सामान्यतः किसी भी भाषा को सीखने का पहला अध्याय, उस भाषा को बोलने वालों के
साथ रहकर उनका उच्चारण सीखना होता है. माना आप इसके लिए विशेष प्रयास नहीं
करते किंतु साथ रह रहकर आपका ध्यान तो उस ओर आकर्षित हो ही जाता है और
धीरे धीरे आप गौर करने लगते हैं कि इसे ऐसा नहीं, ऐसा बोलना चाहिए. कुछेक बार
तो साथी भी इसमें सहायक होते हैं. चाहे वो मजाक बनाकर बोलें, या अच्छे से
समझाएं. पर ध्यान तो आकर्षित कर ही देते हैं कि यहाँ गलती हो रही है. सुधारना-
सुधरना आपका काम है यदि आप गौर करेंगे और फिर लोगों से सही गलत की
जानकारी लेते रहेंगे, तो एक दिन जरूर सही हो जाएगा. इसमें चिढ़ने व गुस्सा करने
का कोई कारण नही होना चाहिए. आप सीखना चाहते हैं. बिना किसी मूल्य के – यह
असंभव है. और पाना है तो हाथ नीचे ही रखना ही पड़ेगा. चाहे वह कोई वस्तु हो या
फिर ज्ञान ही क्यों न हो.
बहुत बार तो ऐसा हो जाता है कि कई बार गौर करने के बाद भी, उच्चारण पकड़ में
नहीं आती. उस वक्त हमें बेशर्म होकर उस व्यक्ति से पूछ ही लेना चाहिए कि इसे कैसे
उच्चरित करते हो. सीखने में शर्म की तो सीख ही नहीं पाओगे.
किसी ने कहा भी है-
गीते नाद्ये तथा वृत्ते, संग्रामे रिपुसंकटे,
आहारे च व्यवहारे, त्यक्तलज्जा सुखी भवेत्.
सीखते वक्त आप गलती करेंगे, इसकी पूरी - पूरी संभावनाएँ हैं. इससे बचने की
कोशिश एक हद तक ही की जा सकती है. बिना गलती किए कोई भी ज्ञान पाना
नामुमकिन सा ही है. इसलिए गलती करने से परहेज ना करें बल्कि गलती करने पर
संगी साथी से पूछें कि यह ठीक था कि नहीं . यदि नहीं तो जाने कि ठीक क्या था.
आपको सीखने के लिए शर्म तो त्यागना ही पड़ेगा. शर्मागए तो सीखने से चूक जाएंगे.
इन चक्करों में कभी बहुत बड़ी - बड़ी गलतियाँ भी हो जाती हैं. लेकिन यदि अगला यह
इन चक्करों में कभी बहुत बड़ी - बड़ी गलतियाँ भी हो जाती हैं. लेकिन यदि अगला यह
समझता है कि व्यक्ति सीख रहा है तो बड़े - बड़े गलतियाँ भी आसानी से माफ कर दी
जाती हैं.
गुजरात में एक कैंटीन के मालिक से मैं कहता था – चा आपो भाई. जिसका मतलब
होता है चाय दो भाई. वह चुपचाप चाय लाकर देता था. हमारी जोड़ी ऐसे ही चलती रही.
एक दिन जब मैंने ऐसे ही कहा तब एक गुजराती भाई ने समझाया. आप उसको ऐसा
क्यों बोल रहे हैं. वह तो कैंटीन का मालिक है. मैंने पूछा कि इसमें क्या गलती है तब
उनने बताया कि चा आपो का मतलब होता है चाय (लाकर) दो. आपको कहना चाहिए
चा मोकलियावो, यानी चाय भेजो. मैंने अपनी भाषा में सुधार कर लिया. ऐसे ही भाषा
सीखी जाती है. साथी अच्छे होंगे, हमउम्र होंगे, तो जल्दी सीख जाओगे और नहीं तो
कुछ देर लग जाएगी लेकिन हिम्मत हार गए तो गए. कुछ भी सीख नहीँ पाओगे.
बच्चों की भाषा पर आएँ तो प्ले स्कूल, केजी, पहली से पाँचवीं तक के बच्चों को
उच्चारण पर शिक्षकों को विशेष तौर पर ध्यान देना चाहिए. दक्षिणी परिवार का बच्चा
अपनी भाषा के कारण क, ग, च त ट तो उच्चरित कर लेगा लेकिन जहाँ ख, घ, छ, झ
जैसे वर्ण आएँगे वह जोर नहीं लगा पाएगा. शिक्षकों को चाहिए कि इसी वय में उन्हें
मेहनत कर करा कर सिखा देना चाहिए. अन्यथा बड़ी उम्र में सीखना बहुत ही
तकलीफ दायक होता है और बहुत लोग तो सीख भी नही पाते. बिहार-बंगाल व यह पी
के इलाकों में र व ड़ के उच्चरण आपस में बहुत ही बार टकराते हैं रबड़ जैसे शब्दों का
उच्चरण तकलीफदायक होता है. यदि बचपन में ही ध्यान दिया जाए, तो हमेशा -
हमेशा के लिए सिरदर्दी खत्म हो जाती है.
भाषा, पहनावा, बोली व खानपान का सीधा संबंध नजर आता है. उत्तर में ठंडे मौसम
की वजह से हाजमा बहुत अच्छा होता है. वो मेहनत कर पाते हैं और फलस्वरूप शरीर
सौष्ठव भी अच्छा होता है. गर्म खाद्य़ के आदि होते हैं. उनका तन गठीला होता है साथ
साथ जुबान भी कम लचीली होती है. अर्द्धाक्षर के उच्चारण में उनको तकलीफ होती है.
इसी लिए शायद गुरुमुखी में अर्द्धाक्षर का प्रावधान ही नहीं है. इनके लिए दक्षिण की
भाषाएं सीखना बहुत ही कठिन काम होगा.
मध्यभारत के लोगों को मौसम में ठंड उत्तर के बनिस्पत कम तथा गर्मी व बरसात
मध्यभारत के लोगों को मौसम में ठंड उत्तर के बनिस्पत कम तथा गर्मी व बरसात
ज्यादा होती है. इसलिए उनकी मेहनत करने की क्षमता उत्तरी लोगों से कम होती है.
इन क्षेत्रों के लोग मेहनत करने से दक्षिण की भाषाएं सीख सकते हैं किंतु उनके लिए भी
यह आसान नहीं होता. उत्तर की भाषाएं सीखना इनके लिए आसान होता है. इसका
राज मात्र यही है कि इनके रहन सहन व खान पान की आदतों के कारण इनकी जुबान
बनिस्पत उत्तरी लोगों के पतली और ज्यादा लचीली होती है. इस कारण यहा के लोगों
के लिए उच्चारण पर ध्य़ान देना अत्यावश्यक है. अन्यथा ये प्राँतीय भाषाई उच्चारण
करते रहते हैं और दूसरी भाषा के शब्दों का उच्चारण भी अपनी भाषा की तरह करते हैं.
इसी कारण मराठी भाषी हिंदी में ह्रस्व व दीर्घ मात्राओं में गड़बड़ी करते देखे जा सकते
हैं. यदि उच्चारण पर सही ध्यान देने वाले शिक्षक हों तो यहाँ के बच्चे कोई भी भाषा
दक्षिण के लोगों में पाचन शक्ति बाकियों की अपेक्षा कम होती है
इसीलिए यहाँ जल्दी व कम मेहनत से पचने वाला खाना खाया
जाता है. ज्यादा बार, किंतु हल्का खाया जाता है. खट्टा खाने की
प्रवृत्ति होती है जिससे जुबान फड़फडाती है बारीक से बारीक फर्क
की ध्वनियाँ भी वे आसानी से निकाल सकते हैं. केरल की भाषा
मळयालम में ऐसे बहुत से शब्द मिलेंगे (कुछ तो तमिल में भी हैं किंतु मळयालम से
कम) जिनका उच्चारण उत्तर भारत के लोग कर ही नहीं पाते हैं. यदि उच्चारण पर
ध्यान दें, तो दक्षिण भारतीय जन को किसी भी भाषा में महारत हासिल हो सकती है.
लेकिन दुविधा वहीं आकर होती है कि बचपन में उच्चारण पर खास ध्यान नहीं दिया
जाता. दक्षिण भारतीय यदि किसी मध्यभारत या उत्तर भारत के शहर में पढ़े तो
उसकी भाषा में प्रवीणता होती है. इसका कारण उसके उच्चरण की क्षमता है. यदि सही
उच्चारण कर पाएँ तो लिखने में भी गलतियाँ होने की संभावना घट जाती है.
किसी भी शब्द का उच्चारण उसमें सम्मिलित अक्षर व मात्राओं पर निर्भर करता है.
यदि उच्चरण सही नहीं हुआ तो सुनकर लिखते वक्त गलत हिज्जे लिखे जाएंगे. आप
गौर कीजिए - काबिलियत, कवयित्री – शबदों को बहुत से लोग गलत लिखते होंगे.
महाराष्ट्रियों में लघु व दीर्घ मात्राओं में त्रुटि का मुख्य कारण यही है. वैसे ही दक्षिणी
लोगों में कठोर व्यंजनों में गलती करने का कारण भी उच्चारण ही है. साथ ही
पंजाबियों का धर्मेंद्र को धरमिंदर कहने का कारण भी यही उच्चारण है.
हिंदी में इसके अलावा भी गलतियाँ होती हैं जैसे लिंग, वचन इत्यादि के किंतु उनका
उच्चरण से कोई सीधा संबंध नहीं है. उसके लिए उन्हें लिग का बोध होना चाहिए. वैसे
हिंदी में लिंग बोध भी अपने आप मेँ एक जटिल विषय है.
यह समय शिक्षक दिवस व हिंदी पखवाड़े के बीच का है. मौके का फयदा लेते हुए,
गुरुओं को नमन करते हुए खासकर भाषा के शिक्षकों से अनुरोध करता हूँ कि छोटी
कक्षाओं के विद्यार्थियों के उच्चारण पर विशेष ध्यान दें. इससे उनकी भाषा सुधरेगी
और यह उनके जिंदगी भर का साथ होगी. आपका यह छोटा धैर्य और त्याग किसी
विद्यार्थी को जीवन भर के लिए एक सशक्त भाषा दे सकेगा.
इस लेख में मैंने हिंदी के बारे मेंही जिक्र किया है लेकिन उच्चरण संबंधी सारी बातें
करीब करीब सभी भाषाओं पर लागू होती हैं.
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