनाए जाते हैं। इतिहास
को कुरेदकर मुद्दे निकालना और उनका ढिंढोरा पीट - पीटकर जनता को पुनः - पुनः जगाना,
फिर उससे जनता को बाँटकर वोट में तब्दील करना - राजनीतिज्ञों का विशोष काम रह गया
है। दल कोई भी हो, नेता कोई भी हो, काम यही है। लोगों को वोटों के लिए बरगलाने के
सिवा नेताओं का कोई काम नहीं रह गया है, न ही राजनीति का मकसद कुछ और है। यही उनका
जीवन यापन है, यही उनका धंधा है। इसी मकसद के कारण यहाँ मुद्दे सुलझाए नहीं जाते,
उलझाए जाते हैं और सड़ने की लिए रखे जाते हैं और चुनाव – दर - चुनाव उन्हें बार - बार
भुनाया जाता है - वोटों के लिए. भारत की ज्यादातर जनता बेचारी इस विषय में या तो मूर्ख है या मतलब के लिए मूर्ख ही बनना पसंद
करती है. जब नेता और जनता एक मत हों तो कुछ और कैसे होगा ? इसलिए मुद्दे तो बनते हैं, पर कभी सुलझते नहीं, उनको
उलझाने का काम नेताओं ने ले रखा है. साथ में उलझती है जनता और नेता वोट बटोर लेते
हैं. मुद्दा सुलझा मतलब एक वोट बैंक मृत.
बोफोर्स, गोधरा, भोपाल गैस, 1984 के दंगे, राष्ट्रभाषा का मुद्दा, आरक्षण का मुद्दा (विशेषकर नारी आरक्षण) व सुविधाएँ ये सब ऐसे ही वोटदायक मुद्दे हैं जिन पर राजनेताओं की श्वास चलती है. राममंदिर, बेरोजगारी, गरीबी, गंगा (नदियों) की सफाई ऐसे बहुत गिनाए जा सकते हैं. इतिहास से कुरेदकर नए मुद्दे भी जोड़े जा रहे हैं. गाँधी हत्या ऐसा ही नया जीता जागता मुद्दा है, जिसके तहत ग्वालियर में गोड़से का मंदिर भी बनाया गया. यह बात बहुत विशेष है कि राम मंदिर भले मुद्दा ही बनकर रह गया, पर गोड़से का मंदिर बन गया. सरदार पटेल की प्रतिमा को एक विशेष मुद्दा बनाया गया. वैसे ही सेना व राजनीति कभी साथ नहीं चले पर अब उन्हें भी साथ चलाया जा रहा है. हालातों के चलते, यदि जनरल मानेकशॉ राजनीति में आना चाहते तो शायद हर नागरिक स्वागत करता. पर नहीं, उनको उसूल ज्यादा प्यारे थे. यदि कोई सैन्याधिकारी खुद को राजनीति के योग्य समझता है, तो मेरे ख्याल से वह सेना के योग्य ही नहीं है. राजनीति की गंदगी जैसे ही सेना में आई, तो सेना बरबाद हुई समझिए. शुरुआत तो हो ही चुकी है.
ऐसा ही एक मुद्दा है भाषा का. जिसे कोई राजनेता हल करना या सुलझाना नहीं
चाहता. कारण वही वोट बैंक. वैसे जाने अंजाने भाषा का मुद्दा तो हमारी आजादी से ही
जुड़ गया. मद्रास, गुजरात, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पंजाब और असम - भाषायी आधार
पर ही बने राज्य हैं. आजादी के तुरंत बाद इन राज्यों के गठन में भाषायी राज्यों का
आना ही इसका प्रादुर्भाव था. पता नहीं तब ही मंशा साफ थी या मात्र एक संयोग था, पर
अपना काम तो वह कर गया – देश को भाषा के आधार पर बाँटने का. किंतु उसके बाद बने
कर्नाटक, आँध्र प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान से तो मंशा साफ हो ही गई कि हमारे नेता
भाषा की राजनीति के पक्षधर हैं. हिंदी या निकट हिंदी भाषाई क्षेत्रों की अधिकता के कारण
दक्षिण भारतीय नेताओं ने इसे ज्यादा पसंद किया होगा. शायद उनको इसका अच्छा
परिणाम भी मिला, पर भारत मुख्य रूप से उत्तर और दक्षिण भारत नामक दो विशिष्ट
हिस्सों में बँट गया. इस तरह देश में भाषाई जंग या कहिए भाषा जन्य अलगाव
ने जनम लिया.
खासकर दक्षिण भारतीय नेताओं ने इसमें बहुत खलबली मचाई. यह उनके अस्तित्व के
संरक्षण के लिए था, जो खतरे में पड़ रहा था. दक्षिणी भाषाओं के अलावा भारत की अन्य
भाषाओं का हिंदी के बहुत ज्यादा या बहुत कम - किंतु संबंध था। पर दक्षिणी भाषाएँ इसके पास भी नहीं
फटकती थीं. इसलिए दक्षिणी नेताओं को शक था कि वे अलग - थलग पड़ जाएंगे. इसलिए
हिंदी के बढ़ावे से उन्हें बहुत तकलीफ थी.
जनता को यही घुट्टी में पिलाकर समझाया गया कि यदि हिंदी आ गई तो दक्षिण
भारतीयों को किसी भी क्षेत्र में उन्नति का कोई मौका नहीं मिलेगा. जनता नेताओं के
झाँसे में आ गई. तब साक्षरता नाम की चिड़िया भारत में थी ही कहाँ.
उससे पहले स्वतंत्रता आँदोलन के दौरान गाँधीजी ने
राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने के लिए राष्ट्रभाषा सिद्धांत को आगे रखा. वे चाहते
थे कि हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा बने ताकि हिंदू और मुस्लिम सभी का साथ मिले . पर
नेहरू के पक्षधर और जिन्ना के विरोधियों ने गाँधी जी की एक नहीं चलने दी. उन्होंने
हिंदी के पक्ष में जोर लगाया. फलस्वरूप गाँधीजी का राष्ट्रभाषा सिद्धांत खटाई में पड़ गया. हिंदू मुस्लिम का बैर वहाँ मुख्य
कारण बना . भाषाई कारण से देश के बँटने को इससे जोर मिला. किसी को देश की नहीं पड़ी
थी. अपने व्यक्तिगत मुद्दे सर उठा चुके थे. अंततः राष्ट्रभाषा शब्द
के ही इतने अर्थ निकाले गए कि वह शब्द खुद
ही संशयात्मक हो गया और आज भी इसका कोई स्थाई अर्थ नहीं है. आज भी हिंदी के पक्षधर
इसे राष्ट्रभाषा कहते फिरते हैं. कुछ तो समझते नहीं हैं पर ज्यादातर लोग
समझना भी नहीं चाहते. यही राजनीतिक असर
है.
असली जोर तब आया जब संविधान की भाषाई समिति में देश की
अधिकारिक भाषा का सवाल उठा. उन्होंने निस्संकोच एक बहुत अच्छा काम किया कि
राष्ट्रभाषा शब्द को परे ही रख दिया और एक नए शब्द राजभाषा का प्रयोग किया. समिति
ने भाषाओं पर चर्चा करते हुए जब एक – एक कर भाषाएँ हटाते गए तो अंत में हिंदी और
तमिल भाषाएँ ही बचीं. दोनों जोर - शोर से लगे थे कि हमारी भाषा ही राजभाषा बने.
टकराव के हालातों में अततः इस पर मतदान कराना पड़ा. लेकिन इससे भी समस्या का
समाधान नहीं हो सका. मतदान में दोनों पक्षों को बराबर मत मिले. फलस्वरूप, अध्यक्षीय
मतदान करना पड़ा. अध्यक्षीय मत हिंदी के पक्ष में पड़ा और हिंदी राजभाषा घोषित
हुई. इसी कारण तमिलभाषियों (तमिल भाषी नेताओं को) को हिंदी और नेहरू दोनों मंजूर
नहीं हैं. इन्होंने ही तमिल ही नहीं, बल्कि सारे दक्षिणी भारतीय नेताओं को पहले और
बाद में नागरिकों को बहकाया है.
चलिए एक बात को मान लेते हैं कि मूलतः जनता ही हिंदी से
नफरत करती है और हम लोग नेताओं
को द्वेषवश बदनाम करते हैं. यदि यही सत्य है तो टी वी पर
हिंदी सीरियल और सिनेमा घरों में हिंदी पिक्चर क्यों देखे जा रहे हैं ? पता कीजिए हिंदी
फिल्में वहाँ कितनी चलती हैं और क्यों ? सिनेमाघरों में टिकट के लिए कितने दंगे फसाद होते हैं ? इन हिंदी सीरियल और फिल्मों का विरोध क्यों नहीं होता ? किसलिए नहीं होता, यदि जनता हिंदी से नफरत करती है? इससे साफ जाहिर
है कि हिंदी से नफरत मूलतः जनता को नहीं है. यह नफरत राजनेताओँ द्वारा दी हुई है.
अब थोड़ा सोचते हैं समस्या के निदान पर।
राष्ट्रीय नेताओं ने जब भी हिंदी को बढ़ावा देने का
प्रयास किया तो पूरे देश में एक साथ किया. मकसद साफ है कि दक्षिण से विरोध उभरेगा
और मसला एक बार और दफना दिया जाएगा. इरादा किसका है कि हिंदी को बढ़ावा मिले ? इरादा तो मुद्दे
को उछालना है कि वोट गिन सकें.
यदि दिल में सही मंशा है हिंदी को बढ़ाने की, तो पहले हिंदी
भाषी ( मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली राज्यों में हिंदी
को पूरा बढ़ावा दीजिए. वहाँ की ज्यादातर जनता हिंदी में सक्षम है और वहाँ हिंदी
अपनाने से जनता भी खुश होगी. सबका साथ मिलेगा शायद सबका विकास भी हो जाए. हिंदी
भाषी राज्यों में आपस में व केंद्र के बीच संप्रेषण का माध्यम भी हिंदी हो, यह
सुनिश्चित करें.
इसके बाद हिंदी के संगी - साथी (बंगाल, उड़ीसा,
महाराष्ट्र, पंजाब और असम, जैसे क्षेत्र) भाषी क्षेत्र पर आएँ और वहाँ हिंदी को
बढ़ावा दें. जो राज्य प्रथम चरण में ही हिंदी अपनाने को तैयार हैं, उन्हें अपनाने
दें. इस तरह हिंदी भाषी और हिंदी के निकटभाषी क्षेत्र जब हिंदी को पूरी तरह अपना लें,
तो देश का दो तिहाई हिंदीमय हो ही जाएगा. तब अन्यों को मजबूरी महसूस होगी, नजर
आएगी. हो सकता है - जैसे आज जिस तरह तमिलनाडु के युवा हिंदी के लिए आंदोलन करना
शुरु कर रहे हैं, वैसे आंदोलन जोर पकड़ेंगे तथा दक्षिण भारतीय भी हिंदी की ओर
मजबूरन झुकेंगे. नेता तो फिर भी विरोध करेंगे, पर जब जनता झुकेगी तो नेताओं का
विरोध अपने आप ही फीका पड़ता जाएगा.
दूसरा तरीका यह हो सकता है कि ईमानदारी से त्रिभाषा
सूत्र अपनाया जाए. किंतु ईमानदारी इसी में है कि दक्षिण भारतीयों के लिए हिंदी
अनिवार्य हो तो अन्यों के लिए एक दक्षिण भारतीय भाषा (तमिल, तेलुगु, कन्नड या
मलयालम में से एक) अनिवार्य हो. इसे यदि ईमानदारी से अपनाया जाए तो दक्षिण में भी
इसका विरोध नहीं होगा. पहले जब ऐसा प्रस्ताव आया था तब दक्षिणेतर राज्यों ने
त्रिभाषा के अंतर्गत संस्कृत अपनाकर दक्षिण भारतीयों के साथ धोखा किया था. ईमानदारी
हो तो त्रिभाषा सूत्र गजब का प्रतिफल दे सकता है.
अब देखना यही है कि कितनी ईमानदारी और शिद्दत के साथ
हिंदी विभाग इस पर अमल करता है. मैं तो चाहूंगा कि कोई इसे गृह विभाग के कार्यकारी
अधिकारियों तक पहुँचाए ताकि जिनके पास कार्यकारी अधिकार हैं वे इसे जान सकें. जन
साधारण इसे जानकर भी इसका कार्यान्वयन नहीं कर सकती.
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