मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 1 जून 2013

मानव प्रकृति

 

     मानव प्रकृति

सच के शोलों से भी, 

जो न जल सका,

उस झूठ-पाप को कोई, 

कैसे बयाँ करे.


झूठ की नावें तैर रहीं हैं, 

सच्चाई की धारा में,

सच की धारा ढँक सी गई है, 

झूठों के पतवारों से.



भ्रष्टाचार लगा दिखने अब, 

इंसानों के खून में,

छल-फरेब और लूट-पाट अब, 

आया सबके जुनून में.



जान गई और हुआ हादसा,

हम दूजे को बदनाम करें,

किसको फुरसत, फिर यह ना हो,

ऐसा कुछ इंतजाम करें.



नभ रोकर भी आंसू से,

धरती की प्यास बुझाता है.

सूरज क्रोधित हो गर्मी से,

धरती पर फसल पकाता है.



हरेक हाल में प्रकृति अपने,

मानव का भला किए जाए.

लेकिन खुद मानव को अपना,

भला कभी ना याद आए.



अपनी अपनी खिचड़ी खाकर,

स्वाद जगत का क्या जानें,

इंसानों कुछ सोचो खुद हम,

इंसां को कैसे पहचानें.

एम.आर.अयंगर.

2 टिप्‍पणियां:

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