मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

एक पौधा

एक पौधा

मधुवन मनमोहक है,
चितवन रमणीय है,
उपवन अति सुंदर है,
और
जीवन से ही,
प्रादुर्भाव है इन सबका,

फिर जब,

जीवन के उपवन से,
मधुवन के चितवन तक

हर जगह 

"वन" 

ही की विशिष्टता है 
फिर, क्यों न हम 

" वन " लगाएं?

आईए,
शुरुआत करें

और 

लगाएँ एक पौधा.
.................................
एम.आर.अयंगर.

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

परिभाषा


परिभाषा

जिंदगी शतरंज की बाजी नहीं है,
जीत लो या हार लो.

है अंक इक यह,
ब्रम्होपन्यास का,
जिसके पात्र हैं हम सब,

परिवर्तन नित्य है,
पात्राभिनय जीवन है,
घटनाएं क्रमबद्ध हैं,

व्यक्ति विशेष,
मात्र नियति का माध्यम है,
वह केवल कर्त्ता का प्यादा है,
उसे केवल अपना अभिनय करना है,

विधि का विधान –
विदित, वर्णित है,
ब्रह्मा की लीक अमिट है,
नियति निश्चित है,

जब अंत होगा इस संसार का,
तब इस उपन्यास की समाप्ति होगी


तब तक अक्षरशः, शब्दशः, पृष्ठ दर पृष्ठ
यह उपन्यास इतिहास में तबदील होता रहेगा,
हमारा हमपात्र से होड़ किसलिए ?
किस बात परक्या पाने को ?

अपना-अपना अंश हमारे मंच समय का,
इस अभिनय के जटिल मंच पर,
कोई अपने आप,
नहीं है पूर्ण,
निर्भर हर इक दूजे पर


करना, तुमको नियति लिखी जो,
पाना, तुमको भाग लिखा जो,
फिर क्यों करते,
व्यर्थ-व्यर्थ की आशा

समझो –
जीवन की परिभाषा.

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

यथोचित


यथोचित


फिर एक बार दुनिया पुरानी हो गई,
जिंदगी (एक वर्ष) फिर छोटी हो गई,
सब कुछ और हम सब,
कुछ और छोटे हो गए,

लेकिन आशावादी मानव ने हमेशा,
नए साल की बंद मुट्ठी में लाखों सँजोए,
बीते वर्ष को विदा किया.

अगले वर्षांत इस वर्ष को भी ,
शायद इसी तरह से विदा देंगे,
(तब तक मुट्ठी खोले यह वर्ष    
क्या, खाक साबित करेगा ???)

बीती बातों से सीखने की परंपरा,
अब शायद समाप्त ही हो गई है,
बीता सब कुछ रीता,
क्यों सोचें कल क्या पीता ?,
कैसे जीता ?

अन्जाने भविष्य के,
(भले ही अंधकारमय हो),
खुशहाली का ढोंग रचना,
आज की मानसिकता हो गई है,
सच्चाई कल्पना में समा नहीं सकती,
इससे डर कर जिया, तो क्या जिया,
  
कल की भूलों को कल के लिए सुधारना,
जीवन को श्रेयस्कर बनाने के लिए,
शायद सही मानसिकता – मानवीयता है,


सफर में आज जिस गली से,
गुजर रहे हैं, उसमें
इंसाँ नहीं शैतान बसते हैं,

कभी मानव परंपरा थी,
भूखा रह जाऊँ भले,
साधु  न भूखा जाए,

शायद उस युग में मानव संपन्न था
आनाज, धन-धान्य भरपूर था.

किसी को अपनी परवाह,
करने की भी जरूरत नहीं थी
गुण मानव का धन प्रमुख था.

किंतु आज,
हालात बदल गए हैं,
बिगड़ गए हैं,
उन्नत देशों में भी,
उन्नति के बावजूद
धन – धाऩ्य की संपन्नता
समुचित नहीं है,

शयद यही एक मात्र वजह है
आज के मानव के,
अमानवीय व्यवहार को,
यथोचित ठहराने का.


एम.आर.अयंगर.