शिक्षक
उन दिनों सुनील 11 वीं में पढ़ता था। तब
इंटरमीडिएट की कक्षाएँ नहीं होती थीं। 10 वीं के बाद 11वीं होती थी, जिसे “हायर सेकंडरी” कहते थे। सुनील ने गणित, रसायन व भौतिक विषयों को चुना था। भौतिक शास्त्र की पढ़ाई झा सर करवाते थे। वे बहुत ही उम्दा समझाते थे, किंतु थे बड़े ही कठोर। अनुशासन उनके लिए बहुत जरूरी था। उनकी कक्षा में कोई भी चूं नहीं कर सकता था। यदि कहीं से भी कोई आवाज आई तो तुरंत उधर मुड़ते और इशारा करते हुए कहते – तुम, अरे तुम खड़े हो जाओ। वह किसी का नाम लेकर नहीं कहते थे। यदि किसी विद्यार्थी ने पूछ लिया “सर मैं?” तो समझ लो उसकी शामत आ ही गई। झा जी का मन ठंडा रहा तो चॉक फेंक कर उसे मारेंगे। यदि विचलित या गुस्से में रहे हों तो उसे खड़ा करेंगे और पास जाकर एक जोर का तमाचा जड़ देंगे। किसी की मजाल कि पूछ ले कि क्यों मारा ? वे सीनियर भी इतने थे कि स्कूल के बहुत सारे शिक्षक उनके विद्यार्थी रह चुके थे। इसलिए प्रिंसिपल से शिकायत करना भी बेमतलब होता था। इसका हल एक ही था कि उनके पूछने पर कोई जवाब न दे, सब मुँह फेर लेते थे।
इन सब के बावजूद भी सारे विद्यार्थी उनकी बहुत इज्जत करते थे। उनसे बहुत डरते भी थे, वो अलग। विद्यार्थियों को झा सर से एक और शिकायत थी कि उनके द्वारा पेपर जाँचे जाने पर बच्चों को परीक्षा में बहुत कम नंबर मिलते थे। जो बच्चे पास होने की ही लालसा रखते थे, वे खुश रहते थे कि सर ने हमको पास कर दिया। जिनके 50 से 75 % उनको तो शिक्षक से कोई शिकायत नहीं थी , वह कहते थे हमें तो सही नंबर मिल गए, मतलब जितने की उम्मीद की थी, उतने मिल गए। परेशानी ज्यादातर उन बच्चों को होती थी जिनके बहुत अच्छे नंबर आते थे। उनका हमेशा का रोना रहता था कि सर नंबर काट लेते हैं और उम्मीद से बहुत कम नंबर देते हैं।
इस बार बोर्ड में भौतिक शास्त्र का पेपर बहुत कठिन आया था। सारे बच्चे डरे हुए थे कि इस बार भौतिकी में फेल होने की पूरी संभावना है। पेपर जाँचने लिए झा सर को दिया गया है ऐसी भनक भी थी। पता नहीं सर को क्या सूझा या उन्होंने क्या सोचा, किंतु इधर विद्यार्थियों में डर बैठ चुका था । समय बीतता गया और वे दिन भी आ गए कि पेपर जाँचने के लिए झा जी तक पहुँच गए। यह किसी को भी पता नहीं था कि किस स्कूल के पेपर उनके पास आए हैं। हमारे स्कूल के पेपर भी हैं या नहीं।
सुनील एक होनहार छात्र था। उसे भी डर था कि झा सर पेपर जाँचेंगे तो उसे कम अंक मिल सकते हैं। एक दिन सुनील की झा सर से मुलाकात हो गई । सर ने उसे बुला लिया। सुनील की हालत खराब कि अब पेपर में कम अंक लाने के लिए डाँट पड़ेगी। वह सहमा-सहमा सा था। सर ने उसे अगले दिन दोपहर खाने के बाद घर पर आने को कहा। उन्होंने सुनील से कहा बोर्ड के पेपर 11 वीं भौतिकी के आए हैं। घर पर मैं अकेला हूँ, तुम्हारी सहायता चाहिए। सुनील समझ नहीं सका कि सहायता किस प्रकार की होगी। किचन का काम तो आता नहीं। फिर सर को कौन सी सहायता कर सकता हूँ। खैर अगले दिन दोपहर खाना खाकर, सुनील सर के घर पहुँचा। सर भी खाने के बाद कुछ आराम कर के परीक्षा के पेपर जाँच ही रहे थे। सर ने सुनील को छाछ पीने को दी और कहा थोड़ी देर बैठ लो, पसीना सुखा लो, फिर लगना काम पर। अब भी सुनील को अनुमान न था कि काम क्या होगा ? वह सोचता रह गया पर कहीं पहुँच न सका।
करीब आधे घंटे बाद सर ने सुनील को प्रश्न पत्र दिया और कहा कि इसमें जिस तरह से प्रश्न हैं उसी तरह से एक तालिका बना लो जिसमें बच्चों के सवालानुसार नंबर लिखे जा सकें और सारे बच्चों के अंकों की एक तालिका बन जाएगी। सुनील को अब समझ आया कि सर को सहायता किस तरह की चाहिए थी। उसने प्रश्न पत्र पढ़ा और निर्णय करने लगा कि तालिका किस तरह से बनाई जाए। आखिर जब तालिकाएँ बन गई तो तब तक शाम हो गई थी। सर ने सुनील को कॉफी पिलाया और कहा - बेटे अब देर हो गई है और तुम्हारे खेलने का वक्त हो गया है। कल फिर आकर बाकी काम कर लेना। अब सुनील को समझ में आया कि कल जाँचे हुए पेपरों में से नंबर तालिका पर उतारने हैं और उनका जोड़ करके देना है। वह उठकर घर चला गया।
दूसरे दिन जब वह सर के घर पहुँचा तो सर ने अलग से रखे दो पेपरों को सुनील के हवाले किया और कहा - इन्हें तुम जाँचो। सुनील को इसका न ही अनुभव था, न ही वह किसी तरह इसके लिए तैयार था, वह हिचकिचाया। सर ने उसे हिम्मत दी और कहा –“ जाँचो और नंबर इतने देना जितने कि तुम अपने ऐसे लिखे उत्तरों पर उम्मीद करते हो । पर पेपर पर कुछ मत लिखना। अपनी तालिका में रोल नंबर के साथ अंक लिखते जाना।
पहले तो सुनील को अपना मन बनाने में समय लगा। फिर हिम्मत कर पेपर जाँचना शुरु किया। प्रश्नों के उत्तरों को पढ़कर औऱ उसके अंक देख कर वह बौखलाने लगा कि पाव और आधे अंक में इस पर कितने नंबर दिए जाएं। आँशिक सही को नंबर देना उसके लिए दूभर हो गया। अपनी बुद्धि के अनुसार आधे से ज्यादा सही के लिए पूरे नंबर और आधे से कम सही के लिए कोई नंबर न देकर, उसने पेपर जाँचना पूरा किया।
अंत में सर को कापी सौंपते हुए कहा-”सर, इस बच्चे ने तो कुछ भी पढ़ा नहीं है। सारे उत्तर अंट-शंट हैं ।“
सर ने कहा, “कोई बात नहीं आप अपनी तालिका के अंकों को जोड़कर रख लो।“ सुनील ने वैसा ही किया।
कुछ देर बाद सर ने वह कापी उठाई और जाँचने लगे। करीब बीस मिनट लगे सर को वह कापी जाँचने में।
फिर सुनील को देकर बोले - अपनी तालिका में आपके दिए अंकों के नीचे मेरे दिए अंकों को लिखो और दोनों को अलग-अलग जोड़ लो। सुनील ने आज्ञा का पालन किया।
शाम को सर ने फिर कॉफी बनाई और कॉफी पीते-पीते सुनील से पूछने लगे,”अरे सुनील, बताओ तो उस बच्चे को तुमने कितने नंबर दिए और मैंने कितने दिए?”
सुनील ने तालिका में देख कर बताया- सर, मैंने तो उसे 13.5 नंबर दिए थे परंतु आपने तो 17 नंबर दे दिए। अब सुनील के आश्चर्य की बारी थी वह समझ ही नहीं पा रहा था कि सर ने किस प्रश्न पर उस छात्र को अतिरिक्त नंबर दिए हैं। सर ने सुनील से कहा – देखो तो किस किस प्रश्न में उसको मैंने ज्यादा नंबर दिए जिसके कारण उसके नंबर 17 हो गए।
अब सुनील एक-एक प्रश्न और उसके अंक तालिका में देखता और फिर परीक्षा पत्र में उत्तर पढ़ता - फिर सोचता कि उसके नंबर देने में कहाँ गलती हुई है। उसे किसी भी प्रश्न के उत्तर के अंक गलत नहीं लगे ? बल्कि लगा कि सर ने ही ज्यादा नंबर दिए हैं। उसने वही बात सर से कहा।
सुनील को एक प्रश्न पर खास ऐतराज था जिसमें प्रश्न में पूछा गया था कि तैरने के सिद्धान्त क्या हैं ? विद्यार्थी ने उत्तर लिखा –
“तैरने से पहले पॆट – शर्ट उतार कर एक साफ सुथरी जगह पर रख दें । केवल अधोवस्त्र को ही गीला होने दें , जो आपको घर से अतिरिक्त लाना होता है। फिर हो सके तो शरीर पर तेल मल लें। पानी में धीरे-धीरे उतरें और जब पानी कमर से ऊँचे तक आ जाए तो पैरों को जमीन से उठाकर - हाथ और पैरों से पानी को बगल और पीछे ढकेलें। जैसे-जैसे पानी पीछे जाता जाएगा आप आगे बढ़ते जाएंगे। यह आपके भुजबल पर निर्भर करता है कि आप कितनी तेजी से तैर सकते हैं।“
वास्तव में यह उत्तर गलत ही था क्योंकि -
"भौतिकी में तैरने के सिद्दान्तों का संबंध उसके वजन , आयतन और घनत्व से है। यदि कोई वस्तु किसी द्रव में डाली जा रही है तो वह अपने डूबे हुए आयतन के बराबर द्रव विस्थापित करती है। जिसका भार वस्तु के भार के बराबर होता है। यदि वस्तु का घनत्व - द्रव से बहुत ज्यादा होगा तो वह डूब जाएगी। कम होगा तो तैर जाएगी और यदि बराबर होगा तो सतह के ठीक नीचे तैरती रहेगी। जहां वस्तु का घनत्व द्रव के घनत्व से थोड़ा ज्यादा होगा वहां वस्तु का कुछ भाग द्रव के ऊपर होगा और कुछ भाग द्रव में। वस्तु के डूबे हुए आयतन के बराबर द्रव का भार वस्तु के भार के बराबर होगा।"
सुनील के अनुसार उत्तर एकदम गलत था और उसने शून्य नंबर दिए थे। जबकि सर ने उसी सवाल जवाब पर विद्यार्थी को दो में से सवा नंबर दिए थे।
एक दूसरे पेपर को जाँचते हुए सुनील ने देखा कि एक विद्यार्थी को सर ने दो में से एक अंक दिए थे जबकि सुनील ने उसके लिए विद्यार्थी को पूरे नंबर दो में दो दिए थे।
अब जब तुलना पूरी हुई तो सर ने सुनील से पूछा तुम्हें कुछ दिखा ? सुनील ने अपने अवलोकन से सर को अवगत कराया। सर ने सुनील से पूछा –
“तुम्हारी जाँच में पहले विद्यार्थी को कितने नंबर कुल मिले ?”
“सर साढ़े तेरह।“
“मेरी जाँच में ?”
“सर 17 मिले हैं उस छात्र को।“
“मतलब तुम्हारी जाँच से वह विद्यार्थी अनुत्तीर्ण था और मैंने उसे पास करा दिया। यही है न तुम्हारी समस्या ?”
" दूसरे विद्यार्थी को कुल तुमने कितने नंबर दिए ? ”
“ सर, पूरे 50 दिए हैं क्योंकि उसकी एक भी गलती नहीं थी।
“ और मैंने कितने दिए ?”
“ सर 49, पर आपने तो बिना किसी कारण उसका एक नंबर काट लिया।“
“ देखो सुनील, ऐसी बात नहीं है। उसके पेपर में वह बलों के त्रिभुज का प्रश्न खोलो उसमें उस विद्यार्थी ने त्रिभुज के शीर्षों के नामकरण अंग्रेजी के छोटे अक्षरों से किया है, जो गलत है। त्रिभुज के शीर्षों के नामकरण यदि अंग्रेजी के अक्षरों से किया गया हो तो हमेशा ही केपिटल लेटर में होने चाहिए । वह आसानी से हिंदी में लिख सकता था जहाँ केपिटल और स्माल का चक्कर नहीं है। यहाँ उसने चालाकी दिखाई और गलती कर गया।“
“लेकिन सर, यह तो अन्याय है। एक जगह आपने तैरने के सिद्धान्त के बदले तैरने की विधि लिखने पर भी नंबर दे दिए, जिसका वह हकदार नहीं था और यहाँ इतनी सी बात कि छोटे या बड़े अक्षर के लिए नंबर काट रहे हैं। उसको कितनी खुशी होती कि उसे 50 में 50 नंबर मिले हैं। पर आपने तो उसकी खुशी छीन ली।“
सर ने कहा अब गौर से सुनो।
1. यह 11 वीं बोर्ड की परीक्षा है। इससे कई बच्चों का भविष्य जुड़ा होता है। बहुत से गरीब लड़कों की नौकरी और लड़कियों की शादी का इस परिणाम से सीधा संबंध होता है। खास तौर से वे बच्चे जिनको कम अंक मिलते हैं, पढ़ाई छोड़कर किसी काम में लग जाते हैं। इसलिए जिन बच्चों को पास होने के लिए कुछ रियायत की जरूरत होती है वह बख्श दी जाती है। जिससे कि उनके जीवन में कुछ ज्यादा आनंद आ सके।
2. जिन बच्चों को 45 प्रतिशत से 75 प्रतिशत तक के नंबर मिलते हैं उनको साधारण अंको से ही, सही जिंदगी नसीब हो जाती है, इसलिए उनके नंबरों को वैसा ही छोड़ दिया जाता है।
3. जिन विद्यार्थियों को 85 प्रतिशत से ऊपर के नंबर मिलते हैं उनके अंको की पूर्णांक के करीबी को देखते हुए जाँच को कठिन से कठिनतर किया जाता है ताकि वह कम नंबर पाने की वजह से और भी मेहनत करे और जीवन में बेहतर करे। यह सर्वविदित है कि 85 प्रतिशत से ऊपर नंबर पाने वाला 11 वीं से अपनी पढ़ाई खत्म तो नहीं करेगा और उसकी मेहनत उसकी अगली कक्षाओं में उसे बेहतर करने में साथ देंगी।
यह सब सुनकर सुनील को लगा कि शिक्षक कठोर दिल नहीं होते किंतु काल्पनिक कठोरता विद्यार्थियों के भले के लिए अपनाते हैं। उसे समझ में भलीभाँति आ गया कि झा सर ऊपर से कठोर जरूर हैं, पर उनमें विद्यार्थियों के भविष्य के प्रति पूरी चिंता रहती है। इसीलिए वे बच्चों को कठोर अनुशासन में रखते हैं।
आम विद्यार्थियों को शिक्षकों के इस पहलू का ज्ञान नहीं होता।
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (6-7-21) को "जब ख़ुदा से लो लगाई जाएगी "(चर्चा अंक- 4117) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सादर आभार।
हटाएंदिल को छू गई आपकी ये पोस्ट. सच ही कहा-
जवाब देंहटाएं-"गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़-गढ़ काढ़े खोट”
एक सच्चे गुरू से बेहतर कौन जानता है बच्चे का कल्याण किसमें है ? मैं खुद टीचर रही हूँ तो आपका संस्मरण दिल को छू गया. काश सासे शिक्षक ऐसे हो जाएं तो कितना कल्याण हो बच्चों का. कई शिक्षक तो गुरु पद की गरिमा को भी कलंकित कर रहे हैं जो पैसा, सिफारिश,चापलूसी, या पैसा देख कर नम्बर देते हैं…नमन है झा सर जैसे शिक्षकों को🙏
उषा किरण जी,
जवाब देंहटाएंमेरी समझ से परे है कि मैं आपका धन्यवाद या आभार कैसे व्यक्त करूँ।
आप शिक्षिका रही हैं इसलिए आपने गूढ़ तक को समझा।
आपने सही कहा यह संस्मरण को ही दिया हुआ लघुकथा रूप है। झा सर हमारे (मेरे) ही भौतिकी के टीचर थे 1969 से 1972 तक। और उनके घर पर पेपर जाँचने की जानकारी भी मुझे ही मिली थी।
आप मेरी अन्य रचनाएँ कविता, कहानी और लेख मेरे ब्लॉग laxmirangam.blogspot.in
पर पढ़ सकती हैं
उचित लगे और शामिल हो सकें तो मुझे खुशी होगी।
नमन
मेरी रचनाएँ
जवाब देंहटाएंhttps://www.hindikunj.com/p/mr.html
पर भी पढी जा सकती हैं
नमस्कार।
यह एक ऐसा संस्मरण है जिसमें हर शिक्षक को अपनी छवि झा सर में नजर आ सकती है क्योंकि पेपर जाँचने का यही तरीका शिक्षकों को प्रशिक्षण के दौरान बताया जाता है और आगे चलकर अपने से सीनियर शिक्षकों से भी यही तरीका सीखने को मिलता है, जो झा सर अपनाते थे। वैसे ये बात तो बिल्कुल सही है कि अधिकांश छात्रों को शिक्षक/शिक्षिका के दिए हुए अंक कम ही लगते है। आपके संस्मरण में सुनील को झा सर की बात समझ में आ गई।
जवाब देंहटाएंशिक्षाप्रद कहानी जो मनोरंजक भी है। सादर।
मीना जी ,
जवाब देंहटाएंसादर,
आपने अपनी टिप्पणी से मेरे लेख की उपयोगिता बढ़ा दी है।
इस तरह के लेखों पर आप जैसे अनुभवी शिक्षक - शिक्षिकाओं की समर्थक टिप्पणियाँ लेख की गुणवत्ता में चार - चाँद लगा देती हैँ ।
आभार