मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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गुरुवार, 31 मार्च 2011

छींटाकशी-1

छींटाकशी - 1

कसम गीता और कुरान की ले,
गर सभी सच बोलें यहाँ,
तो वकीलों की जिरह की,
बँध रहा है क्यों समा ?
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भीड़ से कतराए जो,
उनको ये मंशा दीजिए,
जाकर कहीं एवरेस्ट पर,
एक कमरा लीजिए.
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भूख लगती है उसे तो,
दूध से नहलाइए,
एक कतरा मुँह न जाए,
अच्छी तरह धमकाइए.
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बालकों ने गर उधम की,
इसकी सजा उनको मिले,
मत भिड़ो के है मुसीबत,
ये लूटते हैं काफिले.
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घिस रहा हूँ मैं कलम,
कोइ तलवे घिस रहा,
रगड़ ली है नाक उसने,
खूँ न फिर भी रिस रहा.
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साल भर हम सो रहे थे,
एक दिन के वास्ते,
जागते ही ली जम्हाई,
और फिर हम सो गए.
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हम कर सकें बेहतर जिसे,
अंग्रेज क्यों करने लगे,
आजादी अपने देश को वे,
दे गए क्या इसलिए  ???
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इंद्र धनुष के रंग क्यों गिनो,
यह दुनिया बहुरंगी है,
आलीशान मकानें में भी,
दिल की गलियाँ तंगी हैं,
मन:स्थिति कैसे भी बाँच लो,
वस्तुस्थिति तो नंगी है,
भले जुबानी हिदी बोले,
करें सवाल फिरंगी हैं,
भीड़ भरी है हाईवे पर अब,
और खाली पगडंडी हैं,
शहरों का अंधी गलियों में,
धन दौलत की मंडी है.

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