बिंब प्रति
इस दुनियाँ की होड़ में मुझे ,
मिल जाए जो कुछ चाहूँ,
इसी दौड़ में इक दिन गर मै,
बादशाह भी कहलाऊं,
चैन नहीं आएगा मुझको,
पाकर सब कुछ दुनियाँ से,
जब तक शांत न हो मेरा मन,
जाकर सम्मुख दर्पण के .
अपनों, गैरों की चाहत पर,
करता नहीं समर्पण मैं,
मिलता चैन मुझे जिन सबसे,
वह सब कुछ ही करता मैं .
कद्र करुं, उसके निर्णय का,
जो दर्पण से है घूर रहा,
हँसता वह मुझ पर अपनों में,
यदि उससे मैं दूर रहा .
सोचूं हरदम शीशेवाला,
क्या मुझसे कहना चाहे,
जाकर सम्मख मैं दर्पण के,
डरता हूं भरता आहें .
संग रहेगा अंत तक मेरे,
दर्पण के पीछे वह यार,
कहता गर तुम सच्चे हो तो,
कर लो मुझसे आँखें चार .
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