प्रकृति और मानव
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पंचभूतों से बना,
माटी का पुतला आदमी,
कृतज्ञ परमेश्वर का होना,
इंसानियत है लाजमी,
फिर भी न कोई सोचता,
ईमान क्यों बेचें यहाँ,
इंसानियत उजड़ी हुई है,
और क्या पूछें यहाँ।
जो जी गए वह जिंदगी,
कल की क्या सोचा करें,
बाद क्या होने चला है,
आज क्यों जानें डरें?
सोचने में क्यों करें,
आज का दिन व्यर्थ हम,
गर मिलें जो गम हमें,
सहने में भी हैं समर्थ हम ?
अंजाम इसका है कि वर्षा,
पर्याप्त होती ही नहीं,
बीमारियाँ इतनी बढ़ीं कि,
माँएँ सोती भी नहीं,
प्रकृति खोती है संबल,
एक के भी ह्रास से,
लौटती अपने वजूद में,
अपनी तरह के प्रयास से,
आदमी संपूर्ण है क्या,
बस एक के वर्चस्व से ?
रुप प्रकृति क्रोध को,
कहते हैं हम भूचाल-अकाल,
सागर में आए बाढ़,
नहीं क्या काल, यह विकराल?
ओजोन की चादर फटी,
या फट गया है आसमाँ,
उष्णता बढ़ने लगी,
और घट रही है हरीतिमा
सर्वोन्मखी विकास अपना,
ध्येय होना चाहिए,
प्रकृति के संग मानव ,
नाव खेना चाहिए।
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एम.आर.अयंगर.
08000556936
You are very right Sir!
जवाब देंहटाएंIf we don't improve ourselves, the day is soon to come when all of us will be compelled to change!
Development with nature-This sustainable development shall be our prime motto.
श्री दिनेश जी,
जवाब देंहटाएंप्रकृति के साथ रहने की मेरी इच्छा का समर्थन से संतोष हुआ.आशा करूंगा कि अन्य भी ऐसा ही समर्थन दें . देखिए आगे क्या होता है !!!
धन्यवाद,
साभार,
एम.आर.अयंगर.
08000556936
sach me kash sabhi aapki tarah ya thoda to bhi soche to bahut parivartan aayenga. aapki is soch ko bhagwan tarakki de.
जवाब देंहटाएंनीता जी,
जवाब देंहटाएंअब की बार आप सफल हुईं. आपके उद्गार मिले.बहुत बहुत धन्यवाद.
मैं 30 अप्रैल को यहाँ से रिलीज होकर 2 मई को रायपुर में जॉइन करूंगा. फिर विस्तार से ...
सधन्यवाद..
एम.आर.अयंगर.