मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 10 जुलाई 2021

परिपक्वता

 

परिपक्वता


सुमीत पढ़ाई में बहुत तेज था। उसके पिताजी किसी सरकारी कंपनी में अच्छे पद पर थे। घर-परिवार सर्वसम्पन्न था । इंजिनीयरिंग की चुनावी परीक्षा में सुमीत देश भर के प्रथम कुछ स्थानों में था और एम टेक की चुनावी परीक्षा में देश भर के पहले में 5 स्थानों में था । मेधावी होने के कारण दाखिले के लिए उसका चयन अच्छे-अच्छे महाविद्यालयों में हो जाता था।  एम टेक के बाद एक बड़े मल्टीनेशनल कंपनी में उसका चयन बड़ी आसानी से हो गया था। तनख्वाह भी बहुत अच्छी थी । सुमीत और पूरा परिवार भी बहुत खुश था।

समय बीतते-बीतते सुमीत और उसके पिताजी दोनों की पदोन्नति होती गई। पिताजी चीफ जनरल मेनेजर बन चुके थे। अभी सेवानिवृत्त होने को कुछ ही समय बचा था। सुमीत भी अच्छे ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित हो गया था।

अब उसे लगने लगा कि इस उम्र में पिताजी पैसों के लिए क्यों खट रहे हैं? अब पिताजी को आराम कर लेना चाहिए। इसी विचार से उसने पिताजी से बात किया और कहा –पापा आप नौकरी छोड़ दीजिए। अब आप आराम कर लीजिए। उसके शुद्ध मन में पापा की उम्र और सेहत को देखते हुए आराम देने की ही मंशा थी। पापा ने इस पर विचार कर कहा – किसलिए बेटा ? शुरुआत के दिनों जैसी शारीरिक मेहनत तो करनी नहीं पड़ती है अभी। उस पर करीब एक लाख रुपयों की तनख्वाह जो मिलती है उसे किसलिए छोड़ा जाए ? किसी प्रकार की समस्या भी तो नहीं है  कि नौकरी करने में परेशानी हो रही हो।

पिताजी की बात सुनकर अब भी सुमीत को लग रहा था कि पापा के नौकरी करने का मुख्य मकसद अभी पैसा ही है। उसके मन में आया कि मेरी जो आमदनी है उसमें से उनके तनख्वाह के बराबर की राशि मैं उनको दे ही सकता हूँ । यही बात उसने पिताजी से कही – "पापाजी आप तनख्वाह की चिंता मत कीजिए। मैं आपको हर महीने उतनी रकम तो दे ही सकता हूँ। वैसे भी आप जितना साल भर में कमा लेते हो उतना तो मैं दो महीनों मे कमा लेता हूँ। आप नौकरी छोड़ दीजिए और घर पर आराम कीजिए ।"

पापा को शायद इस वाकए की उम्मीद नहीं थी । वे सुमीत की बात सुनकर असमंजस में पड़ गए। सोचने लगे कि क्या बेटे को इस बात की समझ भी है कि वह क्या कह रहा है ? उसे केवल पैसों का ही खयाल है । मेरे आत्मसम्मान की वह सोच भी पा रहा है या नहीं ? उन्हें सुमीत की बात बहुत चुभी, किंतु मौके की नजाकत के चलते वे गुस्सा पीकर रह गए। एक बार उनके मन में तो आया कि मेरी परवरिश में कहीं कमी तो नहीं रह गई।

पिताजी को लगा कि सुमीत उनको अपने ऊपर निर्भर करवाना चाहता है। वे लगे  सोचने कि इससे मेरी स्वायत्तता छिन जाएगी । मैं ऐसा कभी नहीं होने दूँगा। उसके कहने से मैं तो नौकरी छोड़ने वाला नहीं। ठीक है, वह कमाता है खुशी से अपनी जिंदगी जिए । मुझे आश्रित क्यों बनाना चाहता है? ऐसी सोच की  वजह से उनको मानसिक वेदना हुई, वे परेशान रहने लगे।

जब मानसिक वेदना सहन के पार होने लगी तो उन्होंनें अपने एक खास मित्र से इसका जिक्र किया । उनको बताया कि बेटा कह रहा है कि आप नौकरी छोड़ दें।आपकी तनख्वाह के समतुल्य रकम मैं हर महीने आपको दे दिया करूँगा। वह मुझे अपने ऊपर आश्रित बनाना चाहता है। समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए ?

दोस्त से इस विषय पर चर्चा हुई। कई पहलू सामने आए। एक यह कि बच्चे के मन नें कोई द्वेष नहीं है । वह तो पापा की उम्र और सेहत के मद्देनजर उनको आराम देना चाहता है। रही तनख्वाह रुक जाने की बात तो उसने समाधान दिया कि वह तनख्वाह की रकम आपको हर महीने दे सकता है और देगा। दूसरा, कि बच्चा शायद समझ रहा है कि उसकी तरह आपको भी शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है जो इस उम्र में आपके लिए कष्टदायक है। उसको इस बात की समझ नहीं है शायद कि आपके ओहदे में शारीरिक नहीं मानसिक श्रम की आवश्यकता होती है। तीसरा और अहम बात यह कि वह आप का बेटा है – उम्र में आपसे बहुत छोटा है। उसकी समझ आपके बराबर तो नहीं हो सकती। उसके पास आपके बराबर का अनुभव नहीं है , न ही इतना व्यावहारिक ज्ञान है। मन में आपके प्रति आदर सम्मान होने के कारण ही उसने यह सुझाव दिया । व्यावहारिक ज्ञान की कमी के कारण वह सोच नहीं पाया कि इससे आपके आत्मसम्मान को कितनी ठेस पहुँचेगी। उसके पास आर्थिक सम्पन्नता तो थी, पर व्यावहारिक ज्ञान की सम्पन्नता नहीं थी । वह सोच नहीं पाया कि इतने और इससे कम तनख्वाह में पिताजी ने परिवार का भरण-पोषण किया है। सब बच्चों को , खुद उसको भी पढ़ाया है, जिससे वह आज इस पद पर काबिज है।

चर्चा का समापन इस बात से हुआ कि यदि बच्चे की समझ हमारी समझ के बराबर होती तो उसने ऐसी बात की ही नहीं होती। नासमझी में उसने ऐसा कह दिया । आप तो बड़े हो , उसके पापा हो । यदि आपने भी उसकी बात पर कुछ अटपटी प्रतिक्रिया दी, तो फर्क ही मिट जाएगा।  बात को समझिए , अपना बडप्पन दिखाइए। बच्चे को माफ कीजिए और इस वाकए को भूल जाइए। मन को शांत कीजिए। उम्र के सफर में किसी पड़ाव पर एक दिन उसे अपनी गलती का एहसास हो ही जाएगा।

इस बात पर दोनों की सहमति बन गई।  अब जब समस्या सुलझ ही गई थी तो पिताजी का मन भी हल्का हो गया था । वे दिलो-दिमाग से इस समस्या को भूलते हुए उठ खड़े हुए और मुसकुराहट के साथ घर लौट पड़े।

 

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